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महाभारत: उद्योग पर्व: षट्-त्रिंशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद
विदुला के उपदेश से उसके पुत्र का युद्ध के लिए उद्यत होना
- माता बोली- पुत्र! कैसी भी आपत्ति क्यों न आ जाए, राजा को कभी भयभीत होना या घबराना नहीं चाहिए। यदि वह डरा हुआ हो तो भी डरे हुए के समान कोई बर्ताव न करे। (1)
- राजा को भयभीत देखकर उसके पास के सभी लोग भयभीत हो जाते हैं। राज्य की प्रजा, सेना और मंत्री भी उससे भिन्न विचार रखने लगते हैं। (2)
- उनमें से कुछ लोग तो उस राजा के शत्रुओं की शरण में चले जाते हैं, दूसरे लोग उसका त्यागमात्र कर देते हैं और कुछ लोग जो पहले राजा द्वारा अपमानित हुए होते हैं, वे उस अवस्था में उसके ऊपर प्रहार करने की भी इच्छा कर लेते हैं। (3)
- जो लोग अत्यंत सुहृद होते हैं, वे ही उस संकट के समय उस राजा के पास रह जाते हैं, परंतु वे भी असमर्थ होने के कारण बंधे हुए बछड़े वाली गाय की भाँति कुछ कर नहीं पाते, केवल मन-ही-मन उसकी मंगलकामना करते रहते हैं। (4)
- जो विपत्ति की अवस्था में शोक करते हुए राजा के साथ-साथ स्वयं भी वैसे ही शोकमग्न हो जाते हैं, मानो उनके कोई सगे भाई-बंधु विपन्न हो गए हैं, क्या ऐसे ही लोगों को तूने सुहृद माना है? क्या तूने भी पहले ऐसे सुहृदों का सम्मान किया है? (5)
- जो संकट में पड़े राजा के राज्य को अपना ही मानकर उसकी तथा राजा के राज्य की रक्षा के लिए कृतसंकल्प होते हैं, ऐसे सुहृदों को तू कभी अपने से विलग न कर और वे भी भयभीत अवस्था में तेरा परित्याग न करें। (6)
- मैं तेरे प्रभाव, पुरुषार्थ और बुद्धि-बल को जानना चाहती थी, अत: तुझे आश्वासन देते हुए तेरे तेज (उत्साह) की वृद्धि के लिए मैंने उपर्युक्त बातें कही हैं। (7)
- संजय! यदि मैं यह सब ठीक कह रही हूँ और यदि तू भी मेरी इन बातों को ठीक समझ रहा है तो अपने आप को उग्र सा बनाकर विजय के लिए उठ खड़ा हो। (8)
- अभी हम लोगों के पास बड़ा भारी खजाना है जिसका तुझे पता नहीं है, उसे मैं ही जानती हूँ, दूसरा नहीं। वह खजाना मैं तुझे सौंपती हूँ। (9)
- वीर संजय! अभी तो तेरे सैकड़ों सुहृद हैं। वे सभी सुख-दु:ख को सहन करने वाले तथा युद्ध से पीछे न हटने वाले हैं। (10)
- शत्रुसूदन! जो पुरुष अपनी उन्नति चाहता है और शत्रु के हाथ से अपनी अभीष्ट संपत्ति को हर लाना चाहता है उसके सहायक और मंत्री पूर्वोक्त गुणों से युक्त सुहृद हुआ करते हैं। (11)
- कुंती बोली- श्रीकृष्ण! संजय का हृदय यद्यपि बहुत दुर्बल था तो भी विदुला का वह विचित्र अर्थ, पद और अक्षरों से युक्त वचन सुनकर उसका तमोगुण जनित भय और विषाद भाग गया। (12)
- पुत्र बोला- माँ! मेरा यह राज्य शत्रुरूपी जल में डूब गया है, अब मुझे इसका उद्धार करना है, नहीं तो युद्ध में शत्रुओं का सामना करते हुए अपने प्राणों का विसर्जन कर देना है, जब मुझे भावी वैभव का दर्शन कराने वाली तुझ जैसी संचालिका प्राप्त है, तब मुझ में ऐसा साहस होना ही चाहिए। (13)
- मैं बराबर तेरी नयी-नयी बातें सुनना चाहता था। इसलिए बारबार बीच-बीच में कुछ-कुछ बोलकर फिर मौन हो जाता था। (14)
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