महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 8 श्लोक 1-18

अष्टम (8) अध्‍याय: उद्योग पर्व (सेनोद्योग पर्व)

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महाभारत: उद्योग पर्व: अष्टम अध्याय: श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद

शल्य का दुर्योधन के सत्कार से प्रसन्न हो उसे वर देना और युधिष्ठिर से मिलकर उन्हें आश्वासन देना।

वैशम्पायनजी कहते हैं- जनमेजय! पाण्डवों के दूतों के मुख से उनका संदेश सुनकर राजा शल्य अपने महारथी पुत्रों के साथ विशाल सेना से घिरकर पाण्डवों के पास चले। नरश्रेष्ठ शल्य इतनी अधिक सेना का भरण पोषण करते थे कि उसका पड़ाव पड़ने पर आधी योजन भूमि घिर जाती थी। राजन! महान बलवान और पराक्रमी शल्य अक्षौहिणी सेना के स्वामी थे। सैकड़ों और हजारों वीर क्षत्रिय शिरोमणि उनकी विशाल वाहिनी का संचालन करने वाले सेनापति थे। वे सबके सब शौर्य-सम्पन्न, अद्भुत कवच धारण करने वाले तथा विचित्र ध्वज एवं धनुष से सुशोभित थे। उन सब के अंगों में विचित्र आभूषण शोभा दे रहे थे। सभी के रथ और वाहन विचित्र थे। सबके गले में विचित्र मालाएँ शुशोभित थीं। सबके वस्त्र और अंलकार अद्भुत दिखायी देते थे। उन सबने अपने-अपने देश की वेष-भूषा धारण कर रक्खी थी। राजा शल्य समस्त प्राणियों को व्यथित और पृथ्वी को कम्पित से करते हुए अपनी सेना को धीरे-धीरे विभिन्न स्थानों-पर ठहराकर विश्राम देते हुए उस मार्ग पर चले, जिससे पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर के पास शीघ्र पहुँच सकते थे। भरतनन्दन! उन्हीं दिनों दुर्योधन ने महारथी एवं महामना राजा शल्य का आगमन सुनकर स्वयं आगे बढकर (मार्ग में ही) उनका सेवा-सत्कार प्रारम्भ कर दिया। दुर्योधन ने राजा शल्य के स्वागत सत्कार के लिये रमणीय प्रदेशों में बहुत से सभा भवन तैयार कराये, जिनकी दीवारों में रत्न जडे हुए थे उन भवनों को सब प्रकार से सजाया गया था। नाना प्रकार के शिल्पियों ने उनमें अनेकानेक क्रीड़ा-विहार के स्थान बनाये थे। वहाँ भाँति-भाँति के वस्त्र, मालाएँ, खाने-पीने का समान तथा सत्कार की अन्यान्य वस्तुएँ रक्खी गयी थीं। अनेक प्रकार के कुएँ तथा भाँति-भाँति की बावड़ियाँ बनायी गयीं थीं, जो हृदय के हर्ष को बढ़ा रही थीं। बहुत से ऐसे गृह बने थे, जिनमें जल की विशेष सुविधा सुलभ की गयी थी। सब ओर विभिन्न स्थानों में बने हुए उन सभा भवनों में पहुँचकर राजा शल्य दुर्योधन के मन्त्रियों द्वारा देवताओं की भाँति पूजित होते थे। इस तरह (यात्रा करते हुए) शल्य किसी दूसरे समान भवन में गये, जो देव मन्दिरों के समान प्रकाशित होता था। वहाँ उन्‍हें अलौकिक कल्याणमय भोग प्राप्त हुए। उस समय उन क्षत्रियशिरोमणि नरेश ने अपने आपको सबसे अधिक सोभाग्यशाली समझा। उन्‍हें देवराज इन्द्र भी अपने से तुच्छ प्रतीत हुए। उस समय अत्यन्त प्रसन्न होकर उन्होंने सेवको से पूछा। युधिष्ठिर के किन आदमियों ने ये सभा भवन बनाये हैं। उन सबको बुलाओ। मैं उन्‍हें पुरस्कार देने के योग्य मानता हूँ। 'मैं इन सबको अपनी प्रसन्नता के फलस्वरूप कुछ पुरस्कार दूँगा, कुन्ती नन्दन युधिष्ठिर को भी मेरे इस व्यवहार का अनुमोदन करना चाहिये।' यह सुनकर सब सेवकों ने विस्मित हो दुर्योधन से वे सारी बातें बतायीं। जब हर्ष से भरे हुए राजा शल्य (अपने प्रति किये गये उपकार के बदले) प्राण तक देने को तैयार हो गये, तब गुप्तरूप से वहीं छिपा हुआ दुर्योधन मामा शल्य के सामने आया। उसे देखकर तथा उसी ने यह सारी तैयारी की है, यह जानकर मद्रराज ने प्रसन्नतापूर्वक दुर्योधन को हृदय से लगा लिया और कहा- 'तुम अपनी अभीष्ट वस्तु मुझसे माँग लो।'

दुर्योधन ने कहा- कल्याण स्वरूप महानुभाव! आपकी बात सत्य हो। आप मुझे अवश्य वर दीजिये। मैं चाहता हूँ कि आप मेरी समपूर्ण सेना के अधिनायक हो जायँ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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