महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 108 श्लोक 1-16

अष्टाधिकशततम (108) अध्याय: अनुशासनपर्व (दानधर्म पर्व)

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महाभारत: अनुशासन पर्व: अष्टाधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद


मानस तथा पार्थिव तीर्थ की महत्ता

युधिष्ठिर ने पूछा- पितामह! जो सब तीर्थों में श्रेष्ठ हो तथा जहाँ जाने से परम शुद्धि हो जाती हो, उस तीर्थ को मझे विस्तारपूर्वक बताइये।

भीष्म जी ने कहा- युधिष्ठिर! इस पृथ्वी पर जितने तीर्थ हैं, वे सब मनीषी पुरुषों के लिये गुणकारी होते हैं; किंतु उन सब में जो परम पवित्र और प्रधान तीर्थ हैं, उसका वर्णन करता हूँ, एकाग्रचित्त होकर सुनो। जिसमें धैर्यरूप कुण्ड और सत्यरूप जल भरा हुआ है तथा जो अगाध, निर्मल एवं अत्यन्त शुद्ध है, उस मानस तीर्थ में सदा परमात्मा का आश्रय लेकर स्नान करना चाहिये। कामना और याचना का अभाव, सरलता, सत्य मृदुता, अहिंसा, समस्त प्राणियों के प्रति क्रूरता का अभाव-दया, इन्द्रियसंयम और मनोनिग्रह- ये ही इस मानस तीर्थ के सेवन से प्राप्त होने वाली पवित्रता के लक्षण हैं। जो ममता, अहंकार, राग-द्वेषादि द्वन्द्व और परिग्रह से रहित एवं भिक्षा से जीवन निर्वाह करते हैं, वे विशुद्ध अन्तःकरण वाले साधु पुरुष तीर्थस्वरूप हैं। किंतु जिसकी बुद्धि में अहंकार का नाम भी नहीं है, वह तत्त्वज्ञानी पुरुष श्रेष्ठ तीर्थ कहलाता है।

भगवान नारायण अथवा भगवान शिव में जो भक्ति होती है, वह भी उत्तम तीर्थ मानी गयी है। पवित्रता का यह लक्षण तुम्हें विचार करने पर सर्वत्र ही दृष्टिगोचर होगा। जिनके अन्तःकरण से तमोगुण, रजोगुण और सत्त्वगुण धुल गये हैं अर्थात जो तीनों गुणों से रहित है, जो ब्राह्य पवित्रता और अपवित्रता से युक्त रहकर भी अपने कर्तव्य (तत्त्वविचार, ध्यान, उपासना आदि) का ही अनुसंधान करते हैं। जो सर्वस्व के त्याग में ही अभिरुचि रखते हैं, सर्वज्ञ और समदर्शी होकर शौचाचार के पालन द्वारा आत्मशुद्धि का सम्पादन करते हैं, वे सत्पुरुष ही परम पवित्र तीर्थस्वरूप हैं। शरीर को केवल पानी से भिगो लेना ही स्नान नहीं कहलाता है। सच्चा स्नान तो उसी ने किया है, जिसने मन-इन्द्रि के संयमरूपी जल में गोता लगाया है। वही बाहर और भीतर से पवित्र माना गया है। जो बीते या नष्ट हुए विषयों की अपेक्षा नहीं रखते, प्राप्त हुए पदार्थों में ममताशून्‍य होते हैं तथा जिनके मन में कोई इच्छा पैदा नहीं होती, उन्हीं में परम पवित्रता होती है। इस जगत में प्रज्ञान ही शरीर-शुद्धि का विशेष साधन है।

इसी प्रकार अकिंचनता और मन की प्रसन्नता भी शरीर को शुद्ध करने वाले हैं। शुद्धि चार प्रकार की मानी गयी है- 'आचारशुद्धि', 'मनःशुद्धि', 'तीर्थशुद्धि' और 'ज्ञानशुद्धि'; इनमें ज्ञान से प्राप्त होने वाली शुद्धि ही सबसे श्रेष्ठ मानी गयी है। जो प्रसन्न एवं शुद्ध मन से ब्रह्मज्ञानरूपी जल के द्वारा मानस तीर्थ में स्नान करता है, उसका वह स्नान ही तत्त्वदर्शी ज्ञानी का स्नान माना गया है। जो सदा शौचाचार से सम्पन्न, विशुद्ध भाव से युक्त और केवल सद्गुणों से विभूषित है, उस मनुष्य को सदा शुद्ध ही समझना चाहिये।

भारत! यह मैंने शरीर में स्थित तीर्थों का वर्णन किया; अब पृथ्वी पर जो पुण्यतीर्थ हैं; उनका महत्त्व भी सुनो।

जैसे शरीर के विभिन्न स्थान पवित्र बताये गये हैं, उसी प्रकार पृथ्वी के भिन्न-भिन्न भाग भी पवित्र तीर्थ हैं और वहाँ का जल पुण्यदायक है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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