द्विनवतितम (92) अध्याय: आदि पर्व (सम्भव पर्व)
महाभारत: आदि पर्व: द्विनवतितम अध्याय: श्लोक 1-12 का हिन्दी अनुवाद
अष्टक ने पूछा- राजन्! सूर्य और चन्द्रमा की तरह अपने-अपने लक्ष्य की ओर दौड़ते हुए वानप्रस्थ और संन्यासी इन दोनों में से पहले कौन-सा देवताओं के आत्मभाव (ब्रह्म) को प्राप्त होता है? ययाति बोले- कामवृत्ति वाले गृहस्थों के बीच ग्राम में ही वास करते हुए भी जो जितेन्द्रिय और गृहरहित संन्यासी है, वही उन दोनों प्रकार के मुनियों में पहले ब्रह्म भाव को प्राप्त होता है। जो वानप्रस्थ बड़ी आयु पाकर भी विषयों के प्राप्त होने पर उनसे विकृत हो उन्हीं मे विचरने लगता है, उसे यदि विषयभोग के अनन्तर पश्चात्ताप होता है तो उसे मोक्ष के लिये पुन: तप का अनुष्ठान करना चाहिये। किंतु जो वानप्रस्थ मनुष्य पापकर्मों से नित्य भय करता है और सदा अपने धर्म का आचरण करता है, वह अत्यन्त सुख रूप मोक्ष को अनायास ही प्राप्त कर लेता है। राजन्! जो पाप बुद्धि वाला मनुष्य अधर्म का आचरण करता है, उसका वह आचरण नृशंस (पापमय) और असत्य कहा गया है एवं अजितेन्द्रिय का धन भी वैसा ही पापमय और असत्य है। परंतु वानप्रस्थ मुनि का जो धर्म पालन है, वही सरलता है, वही समाधि है और वही श्रेष्ठ आचरण है। अष्टक ने पूछा- राजन्! आपको यहाँ किसने बुलाया? किसने भेजा है? आप अवस्था मे तरुण, फूलों की माला से सुशोभित, दर्शनीय तथा उत्तम तेज से उद्भासित जान पड़ते हैं। आप कहाँ से आये हैं? किस दिशा में भेजे गये हैं? अथवा क्या आपके लिये इस पृथ्वी पर कोई उत्तम स्थान है? ययाति ने कहा- मैं अपने पुण्य का क्षय होने से भौम नरक में प्रवेश करने के लिये आकाश से गिर रहा हूँ। ब्रह्मा जी के जो लोकपाल हैं, वे मुझे गिरने के लिये जल्दी मचा रहे हैं, अत: आप लोगों से पूछकर विदा लेकर इस पृथ्वी पर गिरूंगा। नरेन्द्र! मैं जब इस पृथ्वी तल पर गिरने वाला था, उस समय मैंने इन्द्र से यह वर मांगा कि मैं साधु पुरुषों के समीप गिरूं। वह वर मुझे मिला, जिसके कारण सब सद्गुणी संतों का संग प्राप्त हुआ। अष्टक बोले- महाराज! मेरा विश्वास है कि आप पारलौकिक धर्म के ज्ञाता हैं। मैं आपसे एक बात पूछता हूं- क्या अन्तरिक्ष या स्वर्ग लोक में मुझे प्राप्त होने वाले पुण्यलोक भी हैं? यदि हों तों (उनके प्रभाव से) आप नीचे न गिरें, आपका पतन न हो। ययाति ने कहा- नरेन्द्रसिंह! इस पृथ्वी पर जंगली और पर्वतीय पशुओं के साथ जितने गाय, घोड़े आदि पशु रहते हैं, स्वर्ग में तुम्हारे लिये उतने ही लोक विद्यमान हैं। तुम इसे निश्चय जानो। अष्टक बोले- राजेन्द्र! स्वर्ग में मेरे लिये जो लोक विद्यमान हैं, वे सब आपको देता हूं, परंतु आपका पतन न हो। अन्तरिक्ष या द्यूलोक में मेरे लिये जो स्थान हैं, उनमें आप शीघ्र ही मोहरहित होकर चले जायं। ययाति ने कहा- नृपश्रेष्ठ! ब्राह्मण ही प्रतिग्रह लेता है। मेरे-जैसा क्षत्रिय कदापि नहीं। नरेन्द्र! जैसे दान करना चाहिये, उस विधि से पहले मैंने भी सदा उत्तम ब्राह्मणों को बहुत दान दिये हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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