महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 308 श्लोक 1-14

अष्‍टाधिकत्रिशततम (308) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

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महाभारत: शान्ति पर्व: अष्‍टाधिकत्रिशततम अध्याय: श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद

क्षर-अक्षर और परमात्‍म-तत्‍व का वर्णन, जीव के नानात्‍व और एकत्‍व का दृष्‍टान्‍त, उपदेश के अधिकारी और अनधिकारी तथा इस ज्ञान की परम्‍परा को बताते हुए वसिष्‍ठ–करालजनक-संवाद का उपसंहार

वसिष्‍ठ जी कहते हैं- राजन्! अब बुद्ध (परमात्‍मा), अबुद्ध (जीवात्‍मा) और इस गुणमयी सुष्टि (प्राकृत प्रपंच) का वर्णन सुनो। जीवात्‍मा अपने-आपको अनेक रूपों में प्रकट करके उन रूपों को सत्‍य मानकर देखता रहता है। वास्‍तव में ज्ञानसम्‍पन्‍न होने पर भी इस प्रकार प्रकृति के संसर्ग से विकार को प्राप्‍त हुआ जीवात्‍मा ब्रह्म को नहीं जान पाता। वह गुणों को धारण करता है; अत: कर्तृत्त्व का अभिमान लेकर रचना और संहार किया करता है। जनेश्‍वर! जीवात्‍मा इस जगत् में सदा क्रीड़ा करने के लिये ही विकार को प्राप्‍त होता है। वह अव्‍यक्‍त प्रकृति को जानता है, इसलिये ऋषि-मुनि उसे ‘बुध्‍यमान’ कहते हैं।

तात! परब्रह्मा परमात्‍मा सगुण हो या निर्गुण, उसे प्रकृति कभी नहीं जानती (क्‍योंकि वह जड है), अत: सांख्‍यवादी विद्वान् इस प्रकृति को अप्रतिबुद्ध (ज्ञान शून्‍य) कहते है। यदि यह मान लिया जाय कि प्रकृति भी जानती है तो यह केवल पचीसवें तत्त्व—पुरुष को ही उससे संयुक्‍त होकर जान पाती है, प्रकृति के सा‍थ संयुक्‍त होने के कारण ही जीव संगात्‍मक (संगी) होता है; ऐसा श्रुति का कथन है। इस संगदोष के कारण ही अव्‍यक्‍त एवं अविकारी जीवात्‍मा को लोग ‘मूढ़’ कह दिया करते हैं। पचीसवाँ तत्त्वरूप महान् आत्‍मा अव्‍यक्‍त प्रकृति को जानता है, इसलिये उसे ‘बुध्‍यमान’ कहते है; परंतु वह भी छब्‍बीसवें तत्त्वरूप निर्मल नित्‍य शुद्ध बुद्ध अप्रमेय सनातन परमात्‍मा को नहीं जानता है; किंतु वह सनातन परमात्‍मा उस पचीसवें तत्त्वरूप जीवात्‍मा को तथा चौबीसवीं प्रकृति भी भलीभाँति जानता है। तात! महातेजस्‍वी नरेश! वह अव्‍यक्‍त एवं अद्वितीय ब्रह्म यहाँ दृश्‍य और अदृश्‍य सभी वस्‍तुओं में स्‍वभाव से ही व्‍याप्‍त है; वह सबको जानता है। चौबीसवीं अव्‍यक्‍त प्रकृति न तो अद्वितीय ब्रह्म को देख पाती है और न पचीसवें तत्त्वरूप जीवात्‍मा को। जब जीवात्‍मा अव्‍यक्‍त ब्रह्म की और दृष्टि रखकर अपने को प्रकृति से भिन्‍न मानता है, तब प्रकृति का अधिपति हो जाता है। नृपश्रेष्‍ठ! जब जीवात्‍मा शुद्ध ब्रह्मा विषयिणी, निर्मल एवं सर्वोत्‍कृष्‍ट बुद्धि को प्राप्‍त कर लेता है, तब वह छब्‍बीसवें तत्त्वरूप पर ब्रह्मा का साक्षात्‍कार करके तद्रूप हो जाता है। उस स्थिति में वह नित्‍य शुद्ध-बुद्ध ब्रह्म भाव में ही प्रतिष्ठित होता है। फिर तो वह सुष्टि और प्रलयरूप धर्मवाली अव्‍यक्‍त प्रकृति से सर्वथा अतीत हो जाता है। वह गुणों से अतीत होकर त्रिगुणमयी प्रकृति को जडरूप में जान लेता है, इस प्रकार प्रकृति को अपने से सर्वथा अभिन्‍न देखने के कारण वह कैवल्‍य को प्राप्‍त हो जाता है। केवल (अद्वितीय) ब्रह्म से मिलकर सब प्रकार के बन्‍धनों से मुक्‍त हुआ अपने परमार्थस्‍वरूप परमात्‍मा को प्राप्‍त हो जाता है। इसी को परमार्थतत्त्व कहते हैं। यह सब तत्त्वों से अतीत तथा जरा-मरण से रहित है। सबको मान देने वाले नरेश! जीवात्‍मा तत्त्वों का आश्रय लेने से ही तत्त्व–सदृश प्रतीत होता है। वास्‍तव में वह तत्त्वों का द्रष्‍टामात्र होने के कारण तत्त्व नहीं है— तत्त्वों से सर्वथा भिन्‍न ही है। इस प्रकार मनीषी पुरुष (प्रकृति के चौबीस तत्त्वों के साथ) जीवात्‍मा को भी एक तत्त्व मानकर कुल पचीस तत्त्वों का प्रतिपादन करते हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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