महाभारत सभा पर्व अध्याय 37 श्लोक 1-18

सप्तत्रिंश (37) अध्‍याय: सभा पर्व (अर्घाभिहरण पर्व)

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महाभारत: सभा पर्व: सप्तत्रिंश अध्याय: श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद


शिशुपाल के आक्षेपपूर्ण वचन

शिशुपाल बोला- कौरव्य! यहाँ इन महात्मा भूमिपतियों के रहते हुए यह वृष्णिवंशी कृष्ण राजाओं की भाँति राजोचित पूजा का अधिकारी कदापि नहीं हो सकता। महात्मा पाण्डवों के लिये यह विपरीत आचार कभी उचित नहीं है। पाण्डुकुमार! तुमने स्वार्थवश कमलनयन कृष्ण का पूजन किया है। पाण्डवो! अभी तुम लोग बालक हो। तुम्हें धर्म का पता नहीं है, क्योंकि धर्म का स्वरूप अत्यन्त सूक्ष्म है। ये गंगानन्दन भीष्म बहुत बूढ़े हो गये हैं। अब इनकी स्मरणशक्ति जवाब दे चुकी है। इनकी सूझ और समझ भी बहुत कम हो गया है (तभी इन्होंने श्रीकृष्णपूजा की सम्मति दी है)। भीष्म तुम्हारे जैसा धर्मात्मा पुरुष भी जब मनमाना अथवा किसी का प्रिय करने के लिये मुहदेखी करने लगता है, तब वह साधु पुरुषों के समाज में अधिक अपमान का पात्र बन जाता है। यह भी जानते है कि यदुवंशी कृष्ण राजा नहीं है, फिर सम्पूर्ण भूपालों के बीच तुम लोगों ने जिस प्रकार इसकी पूजा की है, वैसी पूजा का अधिकारी यह कैसे हो सकता है? कुरुपुंगव! अथवा यदि तुम श्रीकृष्ण को बड़ा-बूढ़ा समझते हो तो इसके पिता वृद्ध वसुदेव जी के रहते हुए उनका यह पुत्र कैसे पूजा का पात्र हो सकता है? अथवा यह मान लिया जाय कि वासुदेव कृष्ण तुम लोगों का प्रिय चाहने वाला और तुम्हारा अनुसरण करने वाला सुहृद है, इसीलिये तुमने इसकी पूजा की है, तो यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि तुम्हारे सबसे बड़े सुहृद तो राजा द्रुपद हैं उनके रहते यह माधव पूजा पाने का अधिकारी है कैसे हो सकता है।

कुरुनन्दन! अथवा यह समझ लें कि तुम कृष्ण को आचार्य मानते हो, फिर भी आचार्यों में भी बड़ेे-बूढ़े द्रोणाचार्य के रहते हुए इस यदुवंशी की पूजा तुमने क्यों की है? कुरुकुल को आनन्दित करने वाले युधिष्ठिर अथवा यदि यह कहा जाय कि तुम कृष्ण को अपना ऋत्विज समझते हो तो ऋत्विजों में भी सबसे वृद्धि द्वैपायन वेदव्यास के रहते हुए तुमने कृष्ण की अग्रपूजा कैसे की? राजन! शान्तनुनन्दन भीष्म पुरुषशिरोमणि तथा स्वच्छन्दमृत्यु हैं। इनके रहते तुमने कृष्ण की अर्चना कैसे की? कुरुनन्दन युधिष्ठिर! सम्पूर्ण शास्त्रों के निपुण विद्वान वीर अश्वत्थामा के रहते हुए तुमने कृष्ण की पूजा कैसे कर डाली? पुरुषप्रवर राजाधिराज दुर्योधन और भरतवंश के आचार्य महात्मा कृप के रहते हुए तुमने कृष्ण की पूजा का औचित्य कैसे स्वीकार किया?

तुमने किम्पुरुषों के आचार्य द्रुम का उल्लंघन करके कृष्ण की अग्रपूजा क्यों की? पाण्डु के समान दुुर्धर्ष वीर तथा राजोचित शुभ लक्षणों से सम्पन्न भीष्मक, राजा रुक्मी और उसी प्रकार श्रेष्ठ धनुर्धर एकलव्य तथा मद्रराज शल्य के रहते हुए तुम्हारे द्वारा कृष्ण की पूजा किस दृष्टि से की गयी है। भारत! ये जो अपने बल के द्वारा सब राजाओं से होड़ लेते हैं, विप्रवर परशुराम जी के प्रिय शिष्य हैं तथा जिन्होंने अपने बल का भरोसा करके युद्ध में अनेक राजाओं को परास्त किया है, उन महाबली कर्ण को छोड़कर तुमने कृष्ण की आराधना कैसे की? कुरुश्रेष्ठ! मधुसूदन कृष्ण न ऋत्विज है, न आचार्य है और न राजा ही है, फिर तुमने किस प्रिय कामना से इसकी पूजा की है? भारत! अथवा यदि मधुसूदन ही तुम लोगों का पूजनीय देवता है, इसलिये इसकी पूजा तुम्हें करनी थी तो इन राजाओं को केवल अपमानित करने के लिये बुलाने की क्या आवयकता थी?

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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