महाभारत सौप्तिक पर्व अध्याय 10 श्लोक 1-16

दशम (10) अध्याय: सौप्तिक पर्व (ऐषिक पर्व)

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महाभारत: सौप्तिक पर्व: दशम अध्याय: श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद


धृष्टद्युम्न के सारथि के पुत्रों और पाञ्चालों के वध का वृत्तान्त सुनकर युधिष्ठिर का विलाप, द्रौपदी को बुलाने के लिये नकुल को भेजना, सृहृदों के साथ शिविर में जाना तथा मारे हुए पुत्रादि को देखकर भाई सहित शोकातुर होना

वैशम्पायन जी कहते हैं- राजन! वह रात व्यतीत होने पर धृष्टद्युम्न के सारथि ने रात को सोते समय जो संहार किया गया था, उसका समाचार धर्मराम युधिष्ठिर से कह सुनाया। सारथि बोला- राजन! द्रुपद के पुत्रों सहित द्रौपदी देवी के भी सारे पुत्र मारे गये। वे रात को अपने शिबिर में निश्चिन्त एवं असावधान होकर सो रहे थे। उसी समय क्रूर कृतवर्मा, गौतमवंशी कृपाचार्य तथा पापी अश्वत्थामा ने आक्रमण करके आपके सारे शिबिर का विनाश कर डाला। इन तीनों ने प्रास, शक्ति और फरसों द्वारा सहस्रों, मनुष्यों, घोड़ों और हाथियों को काट-काटकर आपकी सारी सेना को समाप्त कर दिया है। भारत! जैसे फरसों से विशाल जंगल काटा जा रहा हो, उसी प्रकार उनके द्वारा छिन्न भिन्न की जाती हुई आपकी विशालवाहिनी का महान आर्तनाद सुनायी पड़ता था। महामते! धर्मात्मन! उस विशाल सेना से अकेला मैं ही किसी प्रकार बचकर निकल आया हूँ। कृतवर्मा दूसरों को मारने में लगा हुआ था, इसीलिये मैं उस संकट से मुक्त हो सका हूँ।

वह अमंगलमय वचन सुनकर दुर्धर्ष राजा कुन्तीपुत्र युधिष्ठिर पुत्रशोक से संतप्त हो पृथ्वी पर गिर पड़े। गिरते समय आगे बढ़कर सात्यकि ने उन्हें थाम लिया। भीमसेन, अर्जुन तथा माद्रीकुमार नकुल-सहदेव ने भी उन्हें पकड़ लिया। फिर होश में आने पर कुन्तीनन्दन युधिष्ठिर शोकाकुल वाणी द्वारा आर्त की भाँति विलाप करने लगे- 'हाय! मैं शत्रुओं को पहले जीतकर पीछे पराजित हो गया। जो लोग दिव्यदृष्टि से सम्पन्न हैं, उनके लिये भी पदार्थों की गति को समझना अत्यन्त दुष्कर है। हाय! दूसरे लोग तो हारकर जीतते है, किंतु हम लोग जीतकर हार गये हैं! हमने भाइयों समवयस्क मित्रों पिततुल्य पुरुषों पुत्रों सुहृदयों बन्धुओं मन्त्रियों तथा पौत्रों की हत्या करके उन सबको जीतकर विजय प्राप्त की थी: परतु अब शत्रुओं द्वारा हम ही पराजित हो गये। कभी कभी अनर्थ भी अर्थ सा हो जाता है और अर्थ के रुप में दिखायी देने वाली वस्तु भी अनर्थक रुप में परिणत हो जाती है। इसी प्रकार हमारी यह विजय भी पराजय का ही रूप धारण करके आयी थी इसलिये जय भी पराजय बन गयी।

दुर्बुद्धि मनुष्य यदि विजय लाभ के पश्चात विपत्ति में पड़े हुए पुरुष की भाँति अनुताप करता है तो वह अपनी उस जीत को जीत कैसे मान सकता है? क्योंकि उस दशा में तो वह शत्रुओं द्वारा पूर्णतः पराजित हो चुका है। जिन्हें विजय के लिये सुहृदों के वध का पाप करना पड़ता है, वे एक बार विजयलक्ष्मी से उल्लसित भले ही हो जायें, अन्त में पराजित होकर सतत सावधान रहने वाले शत्रुओं के हाथ से उन्‍हें पराजित होना ही पड़ता है। क्रोध में भरा हुआ कर्ण मनुष्यों में सिंह के समान था। कर्णि और नालीक नामक बाण उसकी दाढ़ें तथा युद्ध में उठी हुई तलवार उसकी जिह्वा थी। धनुष का खींचना ही उसका मुँह फैलाना था। प्रत्यन्चा की टंकार ही उसके लिये दहाड़ने के समान थी। युद्धों में कभी पीठ न दिखाने वाले उस भयंकर पुरुषसिंह के हाथ से जो जीवित छूट गये, वे ही ये मेरे सगे सम्बन्धी अपनी असावधानी के कारण मार डाले गये हैं।'

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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