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महाभारत: उद्योग पर्व: षट्चत्वारिंश अध्याय: श्लोक 1-9 का हिन्दी अनुवाद
परमात्मा के स्वरूप का वर्णन और योगीजनों के द्वारा उनके साक्षात्कार का प्रतिपादन
- सनत्सुजातजी कहते हैं- राजन! जो शुद्ध ब्रह्म है, वह महान ज्योतिर्मय, देदीप्यमान एवं यश रूप है। सब देवता उसी की उपासना करते हैं। उसी के प्रकाश से सूर्य प्रकाशित होते हैं, उस सनातन भगवान का योगी जन साक्षात्कार करते हैं। (1)
- शुद्ध सच्चिदानंद परब्रह्म से हिरण्य गर्भ की उत्पत्ति होती है तथा उसी से वह वृद्धि को प्राप्त होता है। वह शुद्ध ज्योतिर्मय ब्रह्म की सूर्यादि सम्पूर्ण ज्योतियों के भीतर स्थित होकर सबको प्रकाशित कर रहा है और तपा रह है; वह स्वयं सब प्रकार से अतप्त और स्वयंप्रकाश है, उसी सनातन भगवान का योगी जन साक्षात्कार करते हैं। (2)
- जल की भाँति एकरस परब्रह्म परमात्मा में स्थित पांच सूक्ष्म महाभूतों से अत्यंत स्थूल पाञ्च भौतिक शरीर के हृदयाकाश में दो देव-ईश्र्वर और जीव उसको आश्रय बनाकर रहते हैं। सबको उत्पन्न करने वाला सर्वव्यापी परमात्मा सदैव जाग्रत रहता है। वहीं इन दोनों को तथा पृथ्वी और द्युलोक को भी धारण करता है। उस सनातन भगवान का योगीजन साक्षात्कार करते हैं। (3)
- उक्त दोनों देवताओं को, पृथ्वी और आकाश को, सम्पूर्ण दिशाओं को तथा समस्त लोक समुदाय को वह शुद्ध ब्रह्म ही धारण करता है। उसी परब्रह्म से दिशाएं प्रकट हुई हैं, उसी से सरिताएं होती हैं तथा उसी से बड़े-बड़े समुद्र प्रकट हुए हैं। उस सनातन भगवान को योगीजन साक्षात्कार करते हैं। (4)
- जो इन्द्रिय, मन और बुद्धि आदि का संघात-शरीर विनाशशील है, जिसके कर्म अपने-आप नष्ट होने वाले नहीं हैं, ऐसे इस शरीररूप रथ के चक्र की भाँति इस घुमाने वाले कर्म संस्कार से युक्त मन में जुते हुए इन्द्रियरूप घोड़े उस हृदय काश में स्थित ज्ञानस्वरूप दिव्य अविनाशी जीवात्मा को जिस सनातन परमेश्र्वर के निकट ले जाते हैं, उस सनातन भगवान का योगी जन साक्षात्कार करते हैं [1]। (5)
- उस परमात्मा का स्वरूप किसी दूसरे की तुलना में नहीं आ सकता; उसे कोई चर्मचक्षुओं से नहीं देख सकता। जो निश्चयात्मिका बुद्धि से, मन से और हृदय से उसे जान लेते हैं, वे अमर हो जाते हैं अर्थात परमात्मा को प्राप्त हो जाते हैं। उस सनातन भगवान योगी जन साक्षात्कार करते हैं। [2] (6)
- जो दस इन्द्रियां, मन और बुद्धि-इन बारह के समुदाय से युक्त हैं तथा जो परमात्म से सुरक्षित है, उस संसार रूप भयंकर नदी के विषयरूप मधुर जल को देखने और पीने वाले लोग उसी में गोता लगाते रहते हैं। इससे मुक्त करने वाले उस सनातन परमात्मा का योगीजन साक्षात्कार करते हैं। (7)
- जैसा शहद की मक्खी आधे मास तक शहद का संग्रह करके फिर आधे मास तक उसे पीती रहती है, उसी प्रकार यह भ्रमणशील संसारी जीव इस जन्म में किये हुए संचित कर्म को परलोक में [3] भोगता है। परमात्मा ने समस्त प्राणियों के लिये उनके कर्मानुसार कर्म फल भोगरूप हवि की अर्थात समस्त भोग-पदार्थों की व्यवस्था कर रखी है। उस सनातन भगवान का योगी लोग साक्षात्कार करते हैं। (8)
- जिसके विषयरूपी पत्ते स्वर्ण के समान मनोरम दिखायी पड़ते हैं, उस संसारूपी अश्वत्थवृक्ष पर आरूढ होकर पंख-हीन जीव कर्मरूपी पंख धारण कर अपनी वासना के अनुसार विभिन्न योनियोंमें पड़ते हैं अर्थात एक योनि से दूसरी योनि में गमन करते हैं; किंतु योगीजन उस सनातन परमात्मा का साक्षात्कार करते हैं। (9)
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