एकपंचाशदधिकशततम (151) अध्याय: द्रोण पर्व (जयद्रथवध पर्व)
महाभारत: द्रोणपर्व: एकपंचाशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद
द्रोणाचार्य बोले- दुर्योधन! तुम क्यों इस प्रकार अपने वचनरूपी बाणों से मुझे छेद रहे हो ? मैं तो सदा से ही कहता आया हूँ कि सव्यसाची अर्जुन युद्ध में अजेय है। कुरुनन्दन! अर्जुन को तो केवल इसी बात से समझ लेना चाहिये था कि उनके द्वारा सुरक्षित होकर शिखण्डी ने भी युद्ध के मैदान में भीष्म को मार डाला। जो देवताओं और दानवों के लिये भी अवध्य थे, उन्हें युद्ध में मारा गया देख मैंने उसी समय यह जान लिया कि यह कौरव सेना अब नहीं रह सकेगी। हम लोग जिन्हें तीनों लोको के पुरुषों में सबसे अधिक शूरवीर मानते थे, उन शौर्य सम्पन्न भीष्म के मारे जाने पर हम दूसरों का क्या भरोसा करें? द्यूतक्रीड़ा के समय विदुर जी ने तुमसे कहा था कि ‘तात! कौरव-सभा में शकुनि जिन पासों को फेंक रहा हैं, उन्हें पासे न समझो, वे किसी दिन शत्रुओं को संताप देने वाले तीखे बाण बन सकते हैं’। परंतु वत्स! उस समय विदुरजी की कही हुई बातों को तुमने कुछ नहीं समझा। तात! वे ही पासे ये अर्जुन के चलाये हुए बाण बनकर हमें मार रहे हैं। दुर्योधन! विदुर जी वीर हैं, महात्मा पुरुष हैं। उन्होंने तुम्हारे कल्याण के लिये जो मंगलकारक वचन कहे थे और जिन्हें तुमने विजय के उल्लास में अनसुना कर दिया था, उनके उन वचनों के अनादर से ही तुम्हारे लिये यह घोर महासंहार प्राप्त हुआ है। जो मूर्ख अपने हितैषी मित्रों के हितकर वचन की अवहेलना करके मनमाना बर्ताव करता है, वह थोडे़ ही समय में शोचनीय दशा को प्राप्त हो जाता है। इसके सिवा तुमने हम लोगों के सामने ही जो द्रौपदी को सभा में बुलाकर अपमानित किया, वह अपमान उसके योग्य नहीं था। वह उत्तम कुल में उत्पन्न हुई है और सम्पूर्ण धर्मों का निरन्तर पालन करती है। गान्धारीनन्दन! द्रौपदी के अपमानरूपी तुम्हारे अधर्म का ही यह महान फल प्राप्त हुआ है कि तुम्हारे दल का विनाश हो रहा है। यदि यहाँ यह फल नहीं मिलता तो परलोक में तुम्हें उस पाप का इससे भी अधिक दण्ड भोगना पड़ता। इतना ही नहीं, तुमने पाण्डवों को जुए में बेईमानी से जीतकर और मृगचर्ममय वस्त्र पहनाकर उन्हें वनवास दे दिया (इस अधर्म का भी फल तुम्हें भोगना पड़ता है)। पाण्डव मेरे पुत्र के समान हैं और वे सदा धर्म का आचरण करते रहते हैं। संसार मेरे सिवा दूसरा कौन मनुष्य हैं, जो ब्राह्मण कहलाकर भी उनसे द्रोह करे। तुमने राजा धृतराष्ट्र की सम्मति से कौरवों की सभा में शकुनि के साथ बैठकर पाण्डवों का यह क्रोध मोल लिया है। इस कार्य में दुःशासन ने तुम्हारा साथ दिया है, कर्ण से भी उस क्रोध को बढ़ावा मिला है और विदुर जी के उपदेश की अवहेलना करके तुमने बारंबार पाण्डवों के उस क्रोध को बढ़ने का अवसर दिया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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