महाभारत वन पर्व अध्याय 293 श्लोक 1-18

त्रिनवत्यधिकद्विशततम (293) अध्‍याय: वन पर्व (पतिव्रतामाहात्म्यपर्व)

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महाभारत: वन पर्व: त्रिनवत्यधिकद्विशततम अध्यायः 1-18 श्लोक का हिन्दी अनुवाद


राजा अश्वपति को देवी सावित्री के वरदान से सावित्री नामक कन्या की प्राप्ति तथा सावित्री का पतिवरण के लिये विभिन्न देशों में भ्रमण

युधिष्ठिर बोले- महामुने! इस द्रुपदकुमारी के लिये मुझे जैसा शोक होता है, वैसा न तो अपने लिये, न इन भाइयों के लिये और न राज्य छिन जाने के लिये ही होता है। दुरात्मा धुतराष्ट्रपुत्रों ने जूए के समय हम लोगों को भारी संकट में डाल दिया था, परंतु इस द्रौपदी ने हमें बचा लिया। फिर जयद्रथ ने इस वन में इसका बलपूर्वक अपहरण किया। क्या आपने किसी ऐसी परम सौभाग्यवती पतिव्रता नारी को पहले कभी देखा अथवा सुना है, जैसी यह द्रौपदी है?

मार्कण्डेय जी बोले- राजा युधिष्ठिर! राजकन्या सावित्री ने कुलकामिनियों के लिये परम सौभाग्यरूप यह पातिव्रत्य आदि सब सद्गुणसमूह जिस प्रकार प्राप्त किया था, वह बताता हूँ, सुनो। प्राचीन काल ही बात है, मद्रप्रदेश में एक परम धर्मात्मा राजा राज्य करते थे। वे ब्राह्मण-भक्त, विशालहृदय, सत्यप्रतिज्ञ और जितेन्द्रिय थे। वे यज्ञ करने वाले, दानाध्यक्ष, कार्य-कुशल, नगर और जनपद के लोगों के परमप्रिय तथा सम्पूर्ण भूतों के हित में तत्पर रहने वाले भूपाल थे। उनका नाम अश्वपति था। राजा अश्वपति क्षमाशील, सत्यवादी और जितेन्द्रिय होने पर भी संतानहीन थे। बहुत अधिक अवस्था बीत जाने पर इसके कारण उनके मन में बड़ा संताप हुआ। अतः उन्होंने संतान की उत्पत्ति के लिये बड़े कठोर नियमों का आश्रय लिया। वे विभिन्न समय पर थोड़ा-सा भोजन करते और ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए इन्द्रियों को संयम में रखते थे। राजाओं में श्रेष्ठ अश्वपति ब्राह्मणों के साथ प्रतिदिन गायत्री मन्त्र से एक लाख आहुति देकर दिन के छठे भग में परिमित भोजन करते थे। उनको इस नियम से रहते हुए अठारह वर्ष बीत गये। अठारहवाँ वर्ष पूर्ण होने पर सावित्री देवी संतुष्ट हुई। राजन्! तब मूर्तिमती सावित्री देवी ने अग्निहोत्र की अग्नि से प्रकट होकर बड़े हर्ष के साथ राजा को प्रत्यक्ष दर्शन दिया और वर देने के लिये उद्यत हो अनुष्ठान के नियमों में स्थित उस राजा अश्वपति से इस प्रकार कहा।

सावित्री बोली- राजन्! मैं तुम्हारे विशुद्ध ब्रह्मचर्य, इन्द्रियसंयम, मनोनिग्रह तथा सम्पूर्ण हृदय से की हुई भक्ति के द्वारा बहुत संतुष्ट हुई हूँ। मद्रराज अश्वपते! तुम्हें जो अभीष्ट हो, वह वर माँगो। धर्मों के पालन में तुम्हें कभी किसी तरह भी प्रमाद नहीं करना चाहिये।

अश्वपति ने कहा- देवि! मैंने धर्मप्राप्ति की इच्छा से संतान के लिये यह अनुष्ठान आरम्भ किया था। आपकी कृपा से मुझे बहुत से वंशप्रवर्तक पुत्र प्राप्त हों। देवि! यदि आप प्रसन्न हैं तो मैं आपसे संतान सम्बन्धी वर ही माँगता हूँ; क्योंकि द्विजातिगण मुझसे बराबर यही कहते हैं कि ‘न्याययुक्त संतानोत्पादन (भी) परम धर्म है’।

सावित्री बोली- राजन्! मैंने पहले ही तुम्हारे इस अभिप्राय को जानकर पुत्र के लिये भगवान ब्रह्माजी से निवेदन किया था। अतः सौम्य! भगवान ब्रह्माजी के कृपाप्रसाद से तुम्हें शीघ्र ही इस पृथ्वी पर एक तेजस्विनी कन्या प्राप्त होगी। इस विषय में तुम्हें किसी तरह भी कोई प्रतिवाद या उत्तर नहीं देना चाहिये। मैं ब्रह्माजी की आज्ञा से संतुष्ट होकर तुमसे यह बात कहती हूँ।'

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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