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महाभारत: द्रोण पर्व: त्रिषष्टितम अध्याय: श्लोक 1-11 का हिन्दी अनुवाद
राजा ययाति का उपाख्यान
- नारद जी कहते हैं– सृंजय! नहुषनन्दन राजा ययाति की भी मृत्यु हुई थी, यह मैंने सुना है। राजा ने सौ राजसूय, सौ अश्वमेध, एक हजार पुण्डरीक याग, सौ वाजपेय यज्ञ, एक सहस्त्र अतिरात्र याग तथा अपनी इच्छा के अनुसार चातुर्मास्य और अग्निष्टोम आदि नाना प्रकार के प्रचुर दक्षिणा वाले यज्ञों का अनुष्ठान किया। (1-2)
- इस पृथ्वी पर ब्राह्मण द्रोहियों के पास जो कुछ धन था, वह सब उनसे छीनकर उन्होंने ब्राह्मणों के अधीन कर दिया। (3)
- नदियों में परम पवित्र सरस्वती नदी, समुद्रों, पर्वतों तथा अन्य सरिताओं ने यज्ञ में लगे हुए परम पुण्यात्मा राजा ययाति को घी और दूध प्रदान किये। (4)
- देवासुर संग्राम छिड़ जाने पर उन्होंने देवताओं की सहायता करके नाना प्रकार के यज्ञों द्वारा परमात्मा का यजन किया और इस सारी पृथ्वी को चार भागों में विभक्त करके उसे ऋत्विज, अध्वर्यु, होता तथा उद्गाता– इन चार प्रकार के ब्राह्मणों को बाँट दिया। फिर शुक्रकन्या देवयानी और दानवराज की पुत्री शर्मिष्ठा के गर्भ से धर्मत: उत्तम संतान उत्पन्न करके वे देवोपम नरेश दूसरे इन्द्र की भाँति समस्त देवकाननों में अपनी इच्छानुसार विहार करते रहे। (5-7)
- जब भागों के उपभोग से उन्हें शान्ति नहीं मिली, तब सम्पूर्ण वेदों के ज्ञाता राजा ययाति निम्नांकित गाथा का गान करके अपनी पत्नियों के साथ वन में चले गये। (8)
- वह गाथा इस प्रकार है– इस पृथ्वी पर जितने भी धान, जौ, सुवर्ण, पशु और स्त्री आदि भोग्य पदार्थ हैं, वे सब एक मनुष्य को भी संतोष कराने के लिये पर्याप्त नहीं हैं, ऐसा समझकर मन को शान्त करना चाहिये। (9)
- इस प्रकार ऐश्वर्यशाली राजा ययाति ने धैर्य का आश्रय ले कामनाओं का परित्याग करके अपने पुत्र पूरु को राज्य सिंहासन पर बिठाकर वन को प्रस्थान किया। (10)
- श्वैत्य सृंजय! वे धर्म, ज्ञान, वैराग्य और ऐश्वर्य इन चारों कल्याणकारी गुणों में तुमसे बहुत बढ़े-चढ़े थे और तुम्हारे पुत्र से भी अधिक पुण्यात्मा थे। जब वे भी जीवित न रह सके, तब औरों की तो बात ही क्या है? अत: तुम अपने उस पुत्र के लिये शोक न करो, जिसने न तो यज्ञ किया था और न दक्षिणा ही दी थी। ऐसा नारद जी ने कहा। (11)
इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोण के अन्तर्गत अभिमन्युवध पर्व में षोडशराजकीयोपाख्यानविषयक तिरसठवाँ अध्याय पूरा हुआ।
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