महाभारत वन पर्व अध्याय 52 श्लोक 1-19

द्विपंचाशत्तम (52) अध्‍याय: वन पर्व (नलोपाख्यान पर्व)

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महाभारत: वन पर्व: द्विपंचाशत्तम अध्याय: श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद


भीमसेन-युधिष्ठिर संवाद, बृहदश्व का आगमन तथा युधिष्ठिर के पूछने पर बृहदश्व के द्वारा नलोपाख्यान की प्रस्तावना

जनमेजय ने पुछा- ब्रह्मन! अस्त्र विधा की प्राप्ति के लिये महात्मा अर्जुन के इन्द्रलोक चले जाने पर युधिष्ठिर आदि पाण्डवों ने क्या किया?

वैशम्पायन जी कहते हैं- राजन्! अस्त्र विद्या के लिये महात्मा अर्जुन के इन्द्रलोक जाने पर भरतकुलभूषण पाण्डव द्रौपदी के साथ काम्यकवन में निवास करने लगे। तदनन्तर एक दिन एकान्त एवं पवित्र स्थान में, जहाँ छोटी-छोटी हरी दूर्वा आदि घास उगी हुई थी, वे भरतवंश के श्रेष्ठ पुरुष दुःख से पीड़ित हो द्रौपदी के साथ बैठे और धनंजय अर्जुन के लिये चिंता करते हुए अत्यन्त दुःख में भरे अश्रुगद्गद कण्ठ से उन्हीं की बातें करने लगे। अर्जुन के वियोग से पीड़ित उन समस्त पाण्डवों को शोक सागर ने अपनी लहरों में डुबा दिया। पाण्डव राज्य छिन जाने से तो दु:खी थे ही, अर्जुन के विरह से वे और भी क्लेश में पड़ गये थे।

उस समय महाबाहु भीमसेन ने युधिष्ठिर ने कहा- ‘महाराज! आपकी आज्ञा से भरतवंश का रत्न अर्जुन तपस्या के लिये चला गया। हम सब पाण्डवों के प्राण उसी में बसते हैं। यदि कहीं अर्जुन का नाश हुआ तो पुत्रों सहित पांचाल, हम पाण्डव, सात्यकि और वसुदेवनन्दन श्रीकृष्ण- ये सब के सब नष्ट हो जायेंगे। जो धर्मात्मा अर्जुन अनेक प्रकार के क्लेशों का चिन्तन करते हुए आपकी आज्ञा से तपस्या के लिये गया, उससे बढ़कर दुःख और क्या होगा। जिस महापराक्रमी अर्जुन के बाहुबल का आश्रय लेकर हम संग्राम में शत्रुओं को पराजित और इस पृथ्वी को अपने अधिकार में आयी हुई समझते हैं। जिस धनुर्धर वीर के प्रभाव से प्रभावित होकर मैंने सभा में शकुनि सहित समस्त धृतराष्ट्र पुत्रों को तुरन्त ही यमलोक नहीं भेज दिया। हम सब लोग बाहुबल से सम्पन्न हैं और भगवान् वासुदेव हमारे रक्षक हैं तो भी हम आपके कारण अपने उठे हुए क्रोध को चुपचाप सह लेते हैं।

भगवान् श्रीकृष्ण के साथ हम लोग कर्ण आदि शत्रुओं को मारकर अपने बाहुबल से जीती हुई सम्पूर्ण पृथ्वी का शासन कर सकते हैं। आपके जूए के दोष से हम लोग पुरुषार्थयुक्त होकर भी दीन बन गये हैं और वे मूर्ख दुर्योधन आदि भेंट में मिले हुए हमारे धन से सम्पन्न हो इस समय अधिक बलशाली बन गये हैं। महाराज! आप क्षत्रिय धर्म की ओर तो देखिये। इस प्रकार वन में रहना कदापि क्षत्रियों का धर्म नहीं है। विद्वानों ने राज्य को ही क्षत्रिय का सर्वोत्तम धर्म माना है। आप क्षत्रिय धर्म के ज्ञाता नरेश हैं। धर्म के मार्ग से विचलित न होइये। राजन्! हम लोग बारह वर्ष बीतने के पहले ही अर्जुन को वन से लौटाकर और भगवान् श्रीकृष्ण को बुलाकर धृतराष्ट्र के पुत्रों का संहार कर सकते हैं।

महाराज! महामते! धृतराष्ट्र के पुत्र कितनी ही सेनाओं की मोर्चाबन्दी क्यों न कर लें, हम लोग उन्हें शीघ्र ही यमलोक का पठीक बनाकर ही छोड़ेंगे। मैं स्वयं ही शकुनि सहित समस्त धृतराष्ट्र पुत्रों को मार डालूंगा। दुर्योधन, कर्ण अथवा दूसरा जो काई योद्धा मेरा सामना करेगा, उसे भी अवश्य मारूंगा। मेरे द्वारा शत्रुओं का संहार हो जाने पर आप फिर तेरह वर्ष के बाद वन में चले आइयेगा। प्रजानाथ! ऐसा करने पर आपको दोष नहीं लगेगा।'

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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