महाभारत विराट पर्व अध्याय 46 श्लोक 1-11

षट्चत्वारिंश (46) अध्याय: विराट पर्व (गोहरण पर्व)

Prev.png

महाभारत: विराट पर्व: षट्चत्वारिंश अध्याय: श्लोक 1-11 का हिन्दी अनुवाद


उत्तर के रथ पर अर्जुन को ध्वज की प्रापित, अर्जुन का शंखनाद और द्रोणाचार्य का कौरवों से उत्पात सूचक अपशकुनों का वर्णन

वैशम्पायनजी कहते हैं - जनमेजय! उत्तर को सारथि बना शमी वृक्ष की परिक्रमा करके अपने सम्पूर्ण अस्त्र शस्त्र लेकर पाण्डवश्रेष्ठ अर्जुन युद्ध के लिये चले। उन महारथी पार्थ ने उस रथ पर से सिंह चिह्न युक्त ध्वजा को हटाकर शमी वृक्ष के नीचे रख दिया और सारथि उत्तर के साथ प्रस्थान किया। उस समय उन्होंने मन ही मन अग्नि देव के प्रसाद स्वरूप प्राप्त हुए अपने सुवर्णमय ध्वज का चिन्तन किया, जिस पर मूर्तिमान वानर उपलक्षित होता है और जिसकी लंबी पूँछ सिंह के समान हैं वह ध्वज क्या था, विश्वकर्मा की बनायी हुई दैवी माया थी, जो रथ में संयुक्त हो जाती थी। अग्निदेव ने अर्जुन का मनोभाव जानकर उस ध्वज पर स्थित रहने के लिये भूतों को आदेश दिया। तत्पश्चात् पताका तथा विचित्र अंग और उपांगों सहित वह अतिशय शक्तिशाली दिव्य रूप मनोरम ध्वज तुरंत ही आकाश से अर्जुन के रथ पर आ गिरा। इस प्रकार उस ध्वज को रथ पर आया हुआ देख यवेत घोड़ों वाले कुन्ती नन्दन अर्जुन ने उस रथ की परिक्रमा की तथा उसके ऊपर बैइकर अपनी अंगुलियों में गोह के चमड़े के बने हुए दस्ताने धारण किये। फिर कपिश्रेष्ठ हनुमानजी से उपलक्षित ध्वजा को फहराते हुए गाण्डीव धनुष के साथ उत्तर दिशा में प्रस्थान किया। उस समय शत्रुमर्दन महाबली अर्जुन ने घोर शब्द करने वाले अपने महान् शंख को खूब जोर लगाकर बजाया।

जिसकी आवाज सुनकर शत्रुओं के रोंगटे खड़े हो गये। शत्रुदमन अर्जुन ने जो महान् शंख फूँका था, वह चन्द्रमा के समान परत उज्ज्वल जान पड़ता था। उस शंख का जोर जोर से होन वाला शब्द वर्षा काल के मेघ की गर्जना के समान सुनायी देता था। शंख की ध्वनि, धनुष की टंकार, वानर की गर्जना तथा रथ के पहियों की घर्घराहट से इन्द्रपुत्र अर्जुन ने समसत जंगम प्राणियों के मन में घोर भय का संचार कर दिया।। उस शंख ध्वनि से घबराकर रथ के वेगशाली घोड़ों ने भी धरती पर घुटने टेक दिये और उत्तर भी अत्यन्त भयभीत हो रथ के ऊपरी भाग में जहाँ रथी का स्थान है, आ बैठा। तब कुन्ती नन्दन अर्जुन ने स्वयं रास खींचकर घाड़ों को खड़ा किया और उत्तर को हृदय से लगाकर धीरज बँधाया।

अर्जुन ने कहा - शत्रुओं को संताप देने वाले राजकुमार शिरोमणे! डरो मत, तुम क्षत्रिय हो। पुरुषसिंह! शत्रुओं के बीच में आकर घबराते कैसे हो ?।

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः