महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 23 श्लोक 1-19

त्रयोविंश (23) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

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महाभारत: शान्ति पर्व: त्रयोविंश अध्याय: श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद


व्यास जी का शंख और लिखित की कथा सुनाते हुए राजा सुद्युम्न के दण्डधर्मपालन का महत्त्व सुनाकर युधिष्ठिर को राजधर्म में ही दृढ़ रहने की आज्ञा देना

वैशम्पायन जी कहते हैं- राजन्! निद्राविजयी अर्जुन के ऐसा कहने पर भी कुरुकुलनन्दन पाण्डुपुत्र कुन्तीकुमार युधिष्ठिर जब कुछ न बोले, तब द्वैपायन व्यास जी ने इस प्रकार कहा।

व्यास जी बोले- सौम्य युधिष्ठिर! अर्जुन ने जो बात कही है, वह ठीक है। शास्त्रोक्त परम धर्म गृहस्थ-आश्रम का ही आश्रय लेकर टिका हुआ है। धर्मज्ञ युधिष्ठिर! तुम शास्त्र के कथनानुसार विधिपूर्वक स्वधर्म का ही आचरण करो। तुम्हारे लिये गृहस्थ-आश्रम को छोड़कर वन में जाने का विधान नहीं है। पृथ्वीनाथ! देवता, पितर, अतिथि और भृत्यगण सदा गृहस्थ का ही आश्रय लेकर जीवन-निर्वाह करते हैं; अतः तुम उनका भरण-पोषण करो। जनेश्वर! पशु, पक्षी तथा अन्य प्राणी भी गृहस्थों से ही पालित होते हैं; गृहस्थ ही सबसे श्रेष्ठ है। युधिष्ठिर! चारों आश्रमों में यह गृहस्थाश्रम ही ऐसा है, जिसका ठीक-ठीक पालन करना बहुत कठिन है। जिनकी इन्द्रियाँ दुर्बल हैं, उनके द्वारा गृहस्थ-धर्म का आचरण दुष्कर है। तुम अब उसी दुष्कर धर्म का पालन करो। तुम्हें वेद का पूरा-पूरा ज्ञान है, तुमने बड़ी भारी तपस्या की है। इसलिये अपने पिता-पितामहों के इस राज्य का भार तुम्हें एक धुरन्धर पुरुष की भाँति वहन करना चाहिये।

महाराज! तप, यज्ञ, विद्या, भिक्षा, इन्द्रियसंयम, ध्यान, एकान्त-वास का स्वभाव, संतोष और यथाशक्ति शास्त्रज्ञान- ये सब गुण तथा चेष्टाएँ ब्राह्मणों के लिये सिद्धि प्रदान करने वाली हैं। प्रजानाथ! अब मैं पुनः क्षत्रियों के धर्म बता रहा हूँ, यद्यपि वह तुम्हें भी ज्ञात है। यज्ञ, विद्याभ्यास, शत्रुओं पर चढ़ाई करना, राजलक्ष्मी की प्राप्ति से कभी संतुष्ट न होना, दुष्टों को दण्ड देने के लिये उद्यत रहना, क्षत्रिय तेज से सम्पन रहना, प्रजा की सब ओर से रक्षा करना, समस्त वेदों का ज्ञान प्राप्त करना, तप, सदाचार, अधिक द्रव्योपार्जन और सत्पात्र को दान देना- ये सब राजाओं के कर्म हैं, जो सुन्दर ढंग से किये जाने पर उनके इहलोक और परलोक दोनों को सफल बनाते हैं, ऐसा हमने सुना है।

कुन्तीनन्दन! इनमें भी दण्ड धारण करना राजा का प्रधान धर्म बताया जाता है; क्योंकि क्षत्रिय में बल की नित्य स्थिति है और बल में ही दण्ड प्रतिष्ठित होता है। राजन्! ये विद्याएँ (धार्मिक क्रियाएँ) क्षत्रियों को सदा सिद्धि प्रदान करने वाली हैं। इस विषय में बृहस्पति जी ने इस गाथा का भी गान किया है। जैसे साँप बिल में रहने वाले चूहे आदि जीवों को निगल जाता है; उसी प्रकार विरोध न करने वाले राजा और परदेश में न जाने वाले ब्राह्मण- इन दो व्यक्तियों को भूमि निगल जाती है। सुना जाता है कि राजर्षि सुद्युम्न ने दण्ड धारण के द्वारा ही प्रचेताकुमार दक्ष के समान परम सिद्धि प्राप्त कर ली।

युधिष्ठिर ने पूछा- भगवन्! पृथिवीपति सुद्युम्न ने किस कर्म से परम सिद्धि प्राप्त कर ली थी। मैं उन नरेश का चरित्र सुनना चाहता हूँ।

व्यास जी ने कहा- युधिष्ठिर! इस विषय में लोग इस प्राचीन इतिहास का उदाहरण दिया करते हैं- शंख और लिखित नाम वाले दो भाई थे। दोनों ही कठोर व्रत का पालन करने वाले तपस्वी थे। बाहुदा नदी के तट पर उन दोनों के अलग-अलग परम सुन्दर आश्रम थे, जो सदा फल-फूलों से लदे रहने वाले वृक्षों से सुशोभित थे।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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