महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 127 श्लोक 1-18

सप्तविंशत्यधिकशततम (127) अध्‍याय: उद्योग पर्व (भगवादयान पर्व)

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महाभारत: उद्योग पर्व: सप्तविंशत्यधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद

श्रीकृष्ण को दुर्योधन का उत्तर, उसका पाँडवों को राज्य न देने का निश्चय

  • वैशम्पायनजी कहते हैं- जनमेजय! कौरव सभा में यह अप्रिय वचन सुनकर दुर्योधन ने यशस्वी महाबाहु वसुदेव नंदन श्रीकृष्ण को इस प्रकार उत्तर दिया- (1)
  • ‘केशव! आपको अच्छी तरह सोच-विचार कर ऐसी बातें कहनी चाहिए। आप तो विषेशरूप से मुझे ही दोषी ठहराकर मेरी निंदा कर रहे हैं। (2)
  • मधुसूदन! आप पांडवों के प्रेम कि दुहाई देकर जो अकारण ही सदा हमारी निंदा करते रहते हैं, इसका क्या कारण है? क्या आप हम लोगों के बलाबल का विचार करके ऐसा करते हैं? (3)
  • ‘मैं देखता हूँ, आप, विदुरजी, पिताजी, आचार्य अथवा पितामह भीष्म सभी लोग केवल मुझ पर ही दोषारोपण करते हैं, दूसरे किसी राजा पर नहीं। (4)
  • ‘परंतु मुझे यहाँ अपना कोई दोष नहीं दिखाई देता है। इधर राजा धृतराष्ट्र सहित आप सब लोग अकारण ही मुझसे द्वेष रखने लगे हैं। (5)
  • ‘शत्रुदमन केशव! मैं अत्यंत सोच-विचार कर दृष्टि डालता हूँ, तो भी मुझे अपना कोई सूक्ष्म से सूक्ष्म अपराध भी नहीं दृष्टिगोचर होता है। (6)
  • ‘मधुसूदन! पांडवों को जूए का खेल बड़ा प्रिय था। इसलिए वे उसमें प्रवृत हुए। फिर यदि मामा शकुनि ने उनका राज्य जीत लिया तो इसमें मेरा क्या अपराध हो गया? (7)
  • मधुसूदन! उस जूए में पांडवों ने जो कुछ भी धन हारा था, वह सब उसी समय उन्हीं को लौटा दिया गया था। ( 8)
  • ‘विजयी वीरों में श्रेष्ठ श्रीकृष्ण! यदि अजेय पांडव जूए में पुन: पराजित हो गए और वन में जाने को विवश हुए तो यह हम लोगों का अपराध नहीं है। (9)
  • ‘कृष्ण! हमारे किस अपराध से असमर्थ पांडव शत्रुओं के साथ मिलकर हमारा विरोध करते हैं और ऐसा करके भी सहज शत्रु की भाँति प्रसन्न हो रहे हैं।' (10)
  • हमने उनका क्या बिगाड़ा है? वे पांडव हमारे किस अपराध पर सुहृदयों के साथ मिलकर हम धृतराष्ट्र पुत्रों का वध करना चाहते हैं? (11)
  • ‘हम लोग किसी के भयंकर कर्म अथवा भयानक वचन से भयभीत हो क्षत्रिय धर्म से च्युत होकर साक्षात इंद्र के सामने भी नतमस्तक नहीं हो सकते। (12)
  • ‘शत्रुओं का संहार करने वाले श्रीकृष्ण! मैं क्षत्रिय धर्म का अनुष्ठान करने वाले किसी भी ऐसे वीर को नहीं देखता, जो युद्ध में हम सब लोगों को जीतने का साहस कर सके। (13)
  • ‘मधुसूदन! भीष्म, द्रोण, कृपाचार्य और कर्ण को तो देवता भी युद्ध में नहीं जीत सकते, फिर पांडवों की तो बात ही क्या है? (14)
  • माधव! अपने धर्म पर दृष्टि रखते हुए यदि हम लोग युद्ध में किसी समय अस्त्रों के आघात से मृत्यु को प्राप्त हो जाएँ तो वह भी हमारे लिए स्वर्ग की ही प्राप्ति कराने वाली होगी। (15)
  • जनार्दन! हम क्षत्रियों का यही प्रधान धर्म है की संग्राम में हमें बाण-शय्या पर सोने का अवसर प्राप्त हो। (16)
  • ‘अत: माधव! हम अपने शत्रुओं के सामने नतमस्तक न होकर यदि युद्ध में वीरशय्या को प्राप्त हों तो इससे हमारे भाई-बंधुओं को संताप नहीं होगा। (17)
  • ‘उत्तम कुल में उत्पन्न होकर क्षत्रिय धर्म के अनुसार जीवन-निर्वाह करने वाला कौन ऐसा महापुरुष होगा, जो क्षत्रियोचित वृत्तिपर दृष्टि रखते हुए भी इस प्रकार भय के कारण कभी शत्रु के सामने मस्तक झुकाएगा? (18)

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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