पंचाशदधिकशततम (150) अध्याय: आदि पर्व (जतुगृहपर्व)
महाभारत: आदि पर्व: पंचाशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद
वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! भीमसेन के चलते समय उनके महान् वेग से आन्दोलित हो वृक्ष और शाखाओं सहित वह सम्पूर्ण वन घूमता-सा प्रतीत होने लगा। जैसे ज्येष्ठ और आषाढ़ मास के संधिकाल में जोर-जोर से हवा चलने लगती हैं, उसी प्रकार उनकी पिंडलियों के वेगपूर्वक संचालन से आंधी-सी उठ रही थी। महाबली भीम जिस मार्ग से चलते, वहाँ कि लताओं और वृक्षों को पैरों से रौंदकर जमीन के बराबर कर देते थे। उनके मार्ग के निकट जो फल और फूलों से लदे हुए वनस्पति एवं गुल्म आदि होते, उन्हें तोड़कर वे पैरों से रौंदते जाते थे। जैसे तीन अंगों से मद बहाने वाला साठ वर्ष का तेजस्वी गजराज (किसी कारण से) कुपित हो वन के बड़े-बड़े वृक्षों को तोड़ने लगता हैं, उसी प्रकार महातेजस्वी भीमसेन उस वन के विशाल वृक्षों को धराशयी करते हुए आगे बढ़ रहे थे। गरुड़ और वायु के समान तीव्र गति वाले भीमसेन के चलते समय उनके (महान्) वेग से अन्य पाण्डुपुत्रों को मूर्च्छा सी आ जाती थी। मार्ग में आये हुए जल-प्रवाह को, जिसका पाट दूर तक फैला होता था, दोनों भुजाओं के बेड़े द्वारा ही बारबार पार करके वे सब पाण्डव दुर्योधन के भय से किसी गुप्त स्थान में जाकर रहते थे। भीमसेन अपनी सुकुमारी एवं यशस्विनी माता कुन्ती को पीठ पर बैठाकर नदी के ऊँचे-नीचे कगारों पर बड़ी कठिनाई से ले जाते थे। भरतश्रेष्ठ! वे संख्या होते-होते वन के ऐसे भयंकर प्रदेश में जा पहुँचे, जहाँ फल-फूल और जल की बहुत कमी थी। वहाँ क्रूर स्वभाव वाले पक्षी और हिंसक पशु रहते थे। वह संध्या बड़ी भयानक प्रतीत होती थी। क्रूर स्वभाव वाले पशु और पक्षी वहाँ बात करते थे। बिना ॠतु की प्रचण्ड हवाओं के चलने से सम्पूर्ण दिशाएं (धूल से आच्छादित हो) अन्धकारपूर्ण हो रही थी। राजन्! (हवा के झोकों से) वन के बहुसंख्यक छोटे-बड़े वृक्ष और फल इधर-उधर बिखर गये थे और उन पर पक्षी शब्द कर रहे थे। इन सबके कारण सम्पूर्ण दिशाओं में अंधेरा छा रहा था। वे कुरुकुल पाण्डव उस समय अधिक परिश्रम और प्यास के कारण बहुत कष्ट पा रहे थे। थकावट से उनकी नींद भी बहुत बढ़ गयी थी, जिससे पीड़ित होकर वे आगे जाने में असमर्थ हो गये। तब उन सबने उस सबसे उस नीरस विशाल जंगल में डेरा डाल दिया। तत्पश्चात् प्यास से पीड़ित कुन्ती देवी अपने पुत्रों से बोली- ‘मैं पांच पाण्डुपुत्रों की माता हूँ और उन्हीं के बीच में स्थित हूं, तो भी प्यास से व्याकुल हैं’ इस प्रकार कुन्ती देवी ने अपने बेटों के समक्ष यह बात बार-बार दुहरायी। माता का वात्सल्य से कहा हुआ वह वचन सुनकर भीमसेन का हदय करुणा से भर आया। वे मन-ही-मन संतप्त हो उठे और स्वयं ही (पानी लाने के लिये) जाने की तैयारी करने लगे। उस समय भीम ने उस विशाल, निर्जन एवं भयंकर वन में प्रवेश करके एक बहुत सुन्दर और विस्तृत छायावाला पीपल का पेड़ देखा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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