महाभारत वन पर्व अध्याय 46 श्लोक 1-18

षट्चत्वारिंश (46) अध्‍याय: वन पर्व (इन्द्रलोकाभिगमन पर्व)

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महाभारत: वन पर्व: षट्चत्वारिंश अध्याय: श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद


उर्वशी का कामपीड़ित होकर अर्जुन के पास जाना और उनके अस्वीकार करने पर उन्हें शाप देकर लौट आना

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! तदनन्तर कृतकृत्य हुए गन्धर्वराज चित्रसेन को विदा करके पवित्र मुस्कान वाली उर्वशी ने अर्जुन से मिलने के लिये उत्सुक हो स्नान किया। धनंजय के रूप-सौन्द्रर्य से प्रभावित उसका हृदय कामदेव के बाणों द्वारा अत्यन्त घायल हो चुका था। वह मदनाग्नि से दग्ध हो रही थी। स्नान के पश्चात् उसने चमकीले और मनोभिराम आभूषण धारण किये। सुगन्धित दिव्य पुष्पों के हारों से अपने को अलंकृत किया। फिर उसने मन ही मन संकल्प किया-दिव्य बिछौनों से सजी हुई एक सुन्दर विशाल शय्या बिछी हुई है। उसका हृदय सुन्दर तथा प्रियतम के चिन्तन में एकाग्र था। उसने मन की भावना द्वारा ही यह देखा कि कुन्तीकुमार अर्जुन उसके पास आ गये हैं और वह उनके साथ रमण कर रही है।

संध्या को चन्द्रोदय होने पर जब चारों ओर चांदनी छिटक गयी, उस समय विशाल नितम्बों वाली अप्सरा अपने भवन से निकलकर अर्जुन के निवास स्थान की ओर चली। उसके कोमल-घुंघराले और लम्बे केशों का समूह वेणी के रूप में आबद्ध था। उनमें कुमुद पुष्पों के गुच्छे लगे हुए थे। इस प्रकार सुशोभित वह ललना अर्जुन के गृह की ओर बढ़ी जा रही थी। भौंहों की भंगिमा, वार्तालाप की महिमाा, उज्ज्वल कांति और सौम्य भाव से सम्पन्न अपने मनोहर मुखचन्द्र द्वारा वह चन्द्रमा को चुनौती-सी देती हुई इन्द्रभवन के पथ पर चल रही थी। चलते समय सुन्दर हारों से विभूषित उर्वशी के उठे हुए स्तन जोर-जोर से हिल रहे थे। उन पर दिव्य अंगराग लगाये गए थे। उनके अग्रभाग अत्यन्त मनोहर थे। वे दिव्य चन्दन से चर्चित हो रहे थे। स्तनों के भारी भार को वहन करने के कारण थककर वह पग-पग पर झुकी जाती थी। उसका अत्यंत सुन्दर मध्य भाग (उदर) त्रिबली रेखा से विचित्र शोभा धारण करता था। सुन्दर महीन वस्त्रों से आच्छादित उसका जघन प्रदेश अनिन्द्य सौन्दर्य से सुशोभित हो रहा था। वह कामदेव का उज्ज्वल मंदिर जान पड़ता था। नाभि के नीचे के भाग में पर्वत के समान विशाल नितम्ब ऊंचा और स्थूल प्रतीत होता था। कटि में बंधी हुई करघनी की लड़ियाँ उस जघन प्रदेश को सुशोभित कर रही थीं।

वह मनोहर अंग (जघन) देवलोकवासी महर्षियों के भी चित को क्षुब्ध कर देने वाला था। उनके दोनों चरणों के गुल्फ (टखने) मांस से छिपे हुए थे। उसके विस्तृत तलवे और अंगुलियां लाल रंग की थीं। वे दोनों पैर कछुए की पीठ के समान ऊंचे होने के साथ ही घुंघुरूओं के चिह्न से सुशोभित थे। वह अल्प सुरापान से, संतोष से, काम से और नाना प्रकार की विलासिताओं से युक्त होने के कारण अत्यन्त दर्शनीय हो रही थीं। जाती हुई उस पिलासिनी अप्सरा की आकृति अनेक आश्रयों से भरे हुए स्वर्गलोक में भी सिद्ध, चारण और गन्धर्वों के लिये देखने के ही योग्य हो रही थी। अत्यन्त महीन मेघक समान श्याम रंग की सुन्दर ओढ़नी ओढ़े उर्वशी आकाश में बादलों से ढकी हुई चन्द्रलेखा-सी चली जा रही थी। मन और वायु के समान तीव्र वेग से चलने वाली वह पवित्र मुस्कान से सुशोभित अप्सरा क्षणभर में पाण्डुकुमार अर्जुन के महल में आ पहुँची।

नरश्रेष्ठ जनमेजय महल के द्वार पर पहुँचकर वह ठहर गयी। उस समय द्वारपालों ने अर्जुन को उसके आगमन की सूचना दी। तब सुन्दर नेत्रों वाली उर्वशी रात्रि में अर्जुन के अत्यन्त मनोहर तथा उज्ज्वल भवन में उपस्थित हुई। राजन्! अर्जुन सशंक हृदय से उसके सामने गये।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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