महाभारत वन पर्व अध्याय 81 श्लोक 1-22

एकाशीतितम (81) अध्‍याय: वन पर्व (तीर्थयात्रा पर्व)

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महाभारत: वन पर्व: एकाशीतितम अध्याय: श्लोक 1-22 का हिन्दी अनुवाद


युधिष्ठिर के पास देवर्षि नारद का आगमन और तीर्थयात्रा के फल के सम्बन्ध में पूछने पर नारद जी द्वारा भीष्म-पुलस्त्य-संवाद की प्रस्तावना

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! धनंजय के लिये उत्सुक द्रौपदी सहित सब भाईयों के पूर्वोक्त वचन सुनकर धर्मराज युधिष्ठिर का भी मन बहुत उदास हो गया। इतने में ही उन्होंने देखा, महात्मा देवर्षि नारद वहाँ उपस्थित हैं, जो अपने ब्रह्मतेज से देदीप्यमान हो घी की आहुति से प्रज्वलित हुई अग्नि के समान प्रकाशित हो रहे हैं। उन्हें आया देख भाइयों सहित धर्मराज ने उठकर उन महात्मा का यथायोग्य सत्कार किया। अपने भाइयों से घिरे हुए अत्यन्त तेजस्वी कुरुश्रेष्ठ श्रीमान् युधिष्ठिर से देवताओं से घिरे हुए देवराज इन्द्र की भाँति सुशोभित हो रहे थे। जैसे गायत्री चारों वेदों का और सूर्य की प्रभा मेरु पर्वत का त्याग नहीं करती, उसी प्रकार याज्ञसेनी द्रौपदी ने भी धर्मतः अपने पति कुन्तीकुमारों का परित्याग नहीं किया।

निष्पाप जनमेजय! उनकी यह पूजा ग्रहण करके देवर्षि भगवान् नारद ने धर्मपुत्र युधिष्ठिर को उचित सान्त्वना दी। तत्पश्चात् वे महात्मा धर्मराज युधिष्ठिर से इस प्रकार बोले- ‘धर्मात्माओं में श्रेष्ठ नरेश! बोलो, तुम्हें किस वस्तु की आवश्यकता है? मैं तुम्हें क्या दूं?’ तब भाइयों सहित धर्मनन्दन राजा युधिष्ठिर ने देवतुल्य नारद जी को प्रमाण करके हाथ जोड़कर कहा- ‘महाभाग! उत्तम व्रत का पालन करने वाले महर्षे! सम्पूर्ण विश्व के द्वारा पूजित आप महात्मा के संतुष्ट होने पर मैं ऐसा समझता हूँ कि आपकी कृपा से मेरा सब कार्य पूरा हो गया। निष्पाप मुनिश्रेष्ठ! यदि भाइयों सहित मैं आपकी कृपा का पात्र होऊं तो आप मेरे संदेह को सम्यक् प्रकार से नष्ट कर दीजिये। जो मनुष्य तीर्थयात्रा में तत्पर होकर इस पृथ्वी की परिक्रमा करता है, उसे क्या फल मिलता है? यह आप पूर्णरूप से बताने की कृपा करें’।

नारद जी ने कहा- 'राजन्! सावधान होकर सुनो, बुद्धिमान् भीष्म जी ने महर्षि पुलस्त्य के मुख से ये सब बातें जिस प्रकार सुनी थीं, वह सब मैं तुम्हें बता रहा हूं। महाभाग! पहले की बात है, देवताओं और गन्धर्वों से सेवित गंगाद्वार (हरिद्वार) तीर्थ में भागीरथी के पवित्र, शुभ एवं देवर्षि सेवित तट-प्रवेश में श्रेष्ठ धर्मात्मा भीष्म जी पितृसम्बन्धी (श्राद्ध, तर्पण आदि) व्रत का आश्रय ले महर्षियों के साथ रहते थे। परम तेजस्वी भीष्म जी ने वहाँ शास्त्रीय विधि के अनुसार देवताओं, ऋषियों तथा पितरों का तर्पण किया। कुछ समय के बाद जब महायशस्वी भीष्म जी जप में लगे हुए थे, अपने पास ही उन्होंने अद्भुत तेजस्वी मुनिश्रेष्ठ पुलस्त्य जी को देखा। वे उग्र तपस्वी महर्षि तेज से देदीप्यमान हो रहे थे। उन्हें देखकर भीष्म जी को अनुपम प्रसन्नता प्राप्त हुई तथा वे बड़े आश्चर्य में पड़ गये।

भारत! धर्मात्माओं में श्रेष्ठ भीष्म ने वहाँ उपस्थित हुए महाभाग महर्षि का शास्त्रोक्त विधि से पूजन किया। उन्होंने पवित्र एवं एकाग्रचित्त होकर (पुलस्त्य जी के दिये हुए) अर्घ्य को सिर पर धारण करके उन ब्रह्मर्षिश्रेष्ठ पुलस्त्य जी को अपने नाम का इस प्रकार परिचय दिया- ‘सुव्रत! आपका भला हो, मैं आपका दास भीष्म हूँ। आपके दर्शनमात्र से मैं सब पापों से मुक्त हो गया’। महाराज युधिष्ठिर! धनुर्धारियों में श्रेष्ठ एवं वाणी को संयम में रखने वाले भीष्म ऐसा कहकर हाथ जोड़े चुप हो गये। कुरुकुलशिरोमणि भीष्म को नियम, स्वाध्याय तथा वेदोक्त कर्मों के अनुष्ठान से दुर्बल हुआ देख पुलस्त्य मुनि मन-ही-मन बड़े प्रसन्न हुए।


इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत तीर्थयात्रापर्व में युधिष्ठिर-नारद संवाद विषयक इक्यासीवां अध्याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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