महाभारत वन पर्व अध्याय 33 श्लोक 1-16

त्रयस्त्रिंश (33) अध्‍याय: वन पर्व (अर्जुनाभिगमन पर्व)

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महाभारत: वन पर्व: त्रयस्त्रिंश अध्याय: श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद


भीमसेन का पुरुषार्थ की प्रशंसा करना और युधिष्ठिर को उत्तेजित करते हुए क्षत्रिय-धर्म के अनुसार युद्ध छेड़ने का अनुरोध

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! द्रुपदकुमारी का वचन सुनकर अमर्ष में भरे हुए भीमसेन क्रोधपूर्वक उच्छ्‌वास लेते हुए राजा के पास आये और इस प्रकार कहने लगे- ‘महाराज! श्रेष्ठ पुरुषों के लिये उचित और धर्म के अनुकूल जो राज्य प्राप्ति का मार्ग (उपाय) हो, उसका आश्रय लीजिये। धर्म, अर्थ और काम-इन तीनों से वंचित होकर इस तपोवन में निवास करने पर हमारा कौन-सा प्रयोजन सिद्ध होगा। दुर्योधन ने धर्म से, सरलता से और बल से भी हमारे राज्य को नहीं लिया है; उसने तो कपटपूर्ण जूए का आश्रय लेकर उसका हरण कर लिया है। बचे हुए अन्न को खाने वाले दुर्बल गीदड़ जैसे अत्यन्त बलिष्ठ सिंहों का भोजन हर ले, उसी प्रकार शत्रुओं ने हमारे राज्य का अपहरण किया है।

महाराज! धर्म और काम के उत्पादक राज्य और धन को खोकर लेशमात्र धर्म से आवृत हुए अब आप क्यों दुःख से संतप्त हो रहे हैं? गाण्डवीधारी अर्जुन के द्वारा सुरक्षित हमारे राज्य को इन्द्र भी नहीं छीन सकते थे, परन्तु आपकी असावधानी से वह हमारे देखते-देखते छिन गया। जैसे लूलों के पास से उनके बल-फल और पंगुओं के निकट से उनकी गायें छिन जाती हैं और वे जीवित रहकर भी कुछ कर नहीं पाते, उसी प्रकार आपके कारण जीते-जी हमारे राज्य का अपहरण कर लिया गया। भारत! आप धर्म की इच्छा रखने वाले हैं; इस रूप में आपकी प्रसिद्धि है। अतः आपकी प्रिय अभिलाषा सिद्ध हो, इसीलिये हम लोग ऐसे महान् संकट में पड़ गये हैं।

भरतकुलभूषण! आपके शासन से अपने-आपको नियन्त्रण में रखकर आज हम लोग अपने मित्रों को दु:खी और शत्रुओं को सुखी बना रहे हैं। आपके शासन को मानकर जो हम लोगों ने उसी समय इन धृतराष्ट्र के पुत्रों को मार नहीं डाला, वह दुष्कर्म हमें आज भी संताप दे रहा है। राजन् मृगों के समान अपनी इस वनचर्या पर ही दृष्टिपात कीजिये। दुर्बल मनुष्य ही इस प्रकार वन में रहकर समय बिताते हैं। बलवान् मनुष्य वनवास का सेवन नहीं करते। श्रीकृष्ण, अर्जुन, अभिमन्यु, सृजयवंशी वीर, मैं और ये नकुल-सहदेव-काई भी इस वनचर्या को प्रसन्द नहीं करते। राजन्! आप ‘यह धर्म है, यह धर्म है', ऐसा कहकर सदा व्रतों का पालन करके कष्ट उठाते रहते हैं। कहीं ऐसा तो नहीं है कि आप वैराग्य के कारण साहसशून्य हो नपुंसकों का-सा जीवन व्यतीत करने लगे हो? अपनी खोयी हुई राज्यलक्ष्मी का उद्धार करने में असमर्थ दुर्बल मनुष्य ही निष्फल और स्वार्थनाशक वैराग्य का आश्रय लेते हैं और उसी को प्रिय मानते हैं।

राजन्! आप समझदार, दूरदशी और शक्तिशाली हैं, हमारे पुरुषार्थ को देख चुके हैं; तो भी इस प्रकार दया को अपनाकर इससे होने वाले अनर्थ को नहीं समझ रहे। इससे शत्रुओं के अपराध को क्षमा करते जा रहे हैं, इसीलिये समर्थ होते हुए भी हमें ये धृतराष्ट्र के पुत्र निर्बल-से मानने लगे हैं, यही हमारे लिये महान् दुःख है; युद्ध में मारा जाना कोई दुःख नहीं है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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