महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 8 श्लोक 1-17

अष्टम (8) अध्याय: कर्ण पर्व

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महाभारत: कर्ण पर्व: अष्टम अध्याय: श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद


धृतराष्ट्र का विलाप


जनमेजय बोले- द्विजश्रेष्ठ! युद्ध में कर्ण मारा गया और पुत्र भी धराशायी हो गये, यह सुनकर अचेत हुए राजा धृतराष्ट्र को जब पुनः कुछ चेत हुआ, जब उन्होंने क्या कहा? धृतराष्ट्र को अपने पुत्रों के मारे जाने के कारण बड़ा भारी दुःख हुआ था, उस समय उन्होंने जो कुछ कहा, उसे मैं पूछ रहा हूँ; आप मुझे बताइये।

वैशम्पायन जी कहते हैं- राजन! कर्ण का मारा जाना अद्भुत और अविश्वसनीय सा लग रहा था। वह भयंकर कर्म उसी प्रकार समस्त प्राणियों को मोह में डालने वाला था, जैसे मेरु पर्वत का अपने स्थान से हटकर अन्यत्र चला जाना। परम बुद्धिमान भृगु नन्दन परशुराम जी के चित्त में मोह उत्पन्न होना जैसे सम्भव नहीं है, जैसे भयंकर कर्म करने वाले देवराज इन्द्र का अपने शत्रुओं से पराजित होना असम्भव है, जैसे महातेजस्वी सूर्य के आकाश से पृथ्वी पर गिरने और अक्षय जल वाले समुद्र के सूख जाने की बात मन में सोची नहीं जा सकती; पृथ्वी, आकाश, दिशा और जल का सर्वनाश होना एवं पाप तथा पुण्य- दोनों प्रकार के कर्मों का निष्फल हो जाना जैसे आश्चर्यजनक घटना है; उसी प्रकार समर में कर्ण-वध रूपी असम्भव कर्म को भी सम्भव हुआ सुनकर और उस पर बुद्धि द्वारा अच्छी तरह विचार करके राजा धृतराष्ट्र यह सोचने लगे कि ‘अब यह कौरव दल बच नहीं सकता। कर्ण की ही भाँति अन्य प्राणियों का भी विनाश हो सकता है।’ यह सब सोचते ही उनके हृदय में शोक की आग प्रज्वलित हो उठी और वे उससे तपने एवं दग्ध से होने लगे। एनके सारे अंग शिथिल हो गये। महाराज! वे अम्बिका नन्दन धृतराष्ट्र दीन भाव से लंबी साँस खींचने और अत्यन्त दुखी हो ‘हाय! हाय!’ कहकर विलाप करने लगे।

धृतराष्ट्र बोले - संजय! अधिरथ का वीर पुत्र कर्ण सिंह और हाथी के समान पराक्रमी था। उसके कंधे साँड़ के कंधे के समान हृष्ट-पुष्ट थे। उसकी आँखें और चाल-ढाल भी साँड़ के ही सदृश थीं। वह स्वयं भी दान की वर्षा करने के कारण वृषभ स्वरूप था। रणभूमि में विचरता हुआ कर्ण इन्द्र जैसे शत्रु से पाला पड़ने पर भी साँड़ के समान कभी युद्ध से पीछे नहीं हटता था। उसकी युवा अवस्था थी। उसका शरीर इतना सुदृढ़ था, मानो वज्र से गढ़ा गया हो। जिसकी प्रत्यंचा की टंकार तथा बाण वर्षा के भयंकर शब्द से भयभीत हो रथी, घुड़सवार, गजारोही और पैदल सैनिक युद्ध में सामने नहीं ठहर पाते थे। जिस महाबाहु का भरोसा करके शत्रुओं पर विजय पाने की इच्छा रखते हुए दुर्योधन ने महारथी पाण्डवों के साथ वैर बाँध रखा था। जिसका पराक्रम शत्रुओं के लिये असह्य था, वह रथियों में श्रेष्ठ पुरुषसिंह कर्ण युद्ध स्थल में कुन्ती पुत्र अर्जुन के द्वारा बलपूर्वक कैसे मारा गया? जो अपने बाहुबल के घमंड में भरकर श्रीकृष्ण को, अर्जुन को तथा एक साथ आये हुए अन्यान्य वृष्णि वंशियों को भी कभी कुछ नहीं समझता था। जो राज्य की इच्छा रखने वाले तथा चिन्ता से आतुर हो मुँह लटकाये बैठे हुए मेरे लोभ मोहित मूर्ख पुत्र दुर्योधन से सदा यही कहा कहता था कि ‘मैं अकेला ही युद्ध स्थल में शांर्ग और गाण्डीव धनुष धारण करने वाले दोनों अपराजित वीर श्रीकृष्ण और अर्जुन को उनके दिव्यरथ से एक साथ ही मार गिराऊँगा।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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