महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 55 श्लोक 1-18

पंचपंचाशत्‍तम (55) अध्‍याय: उद्योग पर्व (यानसंधि पर्व)

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महाभारत: उद्योग पर्व: पंचपंचाशत्‍तम अध्याय: श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद

धृतराष्‍ट्र को धैर्य देते हुए दुर्योधन द्वारा अपने उत्‍कर्ष और पाण्‍डवों के अपकर्ष का वर्णन

  • दुर्योधन बोला- महाराज! आप डरें नहीं; आपके द्वारा हम लोग शोक करने योग्‍य नहीं हैं। प्रभो! हम बलवान और शक्तिशाली हैं तथा समर भूमि में शत्रुओं को जीतने की शक्त्‍िा रखते हैं। (1)
  • पाण्‍डवों को जब हमने वन में भेज दिया, उस समय शत्रुओं के राष्‍ट्रों को धूल में मिला देने वाले विशाल सैन्‍यसमूह के साथ श्रीकृष्‍ण यहाँ आये थे। उनके साथ केकयराजकुमार, धृष्‍टकेतु, द्रुपदपुत्र धृष्‍टद्युम्‍न तथा और भी बहुत-से नरेश, पाण्‍डवों के अनुयायी हैं, यहाँ तक पधारे थे। (2-3)
  • वे सभी महारथी इंद्रप्रस्थ के निकट तक आये और परस्‍पर मिलकर समस्‍त कौरवों सहित आपकी निंदा करने लगे। (4)
  • भारत! वे नरेश श्रीकृष्‍ण की प्रधानता में संगठित हो वन में विराजमान मृगचर्मधारी युधिष्ठिर के समीप जाकर बैठे और सगे-सम्‍बन्धियों सहित आपका मूलोच्‍छेद कर डालने की इच्‍छा रखकर कहने लगे ‘धृतराष्‍ट्र के हाथ से राज्‍य को लौटा लेना ही कर्तव्‍य है’। (5-6)
  • भरतश्रेष्‍ठ! उनके इस निश्चय को सुनकर मैंने कुटुम्‍बी जनों के वध की आशंका से भयभीत हो भीष्‍म, द्रोण और कृपाचार्य से इस प्रकार निवेदन किया ‘तात! मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि पाण्‍डव लोग अपनी प्रतिज्ञा पर स्थिर नहीं रहेंगे; क्‍योंकि वसुदेवनंदन श्रीकृष्‍ण हम सब लोगों का पूर्णत: विनाश कर डालना चाहते हैं। (7-8)
  • ‘केवल विदुर जी को छोड़कर आप सब लोग मार डालने के योग्‍य समझे गये हैं, यह बात मुझे मालूम हुई है। कुरुश्रेष्‍ठ धृतराष्‍ट्र धर्मज्ञ हैं, यह सोचकर उनका भी वध नहीं किया जायगा। (9)
  • ‘तात! श्रीकृष्ण हमारा सर्वनाश करके कौरवों का एक राज्‍य बनाकर उसे युधिष्ठिर को सौंपना चाहते हैं। (10)
  • ‘ऐसी अवस्‍था में इस समय हमारा क्‍या कर्तव्‍य है? हम उनके चरणों पर गिरें, पीठ दिखाकर भाग जायं अथवा प्राणों का मोह छोड़कर शत्रुओं का सामना करें। (11)
  • ‘उनके साथ युद्ध होने पर हमारी पराजय निश्चित है, क्‍योंकि इस समय समस्‍त भूपाल राजा युधिष्ठिर के अधीन हैं। इस राज्‍य में रहने वाले सब लोग हमसे धृणा करते हैं। हमारे मित्र भी कुपित हो गये हैं। सम्‍पूर्ण नरेश और आत्‍मीयजन सभी हमें धिक्‍कार रहे हैं। (12-13)
  • ‘मैं समझता हूँ, इस समय नतमस्‍तक हो जाने में कोई दोष नहीं है। इससे हम लोगों में सदा के लिये शांति हो जायगी, केवल अपने प्रज्ञाचक्षु पिता महाराज धृतराष्‍ट्र के लिये ही मुझे शोक हो रहा है। (14)
  • ‘उन्‍होंने मेरे लिये अनंत क्‍लेश और दु:ख सहन किये हैं। ‘नरश्रेष्‍ठ पिताजी! आपके पुत्रों तथा मेरे भाइयों ने केवल मेरी प्रसन्‍नता के लिये शत्रुओं को सदा ही सताया है; ये सब बातें आप पहले से ही जानते हैं। (15)
  • ‘इसलिये वे महा‍रथी पाण्‍डव मन्त्रियों सहित महाराज धृतराष्‍ट्र के कुल का समूलोच्‍छेद करके अपने वैर का बदला लेंगे’। (16)
  • भारत! मेरी यह बात सुनकर आचार्य द्रोण, पितामह भीष्‍म, कृपाचार्य तथा अश्‍वत्‍थामा ने मुझे बड़ी भारी चिंता में पड़कर सम्‍पूर्ण इन्द्रियों से व्‍यथित हुआ जान आश्वासन देते हुए कहा-‘परंतप! यदि शत्रुपक्ष के लोग हमसे द्रोह रखते हैं तो तुम्‍हें डरना नहीं चाहिये। शत्रुलोग युद्ध में उपस्थित होने पर हमें जीतने में असमर्थ हैं। (17-18)

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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