एकोननवतितम (89) अध्याय: आदि पर्व (सम्भव पर्व)
महाभारत: आदि पर्व: एकोननवतितम अध्याय: श्लोक 1-12 का हिन्दी अनुवाद
ययाति और अष्टक संवाद ययाति ने कहा- महात्मन्! मैं नहुष का पुत्र और पुरु का पिता ययाति हूँ। समस्त प्राणियों का अपमान करने से मेरा पुण्य क्षीण हो जाने के कारण मैं देवताओं, सिद्धों तथा महर्षियों के लोक से च्युत होकर नीचे गिर रहा हूँ। मैं आप लोगों से अवस्था में बड़ा हूं, अत: आप लोगों को प्रणाम नहीं कर रहा हूँ। द्विजातियों में जो विद्या, तप और अवस्था में बड़ा होता है, वह पूजनीय माना जाता है। अष्टक बोले- राजन्! आपने कहा है कि जो अवस्था में बड़ा हो वही अधिक सम्माननीय कहा जाता है। परंतु द्विजों में तो जो विद्या और तपस्या में बढ़ा-चढ़ा हो, वही पूज्य होता है। ययाति ने कहा- पाप को पुण्य कर्मों का नाशक बताया जाता है, वह नरक की प्राप्ति कराने वाला है और वह उद्दण्ड पुरुषों में ही देखा जाता है। दुराचारी के दुराचार का श्रेष्ठ पुरुष अनुसरण नहीं करते हैं। पहले के साधु पुरुष भी उन श्रेष्ठ पुरुषों के ही अनुकूल आचरण करते थे। मेरे पास पुण्यरूपी बहुत धन था; किंतु दूसरों की निन्दा करने के कारण वह सब नष्ट हो गया। अब मैं चेष्टा करके भी उसे नहीं पा सकता। मेरी इस दुरवस्था को समझ-बूझकर जो आत्म कल्याण में संलग्न रहता है, वही ज्ञानी और वही धीर है। जो मनुष्य बहुत धनी होकर उत्तम यज्ञों द्वारा भगवान् की आराधना करता है, सम्पूर्ण विद्याओं को पाकर जिसकी बुद्धि विनययुक्त है तथा जो वेदों को पढ़कर अपने शरीर को तपस्या में लगा देता है, वह पुरुष मोह रहित होकर स्वर्ग में जाता है। महान् धन पाकर कभी हर्ष से उल्लसित न हो, वेदों का अध्ययन करे, किंतु अहंकारी न बने। इस जीव-जगत् में भिन्न-भिन्न स्वभाव वाले बहुत से प्राणी हैं, वे सभी प्रारब्ध के अधीन हैं, अत: उनके धनादि पदार्थों के लिये किये हुए उद्योग और अधिकार सभी व्यर्थ हो जाते हैं। इसलिये धीर पुरुष को चाहिये कि वह अपनी बुद्धि से ‘प्रारब्ध ही बलवान् है, यह जानकर दु:ख या सुख जो भी मिले, उसमें बिकार- को प्राप्त न हो। जीव जो सुख अथवा दु:ख पाता है, वह प्रारब्ध से ही प्राप्त होता है, अपनी शक्ति से नहीं। अत: प्रारब्ध को ही बलवान मानकर मनुष्य किसी प्रकार भी हर्ष अथवा शोक न करे। दु:खों से संतप्त न हो और सुखों से हर्षित न हो। धीर पुरुष सदा समभाव से ही रहे और भाग्य को ही प्रबल मानकर किसी प्रकार चिन्ता एवं हर्ष के वशीभूत न हो। अष्टक! मैं कभी भय में पड़कर मोहित नहीं होता, मुझे कोई मानसिक संताप भी नहीं होता; क्योंकि मैं समझता हूँ कि विधाता इस संसार में मुझे जैसे रखेगा, वैसे ही रहूंगा।। स्वेदज, अण्डज, उद्गिज्ज, सरीसृप, कृमि, जल में रहने वाले मत्स्य आदि जीव तथा पर्वत, तृण और काष्ठ- ये सभी प्रारब्ध-भोग का सर्वथा क्षय हो जाने पर अपनी प्रकृति को प्राप्त हो जाते हैं। अष्टक! मैं सुख तथा दु:ख दोनों की अनित्यता को जानता हूं, फिर मुझे संताप हो तो कैसे? मैं क्या करूं और क्या करके संतप्त न होऊं, इन बातों की चिन्ता छोड़ चुका हूँ। अत: सावधान रहकर शोक-संताप को अपने से दूर रखता हूँ। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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