पन्चाशदधिकशततम (150) अध्याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)
महाभारत: अनुशासनपर्व: पन्चाशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-21 का हिन्दी अनुवाद
युधिष्ठिर ने पूछा- पितामह! आप महाज्ञानी और सम्पूर्ण शास्त्रों के विशेषज्ञ हैं। अतः मैं पूछता हूँ कि प्रतिदिन किस स्तोत्र या मन्त्र का जप करने से धर्म के महान फल की प्राप्ति हो सकती है? यात्रा, गृहप्रवेश अथवा किसी कर्म का आरम्भ करते समय, देवयज्ञ में या श्राद्ध के समय किस मन्त्र का जप करने से कर्म की पूर्ति हो जाती है? शान्ति, पुष्टि, रक्षा, शत्रुनाश तथा भय-निवारण करने वाला कौन-सा ऐसा जपनीय मन्त्र है, जो वेद के समान माननीय है? आप उसे बताने की कृपा करें। भीष्म जी ने कहा- राजन! महर्षि वेदव्यास का बताया हुआ यह एक मन्त्र है, उसे एकाग्रचित्त होकर सुनो। सावित्री देवी ने इस दिव्य मन्त्र की सृष्टि की है तथा यह तत्काल ही पाप से छुटकारा दिलाने वाला है। अनघ! पाण्डव श्रेष्ठ! मैं इस मन्त्र की सम्पूर्ण विधि बताता हूँ, सुनो! उसे सुनकर मनुष्य सब पापों से मुक्त हो जाता है। धर्मज्ञ नरेश्वर! जो रात-दिन इस मन्त्र का जप करता है, वह पापों से लिप्त नहीं होता। वही मन्त्र मैं तुम्हें बता रहा हूँ, एकचित्त होकर सुनो। राजकुमार! जो इस मन्त्र को सुनता है, वह पुरुष दीर्घजीवी तथा सफलमनोरथ होता है, इहलोक और परलोक में भी आनन्द भोगता है। राजन! प्राचीन काल में क्षत्रिय धर्म का पालन करने वाले और सदा सत्य व्रत के आचरण में संलग्न रहने वाले राजर्षि शिरोमणि इस मन्त्र का सदा ही जप किया करते थे। भरतसिंह! जो राजा मन और इन्द्रियों को वश में करके शान्तिपूर्वक प्रतिदिन इस मन्त्र का जप करते हैं, उन्हें सर्वोत्तम सम्पत्ति प्राप्त होती है। (यह मन्त्र इस प्रकार है-) महान व्रतधारी वसिष्ठ को नमस्कार है, वेदनिधि पराशर को नमस्कार है, विशाल सर्परूपधारी अनन्त (शेषनाग) को नमस्कार है, अक्षय सिद्धगण को नमस्कार है, ऋषिवृन्द को नमस्कार है तथा परात्पर, देवाधिदेव, वरदाता परमेश्वर को नमस्कार है एवं सहस्र मस्तक वाले शिव को और सहस्रों नाम धारण करने वाले भगवान जनार्दन को नमस्कार है। अजैकपाद, अहिर्बुध्न्य, पिनाकी, अपराजित, ऋत, पितृरूप त्र्यम्बक, महेश्वर, वृषाकपि, शम्भु, हवन और ईश्वर- ये ग्यारह रुद्र विख्यात हैं, जो तीनों लोकों के स्वामी हैं। वेद के शतरुद्रिय प्रकरण में महात्मा रुद्र के सैकड़ों नाम बताये गये हैं। अंश, भग, मित्र, जलेश्वर, वरुण, धाता, अर्यमा, जयन्त, भास्कर, त्वष्टा, पूषा, इन्द्र तथा विष्णु- ये बारह आदित्य कहलाते हैं। ये सब-के-सब कश्यप के पुत्र हैं। धर, ध्रुव, सोम, सावित्र, अनिल, अनल, प्रत्यूष और प्रभास- ये आठ वसु कहे गये हैं। नासत्य और दस्र- ये दोनों अश्विनीकुमार के नाम से प्रसिद्ध हैं। इनकी उत्पत्ति भगवान सूर्य के वीर्य से हुई है। ये अश्वरूपधारिणी संज्ञा देवी के नाक से प्रकट हुऐ थे। (ये सब मिलाकर तैंतीस देवता हैं) अब मैं जगत के कर्म पर दृष्टि रखने वाले तथा यज्ञ, दान और सुकृत को जानने वाले देवताओं का परिचय देता हूँ। ये देवगण स्वयं अदृश्य रहकर समस्त प्राणियों के शुभाशुभ कर्मों को देखते रहते हैं। इनके नाम ये हैं- मृत्यु, काल, विश्वेदेव और मूर्तिमान पितृगण। इनके सिवा तपस्वी मुनि तथा तप एवं मोक्ष में संलग्न सिद्ध महर्षि भी सम्पूर्ण जगत पर हित की दृष्टि रखते हैं। ये सब अपना नाम-कीर्तन करने वाले मनुष्यों को शुभ फल देते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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