महाभारत द्रोण पर्व अध्याय 85 श्लोक 1-17

पंचाशीतितम (85) अध्याय: द्रोण पर्व (जयद्रथवध पर्व)

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महाभारत द्रोण पर्व अध्याय 84 श्लोक 18-35 का हिन्दी अनुवाद

'धृतराष्‍ट्र का विलाप

  • धृतराष्‍ट्र ने कहा- संजय! अभिमन्यु के मारे जाने पर दुःख और शोक में डूबे हुए पाण्डवों ने सवेरा होने पर क्या किया? तथा मेरे पक्ष वाले योद्धाओं में से किन लोगों ने युद्ध किया? (1)
  • सव्यसाची अर्जुन के पराक्रम को जानते हुए भी मेरे पक्ष वाले कौरव योद्धा उनका अपराध करके कैसे निर्भय रह सके? यह बताओ। (2)
  • पुत्रशोक से संतप्त हो क्रोध में भरे हुए प्राणान्तकारी मृत्यु के समान आते हुए पुरुषसिंह अर्जुन की ओर मेरे पुत्र युद्ध में कैसे देख सके? (3)
  • जिनकी ध्वजा में कपिराज हनुमान विराजमान हैं, उन पुत्रवियोग से व्यथित हुए अर्जुन को युद्धस्थल में अपने विशाल धनुष की टंकार करते देख मेरे पुत्रों ने क्या किया? (4)
  • संजय! संग्रामभूमि में दुर्योधन पर क्या बीता है? इन दिनों मैंने महान विलाप की ध्वनि सुनी हैं। आमोद-प्रमोद के शब्द मेरे कानों में नहीं पड़े हैं। (5)
  • पहले सिंधुराज के शिविर में जो मन को प्रिय लगने वाले और कानों को सुख देने वाले शब्द होते रहते थे, वे सब अब नहीं सुनायी पड़ते हैं। (6)
  • मेरे पुत्रों के शिविर में अब स्तुति करने वो सूतों, मागधों एवं नर्तकों के शब्द सर्वथा नहीं सुनायी पड़ते हैं। (7)
  • जहाँ मेरे कान निरन्तर स्वजनों के आनन्द-कोलाहल से गूँजते रहते थे, वहीं आज मैं अपने दीन दुखी पुत्रों के द्वारा उच्चरित वह हर्षसूचक शब्द नहीं सुन रहा हूँ। (8)
  • तात संजय! पहले मैं यथार्थ धैर्यशाली सोमदत्त के भवन में बैठा हुआ। उत्तम शब्द सुना करता था। (9)
  • परंतु आज पुण्यहीन मैं अपने पुत्रों के घर को उत्साह-शून्य एवं आर्तनाद से गूँजता हुआ देख रहा हूँ। (10)
  • विविंशति, दुर्मुख, चित्रसेन, विकर्ण तथा मेरे अन्य पुत्रों के घरों में अब पूर्ववत आनन्दित ध्वनि नहीं सुनी जाती है। (11)
  • सूत संजय। मेरे पुत्रों के परम आश्रय जिस महाधनुर्धर द्रोणपुत्र अश्वत्थामा की ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य सभी जातियों के विषय उपासना[1] करते रहे हैं, जो वितण्डावाद, भाषण, पारस्परिक बातचीत, द्रुतस्वर में बजाये हुए वाद्यों के शब्दों तथा भाँति-भाँति के अभीष्‍ट गीतों से दिन-रात मन बहलाया करता था, जिसके पास बहुत-से कौरव, पाण्डव और सात्वतवंशी वीर बैठा करते थे, उस अश्वत्थामा के घर में आज पहले के समान हर्षसूचक शब्द नहीं हो रहा है। (12-14)
  • महाधनुर्धर द्रोणपुत्र की सेवा में जो गायक और नर्तक अधिक उपस्थित होते थे,उनकी ध्वनि अब नहीं सुनायी देती है। (15)
  • विन्द और अनुविन्द के शिविर में संध्या के समय जो महान शब्द सुनायी पड़ता था, वह अब नहीं सुनने में आता है। तात सदा अनन्दित रहने वाले केकयों के भवनों में झुंड-के-झुंड नर्तकों का ताल स्वर के साथ गीत का जो महान शब्द सुनायी पड़ता था, वह अब नहीं सुना जाता है। (17)

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. निकट रहकर सेवा

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