महाभारत वन पर्व अध्याय 53 श्लोक 1-18

त्रिपंचाशत्तम (53) अध्‍याय: वन पर्व (नलोपाख्यान पर्व)

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महाभारत: वन पर्व: त्रिपंचाशत्तम अध्याय: श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद


नल-दमयन्ती के गुणों का वर्णन, उनका परस्पर अनुराग और हंस का दमयन्ती और नल को एक-दूसरे के संदेश सुनाना

बृहदश्व ने कहा- धर्मराज! निषध देश में वीरसेन के पुत्र नल नाम से प्रसिद्ध एक बलवान् राजा हो गये हैं। वे उत्तम गुणों से सम्पन्न, रूपवान् और अश्व संचालन की कला में कुशल थे। जैसे देवराज इन्द्र सम्पूर्ण देवताओं के शिरमौर हैं, उसी प्रकार राजा नल का स्थान समस्त राजाओं के ऊपर था। वे तेज में भगवान् सूर्य के समान सर्वोपरि थे। निषध देश के महाराज नल बड़े ब्राह्मणभक्त, वेदवेत्ता, शूरवीर, द्यूतक्रीड़ा के प्रेमी, सत्यवादी, महान् और एक अक्षौहिणी सेना के स्वामी थे। वे श्रेष्ठ स्त्रियों को प्रिय थे और उदार, जितेन्द्रिय, प्रजाजनों के रक्षक तथा साक्षात् मनु के समान धनुर्धरों में उत्तम थे।

इसी प्रकार उन दिनों विदर्भ देश में भयानक पराक्रमी भीम नामक राजा राज्य करते थे। वे शूरवीर और सर्वसद्गुणसम्पन्न थे। उन्हें कोई संतान नहीं थी। अतः संतान प्राप्ति की कामना उनके हृदय में सदा बनी रहती थी। भारत! राजा भीम ने अत्यन्त एकाग्रचित्त होकर संतान प्राप्ति के लिये महान् प्रयत्न किया। उन्हीं दिनों उनके यहाँ दमन नामक ब्रह्मर्षि पधारे। राजेन्द्र! धर्मज्ञ तथा संतान की इच्छा वाले उस भीम ने अपनी रानी सहित उन महातेजस्वी मुनि को पूर्ण सत्कार करके संतुष्ट किया। महायशस्वी दमन मुनि ने प्रसन्न होकर पत्नी सहित राजा भीम को एक कन्या और तीन उदार पुत्र प्रदान किये। कन्या का नाम था दमयन्ती और पुत्रों के नाम थे-दम, दान्त और दमन। ये सभी बड़े तेजस्वी थे। राजा के तीनों पुत्र गुणसम्पन्न, भयंकर वीर और भयानक पराक्रमी थे। सुन्दर कटि प्रदेश वाली दमयन्ती रूप, तेज, यश, श्री और सौभाग्य के द्वारा तीनों लोकों में विख्यात यशस्विनी हुई। जब उसने युवावस्था में प्रवेश किया, उस समय सौ दासियां और सौ सखियां वस्त्रभूषणों से अलंकृत हो सदा उसकी सेवा में उपस्थित रहती थीं। मानों देवांगनाएं शची की उपासना करती हों।

अनिन्द्य सुन्दर अंग वाली भीमकुमारी दमयन्ती सब प्रकार के आभूषण से विभूषित हो सखियों की मण्डली में वैसी ही शोभा पाती थी, जैसे मेघमाला के बीच विद्युत् प्रकाशित हो रही हो। वह लक्ष्मी के समान अत्यन्त सुन्दर रूप से सुशोभित थी। उसके नेत्र विशाल थे। देवताओं और यक्षों में भी वैसी सुन्दरी कन्या कहीं देखने में नहीं आती थी। मनुष्यों तथा अन्य वर्ग के लोगों में भी वैसी सुन्दरी पहले न तो कभी देखी गयी थी और न सुनने में ही आयी थी। उस बाला को देखते ही चित्त प्रसन्न हो जाता था। वह देववर्ग में भी श्रेष्ठ सुन्दरी समझी जाती थी। नरश्रेष्ठ नल भी इस भूतल के मनुष्यों में अनुपम सुन्दर थे। उनका रूप देखकर ऐसा जान पड़ता था, मानो नल के आकार में स्वयं मूर्तिमान् कामदेव ही उत्पन्न हुआ हों। लोग कौतूहलवश दमयन्ती के समीप नल की प्रशंसा करते थे और निषधराज नल के निकट बार-बार दमयन्ती के सौन्दर्य की सराहना किया करते थे।

कुन्तीनन्दन! इस प्रकार निरन्तर एक-दूसरे के गुणों को सुनते-सुनते उन दोनों में बिना देखे ही परस्पर काम (अनुराग) उत्पन्न हो गया। उनकी वह कामना दिन-दिन बढ़ती ही चली गयी। जब राजा नल उस कामदेवना को हृदय के भीतर छिपाये रखने में असमर्थ हो गये, तब वे अन्तःपुर के समीपवर्ती उपवन में जाकर एकान्त में बैठे गये।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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