सप्तनवतितम (97) अध्याय :अनुशासनपर्व (दानधर्म पर्व)
महाभारत: अनुशासन पर्व: सप्तनवतितम अध्याय: श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद
युधिष्ठिर ने कहा- भरतश्रेष्ठ! पृथ्वीनाथ! अब आप मुझे गृहस्थ आश्रम के संपूर्ण धर्मों का उपदेश कीजिये। मनुष्य कौन-सा कर्म करके इहलोक में समृद्धि का भागी होता है? भीष्म जी ने कहा- नरेश्वर! भरतनन्दन! इस विषय में भगवान श्रीकृष्ण और पृथ्वी का संवादरूप एक प्राचीन वृत्तान्त बता रहा हूँ। भरतश्रेष्ठ! प्रतापी भगवान श्रीकृष्ण ने पृथ्वी देवी की स्तुति करके उनसे यही बात पूछी थी, जो आज तुम मुझसे पूछते हो। भगवान श्रीकृष्ण ने पूछा- वसुन्धरे! मुझको या मेरे जैसे दूसरे मनुष्य को गार्हस्थ्य-धर्म का आश्रय लेकर किस कर्म का अनुष्ठान अवश्य करना चाहिये? क्या करने से गृहस्थ को सफलता मिलती है? पृथ्वी ने कहा- माधव! गृहस्थ पुरुष को सदा ही देवताओं, पितरों, ऋषियों और अतिथियों का पूजन एवं सत्कार करना चाहिये। यह सब कैसे करना चाहिये, सो बता रही हूँ, सुनिये। प्रतिदिन यज्ञ होम के द्वारा देवताओं का, अतिथि सत्कार के द्वारा मनुष्यों का (श्राद्ध-तर्पण करके पितरों का) तथा वेदों का नित्य स्वाध्याय करके पूजनीय ऋषि-महर्षियों का यथाविधि पूजन और सत्कार करना चाहिये। इसके बाद नित्य भोजन करना उचित है। मधूसूदन! स्वाध्याय से बड़ी प्रसन्नता होती है। प्रतिदिन भोजन से पहले ही अग्निहोत्र एवं बलिवैश्वदेव कर्म करें। इससे देवता संतुष्ट होते हैं। पितरों की प्रसन्नता के लिये प्रतिदिन अन्न, जल, दूध अथवा फल-मूल के द्वारा श्राद्ध करना उचित है। सिद्ध अन्न (तैयार हुई रसोई) में से अन्न लेकर उसके द्वारा विधिपूर्वक बलिवैश्वदेव कर्म करना चाहिये। पहले अग्नि और सोम को, फिर विश्वेदेवों को, तदनन्तर धन्वन्तरी को, तत्पश्चात प्रजापति को पृथक-पृथक आहुति देने का विधान है। इसी प्रकार क्रमश: बलिकर्म का प्रयोग करें। माधव! दक्षिण दिशा में यम को, पश्चिम में वरुण को, उत्तर दिशा में सोम को, वास्तु के मध्य भाग में प्रजापति को, ईशान कोण में धन्वन्तरि को और पूर्व दिशा में इन्द्र को बलि समर्पित करें। घर के दरवाजे पर सनकादि मनुष्यों के लिये बलि देने का विधान है। मरुद्गणों तथा देवताओं को घर के भीतर बलि समर्पित करनी चाहिये। विश्वेदेवों के लिये आकाश में बलि अर्पित करें। निशाचरों एवं भूतों के लिये रात में बलि दें। इस प्रकार बलि समर्पण करके ब्राह्मण को विधिपूर्वक भिक्षा दें। यदि ब्राह्मण न मिले तो अन्न में से थोड़ा-सा अग्रग्रास निकाल कर उसका अग्नि में होम कर दें। जिस दिन पितरों का श्राद्ध करने की इच्छा हो, उस दिन पहले श्राद्ध की क्रिया पूरी करें। उसके बाद पितरों का तर्पण करके विधिपूर्वक बलिवैश्वदेव कर्म करें। तदनन्तर ब्राह्मणों को सत्कारपूर्वक भोजन करावें। महाराज! इसके बाद विशेष अन्न के द्वारा अतिथियों को भी सम्मानपूर्वक भोजन करावें। ऐसा चित्र करने से गृहस्थपुरुष सम्पूर्ण मनुष्यों को संतुष्ट करता है। जो नित्य अपने घर में स्थित नहीं रहता, वह अतिथि कहलाता है, आचार्य, पिता, विश्वासपात्र मित्र और अतिथि से सदा यह निवेदन करे कि 'अमुक वस्तु मेरे घर में मौजूद है, उसे आप स्वीकर करें।' फिर वे जैसी आज्ञा दें वैसा ही करे। ऐसा करने से धर्म का पालन होता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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