ऋषि

Disamb2.jpg ऋषि एक बहुविकल्पी शब्द है अन्य अर्थों के लिए देखें:- ऋषि (बहुविकल्पी)

ऋषि भारत की प्राचीन परम्परा के अनुसार श्रुति ग्रंथों को दर्शन करने वाले जनों को कहा जाता है। आधुनिक बातचीत में मुनि, योगी, सन्त अथवा कवि इनके पर्याय नाम हैं। पराशर, दुर्वासा, वेदव्यास, शुकदेव, धौम्य, वसिष्ठ, परशुराम, किंदम तथा अगस्त्य आदि अनेक ऋषि प्राचीन भारतीय समाज में प्रसिद्ध थे।

'ऋषि' शब्द की व्यत्पत्ति

ऋषि शब्द की व्युत्पत्ति 'ऋषि' गतौ धातु से[1] मानी जाती है।

ॠषति प्राप्नोति सर्वान् मन्त्रान, ज्ञानेन पश्यति संसार पारं वा।
ॠषु + इगुपधात् कित्[2] इति उणादिसूत्रेण इन् किञ्च्।

  • इस व्युत्पत्ति का संकेत वायुपुराण[3], मत्स्यपुराण[4] तथा ब्रह्माण्डपुराण[5] में किया गया है। ब्रह्माण्डपुराण की व्युत्पत्ति इस प्रकार है-

गत्यर्थादृषतेर्धातोर्नाम निवृत्तिरादित:।
यस्मादेव स्वयंभूतस्तस्माच्चाप्यृषिता स्मृता॥

  • वायुपुराण[6] में ऋषि शब्द के अनेक अर्थ बताए गए हैं-

ऋषित्येव गतौ धातु: श्रुतौ सत्ये तपस्यथ्।
एतत् संनियतस्तस्मिन् ब्रह्ममणा स ऋषि स्मृत:॥

इस श्लोक के अनुसार 'ऋषि' धातु के चार अर्थ होते हैं- गति, श्रुति, सत्य तथा तपस। ब्रह्माजी द्वारा जिस व्यक्ति में ये चारों वस्तुएँ नियत कर दी जायें, वही 'ऋषि' होता है। वायु पुराण का यही श्लोक मत्स्य पुराण[7] में किंचित पाठभेद से उपलब्ध होता है। दुर्गाचार्य की निरुक्ति है- ऋषिर्दर्शनात्।[8] इस निरुक्त से ऋषि का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है- दर्शन करने वाला, तत्त्वों की साक्षात अपरोक्ष अनुभूति रखने वाला विशिष्ट पुरुष। 'साक्षात्कृतधर्माण ॠषयो बभूअ:'- यास्क का यह कथन इस निरुक्ति का प्रतिफलितार्थ है। दुर्गाचार्य का कथन है कि किसी मन्त्र विशेष की सहायता से किये जाने पर किसी कर्म से किस प्रकार का फल परिणत होता है, ऋषि को इस तथ्य का पूर्ण ज्ञान होता है। तैत्तिरीय आरण्यक के अनुसार इस शब्द (ऋषि) की व्याख्या इस प्रकार है- 'सृष्टि के आरम्भ में तपस्या करने वाले अयोनिसंभव व्यक्तियों के पास स्वयंभू ब्रह्म (वेदब्रह्म) स्वयं प्राप्त हो गया। वेद का इस स्वत: प्राप्ति के कारण, स्वयमेव आविर्भाव होने के कारण ही ऋषि का 'ऋषित्व' है। इस व्याख्या में ऋषि शब्द की निरुक्ति 'तुदादिगण ऋष गतौ' धातु से मानी गयी है। अपौरुषेय वेद ऋषियों के ही माध्यम से विश्व में आविर्भूत हुआ और ऋषियों ने वेद के वर्णमय विग्रह को अपने दिव्य श्रोत्र से श्रवण किया, इसीलिए वेद को 'श्रुति' भी कहा गया है। आदि ऋषियों की वाणी के पीछे अर्थ दौड़ता-फिरता है। ऋषि अर्थ के पीछे कभी नहीं दौड़ते 'ॠषीणां पुनराद्यानां वाचमर्थोऽनुधावति:' (उत्तर रामचरित, प्रथम अंग)। निष्कर्ष यह है कि तपस्या से पवित्र 'अंतर्ज्योति सम्पन्न मन्त्रद्रष्टा व्यक्तियों की ही संज्ञा ऋषि है।

प्रकार

वेद, ज्ञान का प्रथम प्रवक्ता; परोक्षदर्शी, दिव्य दृष्टि वाला। जो ज्ञान के द्वारा मंत्रों को अथवा संसार की चरम सीमा को देखता है, वह ऋषि कहलाता है। उसके सात प्रकार हैं-

  1. व्यास आदि महर्षि
  2. भेल आदि परमर्षि
  3. कण्व आदि देवर्षि
  4. वसिष्ठ आदि ब्रह्मर्षि
  5. सुश्रुत आदि श्रुतर्षि
  6. ऋतुपर्ण आदि राजर्षि
  7. जैमिनि आदि काण्डर्षि
  • रत्नकोष में भी कहा गया है-

सप्त ब्रह्मर्षि-देवर्षि-महर्षि-परमर्षय:।
काण्डर्षिश्च श्रुतर्षिश्च राजर्षिश्च क्रमावरा:।।

अर्थात- ब्रह्मर्षि, देवर्षि, महर्षि, परमर्षि, काण्डर्षि, श्रुतर्षि, राजर्षि ये सातों क्रम से अवर हैं।

सामान्यत: वेदों की ऋचाओं का साक्षात्कार करने वाले लोग ऋषि कहे जाते थे। ऋग्वेद में प्राय: पूर्ववर्ती गायकों एवं समकालीन ऋषियों का उल्लेख है। प्राचीन रचनाओं को उत्तराधिकार में प्राप्त किया जाता था एवं ऋषि परिवारों द्वारा उनको नया रूप दिया जाता था। ब्राह्मणों के समय तक ऋचाओं की रचना होती रही। ऋषि, ब्राह्मणों में सबसे उच्च एवं आदरणीय थे तथा उनकी कुशलता की तुलना प्राय: त्वष्टा से की गई है, जो स्वर्ग से उतरे माने जाते थे। नि:संदेह ऋषि वैदिककालीन कुलों, राजसभाओं तथा सम्भ्रांत लोगों से सम्बन्धित होते थे। कुछ राजकुमार भी समय-समय पर ऋचाओं की रचना करते थे, उन्हें राजन्यर्षि कहते थे। आजकल उसका शुद्ध रूप राजर्षि है। साधारणत: मंत्र या काव्यरचना ब्राह्मणों का ही कार्य था। मंत्र रचना के क्षेत्र में कुछ महिलाओं ने भी ऋषिपद प्राप्त किया था।


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. सिद्धान्त कौमुदी सूत्र-संख्या-1827 के अनुसार
  2. 4/119
  3. वायुपुराण, 7/75
  4. मत्स्यपुराण, 145/83
  5. ब्रह्माण्डपुराण, 1/32/87
  6. वायुपुराण 59/79
  7. अध्याय 145, श्लोक 81
  8. निरुक्त 2/11

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