महाभारत द्रोण पर्व अध्याय 78 श्लोक 1-17

अष्‍टसप्‍ततितम (78) अध्याय: द्रोण पर्व ( प्रतिज्ञा पर्व )

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महाभारत: द्रोण पर्व: अष्‍टसप्‍ततितम अध्याय: श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद


सुभद्रा का विलाप और श्रीकृष्‍ण का सबको आश्वासन

  • संजय कहते हैं- राजन। महात्‍मा केशव का यह कथन सुनकर पुत्रशोक से व्‍याकुल और अत्‍यन्‍त दु:खित हुई सुभद्रा इस प्रकार विलाप करने लगी। (1)
  • ‘हा पुत्र'। हा बेटा अभिमन्‍यु। तुम मुझ अभागिनी के गर्भ में आकर क्रमश: पिता के तुल्‍य पराक्रमी होकर युद्ध में मारे कैसे गये?' (2)
  • ’वत्‍स। नील कमल के समान श्‍याम, सुन्‍दर दन्‍तपंक्ति‍यों से सुशोभित, मनोहर नेत्रों वाला तुम्‍हारा मुख आज युद्ध की धूल से आच्‍छादित होकर कैसा दिखायी देता होगा?' (3)
  • ’बेटा। तुम शूरवीर थे। युद्ध से कभी पीछे पैर नहीं हटाते थे। मस्‍तक, ग्रीवा, बाहु और कंधे आदि तुम्‍हारे सभी अंग सुन्‍दर थे, छाती चौड़ी थी, उदर एवं नाभिदेश नीचा था, समस्‍त अंग मनोहर और हृष्‍ट-पुष्‍ट थे। सम्‍पूर्ण इन्द्रियाँ विशेषत: नेत्र बड़े सुन्‍दर थे तथा तुम्‍हारे सारे अंग शस्‍त्रजनित आघात से व्‍याप्‍त थे। इस दशा में तुम धरती पर पड़े होंगे और निश्चय ही समस्‍त प्राणी उदय होते हुए चन्द्रमा के तुम्‍हें देख रहे होंगे।' (4-5)
  • ‘हाय। पहले जिसके शयन करने के लिये बहुमूल्‍य बिछौने-से ढकी हुई शय्या बिछायी जाती थी, वही बेटा अभिमन्‍यु सुख भोगने के योग्‍य होकर भी आज बाणविद्ध शरीर से भूतल-पर कैसे सो रहा होगा?' (6)
  • ’जिस महाबाहु वीर के पास पहले सुन्‍दरी स्त्रियाँ बैठा करती थी, वही आज युद्धभूमि में पड़ा होगा और उसके आस-पास सियारिनें बैठी होंगी; यह सब कैसे सम्‍भव हुआ?' (7)
  • ‘पहले हर्ष में भरे हुए सूत, मागध और वन्‍दीजन जिसकी स्‍तुति किया करते थे, उसी की आज विकट गर्जना करते हुए भयंकर मांसभक्षी जन्‍तुओं के समुदाय उपासना करते होंगे। (8)
  • ’शक्तिशाली पुत्र। तुम्‍हारे रक्षक पाण्‍डवों, वृष्णिवीरों तथा पांचालवीरों के होते हुए भी तुम्‍हें अनाथ की भाँति किसने मारा?' (9)
  • ‘बेटा। तुम्‍हें देखने के लिये मेरी आँखें तरस रही हैं, इनकी प्‍यास नहीं बुझी। अनघ। कितनी मन्‍दभागिनी हूँ। निश्चय ही आज मैं यमलोक को चली जाऊँगी।' (10)
  • ‘वत्‍स। बड़े-बड़े नेत्र, सुन्‍दर केशप्रान्‍त, मनोहर वाक्‍य और उत्तम सुगंध से युक्त तुम्‍हारा घावरहित सुन्‍दर मुख मैं फिर कब देख पाऊँगी?' (11)
  • भीमसेन के बल को धिक्‍कार है, अर्जुन के धनुषधारण को धिक्कार है, वृष्णिवंशी वीरों के पराक्रम को धिक्कार है तथा पांचालों के बल को भी धिक्कार है।' (12)
  • केकय, चेदि तथा मत्स्य देश के वीरों और सृंजयवंशी क्षत्रियों को भी धिक्कार है, जो युद्ध में गये हुए तुम-जैसे वीर की रक्षा न कर सके।' (13)
  • अभिमन्‍यु को न देखने के कारण मेरे नेत्र शोक से व्‍याकुल हो रहे हैं। आज मुझे सारी पृथ्वी सूनी एवं कान्तिहीन-सी दिखायी देती है।' (14)
  • वसुदेवनन्‍दन श्री कृष्‍ण के भानजे और गाण्‍डीवधारी अर्जुन के अतिरथी वीर पुत्र अभिमन्‍यु को आज मैं धरती पर पड़ा हुआ कैसे देख सकूँगी।' (15)
  • ‘बेटा। आओ। तुम्‍हें प्‍यास लगी होगी। तुम्‍हें देखने के लिये प्‍यासी हुई मुझ अभागिनी माता की गोद में बैठकर मेरे दूध से भरे हुए इन स्‍तनों को शीघ्र पी लो।' (16)
  • ‘हा वीर। तुम सपने में मिले हुए धन की भाँति मुझे दिखायी दिये और नष्‍ट हो गये। अहो। यह मनुष्‍य जीवन पानी के बुलबुले के समान चंचल एवं अनित्‍य है।' (17)

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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