महाभारत सभा पर्व अध्याय 76 श्लोक 1-18

षट्सप्‍ततितम (76) अध्‍याय: सभा पर्व (अनुद्यूत पर्व)

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महाभारत: सभा पर्व: षट्सप्‍ततितम अध्याय: श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद


सबके मना करने पर भी धृतराष्ट्र की आज्ञा से युधिष्ठिर का पुन
जूआ खेलना और हारना

वैशम्‍पायन जी कहते हैं- राजन्! धर्मराज युधिष्ठिर इन्द्रप्रस्थ के मार्ग में बहुत दूर तक चले गये थे। उस समय बुद्धिमान राजा धृतराष्ट्र की आज्ञा से प्रातिकामी उनके पास गया और इस प्रकार बोला- 'भरतकुलभूषण पाण्‍डुनन्‍दन युधिष्ठिर! आपके पिता राजा धृतराष्ट्र ने यह आदेश दिया है कि तुम लौट जाओ। हमारी सभा फिर सदस्‍यों से भर गयी है और तुम्‍हारी प्रतीक्षा कर रही है। तुम पासे फेंककर जूआ खेलो'।

युधिष्ठिर ने कहा- समस्‍त प्राणी विधाता की प्ररेणा से शुभ और अशुभ फल प्राप्‍त करते हैं। उन्‍हें कोई टाल नहीं सकता। जान पड़ता है, मुझे फिर जूआ खेलना पड़ेगा। वृद्ध राजा धृतराष्ट्र की आज्ञा से जूए के लिये यह बुलावा हमारे कुल के विनाश का कारण है, यह जानते हुए भी मैं उनकी आशा का उल्‍लंघन नहीं कर सकता।

वैशम्‍पायन जी कहते हैं- जनमेजय! किसी जानवर का शरीर सुवर्ण का हो, यह सम्‍भव नहीं; तथापि श्रीराम स्‍वर्णमय प्रतीत होने वाले मृग के लिये लुभा गये। जिनका पतन था पराभव निकट होता है, उनकी बुद्धि प्राय: अत्‍यन्‍त विपरीत हो जाती है। ऐसा कहते हुए पाण्‍डुनन्‍दन युधिष्ठिर भाइयों के साथ पुन: लौट पड़े। वे शकुनि ने माया को जानते थे, तो भी जूआ खेलने के लिये चले आये। महारथी भरतश्रेष्‍ठ पाण्‍डव पुन: उस सभा में प्रविष्‍ट हुए। उन्‍हें देखकर सुहृदों के मन में बड़ी पीड़ा होने लगी। प्रारब्‍ध के वशीभूत हुए कुन्‍तीकुमार सम्‍पूर्ण लोकों के विनाश के लिये पुन: द्यूतक्रीड़ा आरम्‍भ करने के उदेश्‍य से चुपचाप वहाँ जाकर बैठ गये।

शकुनि ने कहा- राजन्! भरतश्रेष्ठ! हमारे बूढे़ महाराज ने आपको जो सारा धन लौटा दिया, वह बहुत अच्‍छा किया है। अब जूए के लिये एक ही दाँव रखा जायेगा उसे सुनिये- 'यदि आपने हम लोगों को जूए में हरा दिया तो हम मृग-चर्म धारण करके महान् वन में प्रवेश करेंगे। और बारह वर्ष वहाँ रहेंगे एवं तेरहवाँ वर्ष हम जन-समूह में लोगों से अज्ञात रहकर पूरा करेंगे और यदि हम तेरहवें वर्ष में लोगों की जानकारी में आ जायँ तो फिर दुबारा बारह वर्ष वन में रहेंगे। यदि हम जीत गये तो आप लोग द्रौपदी के साथ बारह वर्षों तक मृगचर्म धारण करते हुए वन में रहें। आपको भी तेरहवाँ वर्ष जन-समूह में लोगों से अज्ञात रहकर व्‍यतीत करना पड़ेगा और यदि ज्ञात हो गये तो फिर दुबारा बारह वर्ष वन में रहना होगा। तेरहवाँ वर्ष पूर्ण होने पर हम या आप फिर वन से जाकर यथोचित रीति से अपना-अपना राज्‍य प्राप्‍त कर सकते है'। भरतवंशी युधिष्ठिर! इसी निश्‍चय के साथ आप आइये और पुन: पासा फेंककर हम लोगों के साथ जूआ खेलिये। यह सुनकर सब सभासदों ने सभा में अपने हाथ ऊपर उठाकर अत्‍यन्‍त उद्विग्नचित्त हो बड़ी घबराहट के साथ कहा।

सभासद् बोले- अहो धिक्‍कार है! ये भाई-बन्‍धु भी युधिष्ठिर उनके ऊपर आने वाले महान् भय की बात नहीं समझाते। पता नहीं, ये भरतश्रेष्‍ठ युधिष्ठिर अपनी बुद्धि के द्वारा इस भय को समझें या न समझें। वैशम्‍पायन जी कहते हैं- जनमेजय! लोगों की तरह-तरह की बातें सुनते हुए भी राजा युधिष्ठिर लज्‍जा के कारण तथा धृतराष्ट्र के आज्ञापालन रूप धर्म की दृष्टि से पुन: जूआ खेलने के लिये उद्यत हो गये।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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