एकाधिकद्विशततम (201) अध्याय: द्रोण पर्व (नारायणास्त्रमोक्ष पर्व)
महाभारत: द्रोणपर्व: एकाधिकद्विशततम अध्याय: श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद
धृतराष्ट्र ने पूछा– संजय! आचार्य पुत्र अश्वत्थामा बलवान् और सम्मान के योग्य है। उसका अर्जुन पर प्रेम है और वह भी महात्मा अर्जुन को प्रिय है। अर्जुन का उसके प्रति ऐसा कठोर वचन पहले कभी नहीं सुना गया। फिर उस दिन कुन्ती कुमार अर्जुन ने अपने मित्र के प्रति वैसी कठोर बात क्यों कहीं। संजय ने कहा – प्रभो! चेदिदेश के युवराज, पौरव वृद्धक्षत्र तथा बाणों के प्रयोग में कुशल मालवराज सुदर्शन के मारे जाने पर, धृष्टद्युम्न, सात्यकि और भीमसेन के परास्त हो जाने पर अर्जुन के मन में बड़ा कष्ट हुआ था। इसके सिवा, युधिष्ठिर के उन व्यगं वचनों से उनके मर्मस्थल में बड़ी चोट पहँची थी और पहले के दुःखों का स्मरण करके भी उनका हदय फट गया था; अतः अधिक खेद के कारण अर्जुन के मन में अभूतपूर्व क्रोध जाग उठा। इसलिये माननीय आचार्य पुत्र अश्वत्थामा के प्रति, जो कठोर वचन सुनने के योग्य नहीं था, अर्जुन ने कायर मनुष्य से कहने योग्य अश्लील, अप्रिय और कठोर बातें कह डाली। नरेश्वर! जब अर्जुन ने सारे मर्मस्थानों को विदीर्ण कर देने वाली वाणी द्वारा उससे ऐसी कठोर बात कह दी, तब श्रेष्ठ महाधनुर्धर अश्वत्थामा क्रोध के मारे लंबी साँस लेने लगा। उस समय द्रोण पुत्र को अर्जुन और श्रीकृष्ण पर अधिक क्रोध हुआ, उस पराक्रमी वीर ने सावधानी के साथ रथ पर खड़ा हो आचमन करके आग्नेयास्त्र हाथ में लिया, जो देवताओं के लिये भी अत्यन्त दुर्जन था। फिर धूमरहित अग्नि के समान एक तेजस्वी बाण को अभिमन्त्रित करके शत्रुवीरों का संहार करने वाले आचार्यनन्दन अश्वत्थामा ने सर्वथा क्रोधावेश से युक्त हो उसे प्रत्यक्ष और परोक्ष शत्रुओं के उद्देश्य से चला दिया। फिर तो आकाश में बाणों की भयंकर वर्षा होने लगी और सब ओर फैली हुई आग की लपटें अर्जुन पर ही टूट पड़ी। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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