पंचदशाधिकत्रिशततम (315) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
महाभारत: शान्ति पर्व: पंचदशाधिकत्रिशततम अध्याय: श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद
प्रकृति-पृरूष का विवेक और उसका फल याज्ञवल्क्य जी कहते हैं—तात! प्रजापालक नरेश! निर्गुण को सगुण और सगुण को निर्गुण नहीं किया जा सकता। इस विषय में जो यथार्थ तत्व है, वह मुझसे सुनो। तत्त्वदर्शी महात्मा मुनि कहते हैं, जिसका गणों के सात सम्पर्क है, वह गुणवान् है तथा जो गुणों के संसर्ग से रहित है, निर्गुण कहलाता है। अव्यक्त प्रकृति स्वभाव से ही गुणवती है। वह गणों का कभी उल्लंघन नहीं कर सकती है। उन्हीं को उपयोग में लाती है और स्वभाव से ही ज्ञानरहित है। प्रकृति को किसी वस्तु का ज्ञान नहीं होता। इसके विपरीत पुरुष स्वभाव से ही ज्ञानी है। वह सदा इस बात को जानता रहता है कि मुझसे कोई दूसरा उत्कृष्ट पदार्थ नहीं है। इस कारण से प्रकृति को अचेतन माना गया है। क्षर अर्थात् विनाशी होने के कारण वह जड़ के सिवा और कुछ हो ही नहीं सकती। इधर नित्य तथा अक्षर (अविनाशी) होने के कारण पुरुष चेतन है। परंतु वह जब तक अज्ञानवश बारंबार गुणों का संसर्ग करता और अपने असंगस्वरूप को नहीं जानता है, तब तक उसकी मुक्ति नहीं होती है। वह अपने को सुष्टि का कर्ता मानने के कारण सर्गधर्मा कहलाता है और योग का कर्त्ता मानने से योगधर्मा कहा जाता है। नाना प्रकृतियों को अपने में स्वीकार कर लेने से वह प्रकृति-धर्मवाला हो जाता है तथा स्थावर पदार्थों के बीजों का कर्ता होने से उसे बीजधर्मा कहते हैं। साथ ही वह गुणों की उत्पत्ति और प्रलय का कर्ता है, इसलिये गुणधर्मा कहलाता है। अध्यात्मशास्त्र को जानने वाले चिन्तारहित सिद्ध यति लोग पुरुष को केवल (प्रकृति के संग से रहित) मानते हैं; क्योंकि वह साक्षी और अद्वितीय है, उसे सुख-दु:ख का अनुभव तो अभिमान के कारण होता है। वह वास्तव में तो नित्य और अव्यक्त है, किंतु प्रकृति के सम्बन्ध से अनित्य और व्यक्त प्रतीत होता है। सम्पूर्ण प्राणियों पर दया करने वाले और केवल ज्ञान का सहारा लेने वाले कुछ सांख्य के विद्वान् प्रकृति को एक तथा पुरुष को अनेक मानते हैं। पुरुष प्रकृति से भिन्न और नित्य है तथा अव्यक्त (प्रकृति) पुरुष से भिन्न एवं अनित्य है। जैसे सींकसे मूँज अलग होती है, उसी प्रकार प्रकृति भी पुरुष से पृथक् है। जैसे गूलर ओर उसके कीडे़ एक साथ होने पर भी अलग-अलग समझे जाते हैं, गूलर के संयोग से कीडे़ उससे लिप्त नहीं होते तथा जैसे मत्स्य दूसरी वस्तु है और जल दूसरी। पानी के स्पर्श से कभी कोई मत्स्य लिप्त नहीं होता है। राजन्! जैसे अग्नि दूसरी वस्तु है और मिटृी की हँड़िया दूसरी वस्तु। इन दोनों के भेद को नित्य समझो। उस हँड़िये के स्पर्श से अग्नि दूषित नहीं होती है। जैसे कमल दूसरी वस्तु है और पानी दूसरी, पानी के स्पर्श से कमल लिप्त नहीं होता है। उसी प्रकार पुरुष भी प्रकृति से भिन्न और असंग है। साधारण मनुष्य इनके सहवास और निवास को कभी ठीक-ठीक समझ नहीं पाते। जो इन दोनों के स्वरूप को अन्यथा जानते हैं अर्थात् प्रकृति और पुरुष को एक दूसरे से भिन्न नहीं जानते हैं उनकी दृष्टि ठीक नहीं है। वे अवश्य ही बार-बार घोर नरक में पड़ते हैं। इस प्रकार मैंने तुम्हें यह विचार प्रधान उत्तम सांख्य-दर्शन बताया है। सांख्यशास्त्र के विद्वान इस प्रकार जान करके कैवल्य को प्राप्त हो गये हैं। दूसरे भी जो तत्व विचार कुशल विद्वान् हैं, उनका भी ऐसा ही मत है। इसके बाद मैं योगियों के शास्त्र का वर्ण करूँगा। इस प्रकार श्री महाभारत शान्ति पर्व के अन्तर्गत मोक्षधर्म पर्व याज्ञवल्क्य और जनक का संवाद विषयक तीन सौ पंद्रहवाँ अध्याय पूरा हुआ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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