द्वयदिकत्रिशततम (302) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
महाभारत: शान्ति पर्व: द्वयदिकत्रिशततम अध्याय श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद
युधिष्ठिर ने पूछा– पितामह! वह अक्षर तत्व क्या है, जिसे प्राप्त कर लेने पर जीव फिर इस संसार में नहीं लौटता तथा वह क्षर पदार्थ क्या है, जिसको जानने या पा लेने पर भी पुन: इस संसार में लौटना पड़ता है? शत्रुसूदन! महाबाहु! कुरुनन्दन! क्षर और अक्षर के स्वरूप को स्पष्टरूप से समझने के लिये ही मैंने आपसे यह प्रश्न किया है। वेदों के पारंगत विद्वान ब्राह्मण, महाभाग महर्षि तथा महात्मा यति भी आपको ज्ञाननिधि कहते हैं। अब सूर्य के दक्षिणायन में रहने के थोड़े ही दिन शेष हैं। भगवान सूर्य के उत्तरायण में पदार्पण करते ही आप परमधाम को पधारेंगे। आपके चले जाने पर हमलोग अपने कल्याण की बातें किससे सुनेंगे? आप कुरुवंश को प्रकाशित करने वाले प्रदीप हैं और ज्ञानदीप से उद्भासित हो रहे हैं। अत: कुरुकुलधुरन्धर! राजेन्द्र! मैं आप ही के मुँह से यह सब सुनना चाहता हूँ। आपके इन अमृतमय वचनों को सुनकर मुझे तृप्ति नहीं होती है (अतएव आप मुझे यह क्षर-अक्षर का विषय बताइये।) भीष्म जी ने कहा– युधिष्ठिर! इस विषय में कराल नामक जनक और वसिष्ठ का जो संवाद हुआ था, वही प्राचीन इतिहास मैं तुम्हें बतलाऊँगा। एक समय की बात है, ऋषियों में सूर्य के समान तेजस्वी मुनिश्रेष्ठ वसिष्ठ अपने आश्रम पर विराजमान थे। वहाँ राजा जनक ने पहुँचकर उनसे परम कल्याणकारी ज्ञान के विषय में पूछा। मित्रावरुण के पुत्र वसिष्ठ जी अध्यात्मविषयक प्रवचन में अत्यन्त कुशल थे और उन्हें अध्यात्मज्ञान का निश्चय हो गया था। वे एक आसन पर विराजमान थे। पूर्वकाल में कराल नामक राजा जनक ने उन मुनिवर के पास जा हाथ जोड़कर प्रणाम किया और सुन्दर अक्षरों से युक्त विनयपूर्ण तथा कुतर्करहित मधुर वाणी में इस प्रकार पूछा- ‘भगवन! जहाँ से मनीषी पुरुष पुन: इस संसार में लौटकर नहीं आते हैं, उस सनातन परब्रह्म के स्वरूप का मैं वर्णन सुनना चाहता हूँ। ‘तथा जिसे क्षर कहा गया है, उसे भी जानना चाहता हूँ। जिसमें इस जगत का क्षरण (लय) होता है और जिसे अक्षर कहा गया है, उस निर्विकार कल्याण्मय शिवस्वरूप अधिष्ठान का भी ज्ञान प्राप्त करना चाहता हूँ। वसिष्ठ जी ने कहा– भूपाल! जिस प्रकार इस जगत का क्षय (परिवर्तन) होता है, उसको तथा जो किसी भी काल में क्षरित (नष्ट) नहीं होता, उस अक्षर को भी बता रहा हूँ, सुनो। देवताओं के बारह हजार वर्षों का एक चतुर्युग होता है। इसी को कल्प अर्थात महायुग समझो। ऐसे एक हजार महायुगों का ब्रह्मा जी का एक दिन बताया जाता है। राजन! उनकी रात्रि भी उतनी ही बड़ी होती है; जिसके अन्त में वे जागते हैं। अनन्तकर्मा ब्रह्मा जी सबके अग्रज और महान भूत हैं। जो अणिमा, लघिमा और प्राप्ति आदि सिद्धियों पर शासन करने वाले हैं, वे कल्याणस्वरूप निराकार परमेश्वर ही उन मूर्तिमान ब्रह्मा की सृष्टि करते हैं। परमात्मा ज्योति:- स्वरूप स्वयं प्रकट और अविनाशी हैं। उनके हाथ, पैर, नेत्र, मस्तक और मुख सब और हैं। कान भी सब ओर हैं। वे संसार में सबको व्याप्त करके स्थित हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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