महाभारत आदि पर्व अध्याय 138 श्लोक 1-15

अष्टात्रिंशदधिकशततम (138) अध्‍याय: आदि पर्व (सम्भव पर्व)

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महाभारत: आदि पर्व: अष्टात्रिंशदधिकशततम अध्‍याय: श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद


युधिष्ठिर का युवराज पद पर अभिषेक, पाण्‍डवों के शौर्य, कीर्ति और बल के विस्‍तार से धृतराष्ट्र को चिन्‍ता

वैशम्‍पायन जी कहते हैं- राजन्! तदनन्‍तर एक वर्ष बीतने पर धृतराष्ट्र ने पाण्‍डुपुत्र युधिष्ठिर को धृति, स्थिरता, सहिष्‍णुता, दयालुता, सरलता तथा अविचल सौहार्द आदि सद्गुणों के कारण पालन करने योग्‍य प्रजा पर अनुग्रह करने के लिये युवराज पद पर अभिषिक्त कर दिया। इसके बाद थोड़े ही दिनों में कुन्‍तीकुमार युधिष्ठिर ने अपने शील (उत्तम स्‍वभाव), वृत समाधि (मनोयोगपूर्वक प्रजापालन की प्रवृति) के द्वारा अपने पिता महाराज पाण्‍डु की कीर्ति को भी ढक दिया। पाण्‍डुनन्‍दन भीमसेन बलराम जी से नित्‍यप्रति खड्ग युद्ध, गदायुद्ध तथा रथयुद्ध की शिक्षा लेने लगे। शिक्षा समाप्त होने पर भीमसेन बल में राजा द्युमत्‍सेन के समान हो गये और पराक्रम से सम्‍पन्न हो अपने भाइयों के अनुकूल रहने लगे। अर्जुन अत्‍यन्‍त दृढ़तापूर्वक मुट्ठी से धनुष को पकड़ने में, हाथों की फुर्ती में और लक्ष्‍य को बींधने में बड़े चतुर निकले। वे क्षुर[1], नाराच[2], भल्‍ल[3] और विपाठ[4] नामक ऋजु, वक्र और विशाल[5] अस्त्रों के संचालन का गूढ़ तत्त्व अच्‍छी तरह जानते और उनका सफलतापूर्वक प्रयोग कर सकते थे। इसलिये द्रोणाचार्य को यह दृढ़ विश्‍वास हो गया था कि फुर्ती और सफाई में अर्जुन के समान दूसरा कोई योद्धा इस जगत् में नहीं है।

एक दिन द्रोण ने कौरवों की भरी सभा में निद्रा को जीतने वाले अर्जुन से कहा- ‘भारत! मेरे गुरु अग्निवेश नाम से विख्‍यात हैं। उन्‍होंने पूर्व काल में म‍हर्षि अगत्‍स्‍य से धनुर्वेद की शिक्षा प्राप्त की थी। मैं उन्‍हीं महात्‍मा अग्निवेश का शिष्‍य हूँ। एक पात्र (गुरु) से दूसरे (सुयोग्‍य शिष्‍य) को इसकी प्राप्ति कराने के उद्देश्‍य से सर्वथा उद्यत होकर मैंने तुम्‍हें यह ब्रह्मशिर नामक अस्त्र प्रदान किया, जो मुझे तपस्‍या के मिला था। वह अमोघ अस्त्र वज्र के सामन प्रकाशमान है। उसमें समूची पृथ्‍वी को भस्‍म कर डालने की शक्ति है। मुझे वह अस्त्र देते समय गुरु अग्निवेश जी ने कहा था, ‘शक्तिशाली भारद्वाज! तुम यह अस्त्र मनुष्‍यों पर न चलाना। मनुष्‍येतर प्राणियों में भी जो अल्‍पवीर्य हों, उन पर भी इस अस्त्र को न छोड़ना।

वीर अर्जुन! इस दिव्‍य अस्त्र को तुमने मुझसे पा लिया है। दूसरा कोई इसे नहीं प्राप्त कर सकता। राजकुमार! इस अस्त्र के सम्‍बन्‍ध में मुनि के बताये हुए इस नियम का तुम्‍हें भी पालन करना चाहिये। अब तुम अपने भाई-बन्‍धुओं के सामने ही मुझे एक गुरु-दक्षिणा दो’। तब अर्जुन ने प्रतिज्ञा की- ‘अवश्‍य दूंगा।’ उनके यों कहने पर गुरु द्रोण बोले- ‘निष्‍पाप अर्जुन! यदि युद्ध-भूमि में मैं भी तुम्‍हारे विरुद्ध लड़ने को जाऊं तो तुम (अवश्‍य) मेरा सामना करना’। यह सुनकर कुरुश्रेष्ठ अर्जुन ने ‘बहुत अच्‍छा’ कहते हुए उनकी इस आज्ञा का पालन करने की प्रतिज्ञा की और गुरु के दोनों चरण पकड़कर उन्‍होंने सर्वोत्तम उपदेश प्राप्त कर लिया।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. क्षुर उस बाण को कहते हैं, जिसके बगल में तेज धार होती है, जैसे- नाई का छूरा।
  2. नाराच सीधे बाण को कहते हैं, जिसका अग्रभाग तीखा होता है।
  3. भल्ल उस बाण को कहते हैं, जिसकी नोक का पिछला भाग चौड़ा और नोकदार होता है।
  4. विपाठ नामक बाण की आकृति खनती की भाँति होती है। यह दूसरे बाणों से बड़ा होता है।
  5. उपर्युक्त बाणों में क्षुर और नाराच सीधा है, भल्ल टेढ़ा है और विपाठ विशाल है।

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