त्रिसप्तत्यधिकशततम (173) अध्याय: शान्ति पर्व (आपद्धर्म पर्व)
महाभारत: शान्ति पर्व: त्रिसप्तत्यधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-26 का हिन्दी अनुवाद
राजधर्मा और गौतम का पुन जीवित होना भीष्म जी कहते हैं- राजन! तदनन्तर विरूपाक्ष ने बकराज के लिये एक चिता तैयार करायी। उसे बहुत से रत्नों, सुगन्धित चन्दनों तथा वस्त्रों से खूब सजाया गया था। तत्पश्चात् बकराज के शव को उसके ऊपर रखकर प्रतापी राक्षसराज ने उसमें आग लगायी और विधिपूर्वक मित्र का दाह-कर्म सम्पन्न किया। उसी समय दिव्य–धेनु दक्षकन्या सुरभिदेवी वहाँ आकर आकाश में ठीक चिता के ऊपर खड़ी हो गयीं। अनघ! उनके मुख से जो दूध मिश्रित फेन झरकर गिरा, वह राजधर्मा की उस चिता पर पडा़। निष्पाप नरेश! उससे उस समय बकराज जी उठा और वह उड़कर विरूपाक्ष से जा मिला। उसी समय देवराज इन्द्र विरूपाक्ष के नगर में आये और निरुपाक्ष से इस प्रकार बोले- ‘बडे़ सौभाग्य की बात है कि तुम्हारें द्वारा बकराज को जीवन मिला’। इन्द्र ने विरूपाक्ष को एक प्राचीन घटना सुनायी, जिसके अनुसार ब्रह्मा जी ने पहले राजधर्मा को शाप दिया था। राजन! एक समय जब बकराज ब्रह्मा जी की सभा में नहीं पहुँच सके, तब पितामह ने बड़े रोष में भरकर इन पक्षिराज को शाप देते हुए कहा- ‘वह मूर्ख और नीच बगला मेरी सभा में नहीं आया है; इसलिये शीघ्र ही उस दुष्टात्मा को वध का कष्ट भोगना पड़ेगा’। ब्रह्मा जी के उस वचन से ही गौतम ने इनका वध किया और ब्रह्मा जी ने ही पुन: अमृत छिड़ककर राजधर्मा को जीवन-दान दिया है। तदनन्तर राजधर्मा बक ने इन्द्र को प्रणाम करके कहा- ‘सुरेश्वर! यदि आपकी मुझ पर कृपा है तो मेरे प्रिय मित्र गौतम को भी जीवित कर दीजिय’। ‘पुरुषप्रवर, उसके अनुरोध का स्वीकार करके इन्द्र देव ने गौतम ब्राह्मण को भी अमृत छिड़कर जिला दिया। राजन! बर्तन और सुवर्ण आदि सब सामग्री सहित प्रिय सुहृद गौतम को पाकर बकराज ने बड़े प्रेम से उसको हृदय से लगा लिया। फिर बकराज राजधर्मा ने उस पापाचारी को धन सहित विदा करके अपने घर में प्रवेश किया। तदनन्तर बकराज यथोचित रीति से ब्रह्मा जी की सभा में गया और ब्रह्मा जी ने उस महात्मा का आतिथ्य-सत्कार किया। गौतम भी पुन: भीलों के ही गाँव जाकर रहने लगा। वहाँ उसने उस शूद्रजाति की स्त्री के पेट से ही अनेक पापाचारी पुत्रों को उत्पन्न किया। तब देवताओं ने गौतम को महान शाप देते हुए कहा- ‘यह पापी कृतघ्न है और दूसरा पति स्वीकार करने वाली शूद्रजातीय स्त्री के पेट से बहुत दिनों से संतान पैदा करता आ रहा है। इस पाप के कारण यह घोर नरक मे पड़ेगा। भारत! यह सारा प्रसंग पूर्वकाल में मुझसे महर्षि नारद ने कहा था। भरतश्रेष्ठ! इस महान आख्यान को याद करके मैंने तुम्हारे समक्ष सब यथार्थरूप से कहा है। कृतघ्न को कैसे यश प्राप्त हो सकता है? उसे कैसे स्थान और सुख की उपलब्धि हो सकती है? कृतघ्न विश्वास के योग्य नहीं हेता। कृतघ्न के उद्धार के लिये शास्त्रों में कोई प्रायश्चित नहीं बताया गया है। मनुष्य को विशेष ध्यान देकर मित्रद्रोह के पाप से बचना चाहिये। मित्रद्रोही मनुष्य अनन्तकाल के लिये घोर नरक में पड़ता है। प्रत्येक मनुष्य को सदा कृतज्ञ होना चाहिये और मित्र की इच्छा रखनी चाहिये, क्योंकि मित्र से सब कुछ प्राप्त होता है। मित्र के सहयोग से सदा सम्मान की प्राप्ति होती है। मित्र की सहायता से भोगों की भी उपलब्धि होती है और मित्र द्वारा मनुष्य आपत्तियों से छुटकारा पा जाता है, अत: बुद्धिमान पुरुष उत्तम सत्कारों द्वारा मित्र का पूजन करे। जो पापी, कृतघ्न, निर्लज्ज, मित्रद्रोही, कुलांगार और पापचारी हो, ऐसे अधम मनुष्य का विद्वान पुरुष सदा त्याग करे। धर्मात्माओं में श्रेष्ठ युधिष्ठिर! इस प्रकार यह मैंने तुम्हें पापी, मित्रद्रोही और कृतघ्न पुरुष का परिचय दिया है। अब और क्या सुनना चाहते हो? वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! महात्मा भीष्म का यह वचन सुनकर राजा युधिष्ठिर मन-ही-मन बड़े प्रसन्न हुए। इस प्रकार श्रीमहाभारत शांतिपर्व के अंतर्गत आपद्धर्मपर्व कृतघ्न का उपाख्यानविषयक एक सौ तिहतरवां अध्याय पूरा हुआ। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज