एकोनविंशत्यधिकद्विशतत (219) अध्याय: वन पर्व (मार्कण्डेयसमस्या पर्व)
महाभारत: वन पर्व: एकोनविंशत्यधिकद्विशतत अध्याय: श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद
मार्कण्डेय जी कहते हैं- राजन! बृहस्पति जी की जो यशस्विनी पत्नी चान्द्रमसी (तारा) नाम से विख्यात थी, उसने पुत्ररूप में छ: पवित्र अग्नियों को तथा एक पुत्री को भी जन्म दिया। (दर्श-पौर्णमास आदि में) प्रधान आहुतियों को देते समय जिस अग्नि के लिये सर्वप्रथम घी की आहुति दी जाती है, वह महान व्रतधारी अग्नि ही बृहस्पति का ‘शंयु’ नाम से विख्यात (प्रथम) पुत्र है। चातुर्मास्य-सम्बन्धी यज्ञों में तथा अश्वमेध यज्ञ में जिसका पूजन होता है, जो सर्वप्रथम उत्पन्न होने वाला और सर्वसमर्थ है तथा जो अनेक वर्ण की ज्वालाओं से प्रज्वलित होता है, वह अद्वितीय शक्तिशाली अग्नि ही शंयु है। शंयु की पत्नी का नाम था सत्या। वह धर्म की पुत्री थी। उसके रूप और गुणों की कहीं तुलना नहीं थी। वह सदा सत्य के पालन में तत्पर रहती थी। उसके गर्भ से शंयु के एक अग्रिस्वरूप पुत्र तथा उत्तम व्रत का पालन करने वाली तीन कन्याएं हुईं। यज्ञ में प्रथम आज्यभाग के द्वारा जिस अग्नि की पूजा की जाती है, वही शंयु का ज्येष्ठ पुत्र ‘भरद्वाज’ नामक अग्नि बताया जाता है। समस्त पौर्णमास यागों में स्रुवा से हविष्य के साथ घी उठाकर जिसके लिये ‘प्रथम आघार’ अर्पित किया जाता है, वह ‘भरत’ (ऊर्ज) नामक अग्नि शंयु का द्वितीय पुत्र है (इसका जन्म शंयु की दूसरी स्त्री के गर्भ से हुआ था। शंयु के तीन कन्याएं और हुईं, जिनका बड़ा भाई भरत ही पालन करता था। भरत (ऊर्ज) के ‘भरत’ नाम वाला ही एक पुत्र तथा ‘भरती’ नाम की कन्या हुई। सबका भरण-पोषण करने वाले प्रजापति भरत नामक अग्नि से ‘पावक’ की उत्पति हुई। भरतश्रेष्ठ! वह अत्यन्त महनीय (पूज्य) होने के कारण ‘महान’ कहा गया है। शंयु के पहले पुत्र भरद्वाज की पत्नी का नाम ‘वीरा’ था, जिसने वीर नामक पुत्र को शरीर प्रदान किया। ब्राह्मणों ने सोम की ही भाँति वीर की भी आज्यभाग से पूजा बतायी है।[1] इनके लिये आहुति देते समय मन्त्र का उपांशु उच्चारण किया जाता है। सोम देवता के साथ इन्हीं को द्वितीय आज्यभाग प्राप्त होता है। इन्हें ‘रथप्रभु,’ ‘रथध्वान’ और ‘कुम्भरेता’ भी कहते हैं। वीर ने ‘सरयू’ नाम वाली पत्नी के गर्भ से ‘सिद्धि’ नामक पुत्र को जन्म दिया। सिद्धि ने अपनी प्रभा से सूर्य को भी आच्छादित कर लिया। सूर्य के आच्छादित हो जाने पर उसने अग्नि देवता सम्बन्धी यज्ञ का अनुष्ठान किया। आह्वान-मन्त्र (अग्निमग्न आवह इत्यादि) में इस सिद्धि नामक अग्नि की ही स्तुति की जाती है। बृहस्पति के (दूसरे) पुत्र का नाम ‘निश्च्यवन’ है। ये यश, वर्चस् (तेज) और कान्ति से कभी च्युत नहीं होते हैं। निश्च्यवन अग्नि केवल पृथ्वी की स्तुति करते हैं।[2] वे निष्पाप, निर्मल, विशुद्ध तथा तेज:पुज्ज से प्रकाशित हैं। उनका पुत्र ‘सत्य‘ नामक अग्नि है; सत्य भी निष्पाप तथा कालधर्म के प्रवर्तक हैं। वे वेदना से पीड़ित होकर आर्तनाद करने वाले प्राणियों को उस कष्ट से निष्कृति (छुटकारा) दिलाते हैं, इसीलिये उन अग्नि का एक नाम निष्कृति भी है। वे ही प्राणियों द्वारा सेवित गृह और उद्यान आदि में शोभा की सृष्टि करते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 'अग्नीषोमावुपांशु यष्टवाजामित्वय' इस श्रुति में अग्नि और सोम को उपांशु मंत्रोच्चारणपूर्वक आज्यभाग अर्पण करने का विधान है। यहाँ सोम के साथ जिस अग्नि को आज्यभाग का अधिकारी बताया गया है, वह 'वीर' नामक अग्नि ही है।प
- ↑ ये वाक् के अभिमानी देवता है। 'तस्य वाचा सृष्टौ पृथिवी चाभिश्च' इस श्रुति से भी यही सिद्ध होता है।
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