बलि | एक बहुविकल्पी शब्द है अन्य अर्थों के लिए देखें:- बलि (बहुविकल्पी) |
बलि
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कुल | दैत्यकुल |
पिता | विरोचन |
माता | सुरोचना |
गुरु | शुक्राचार्य |
निवास | सुतल (पाताल) |
यशकीर्ति | बलि धर्मात्मा और ब्राह्मण भक्त था। भगवान विष्णु ने वामन अवतार लेकर बलि से तीन पग भूमि माँगी। गुरु शुक्राचार्य से यह जान लेने पर भी कि स्वयं विष्णु वामन रूप में आये हैं, बलि ने तीन पग भूमि देना स्वीकार कर लिया। |
संबंधित लेख | भगवान विष्णु, इन्द्र |
अन्य जानकारी | जब दुर्वासा ऋषि के शाप से इन्द्र की श्री नष्ट हो गयी, तब दैत्य. दानवों की सेना लेकर बलि ने देवताओं पर चढ़ाई की और स्वर्ग पर पूरा अधिकार कर लिया। |
भक्त श्रेष्ठ प्रह्लाद के पुत्र विरोचन की पत्नी सुरोचना से दैत्यकुल की कीर्ति को अमर करने वाले उदारमना बलि का जन्म हुआ था। विरोचन के पश्चात ये ही दैत्येश्वर हुए। जब दुर्वासा ऋषि के शाप से इन्द्र की श्री नष्ट हो गयी, तब दैत्य. दानवों की सेना लेकर बलि ने देवताओं पर चढ़ाई की और स्वर्ग पर पूरा अधिकार कर लिया। देवता पराजित होकर ब्रह्मा जी के पास गये। ब्रह्मा जी ने भगवान की स्तुति की। वे प्रभु प्रकट हुए और उन्होंने क्षीरसिन्धु के मन्थन का आदेश दिया। भगवान विष्णु की सम्मति से इन्द्र ने बलि से सन्धि कर ली। अमृत की प्राप्ति के लिये देवता एवं दैत्य दोनों ने मिलकर समुद्र का मन्थन किया, परंतु सफलता तो सदा श्रीहरि के चरणों में ही रहती है। भगवान का आश्रय लेने के कारण देवताओं को अमृत मिला और भगवान से विमुख दैत्य उससे वंचित ही रह गये।
विषय सूची
देवताओं से युद्ध
भगवान ने मोहिनी रूप धारण करके क्षीरसमुद्र से निकले अमृत-कलश को, जिसे दैत्यों ने छीन लिया था, ले लिया और युक्तिपूर्वक देवताओं को अमृत पिला दिया। इस भेद के प्रकट होने पर दैत्य बहुत ही क्रुद्ध हुए। देवताओं एवं दैत्यों में बड़ा भयंकर युद्ध छिड़ गया। भगवान की कृपा देवताओं पर थी, अत: उनको विजयी होना ही था। दैत्य पराजित हुए। बहुत से मारे गये। स्वयं दैत्यराज बलि युद्धभूमि में वज्र द्वारा मारे गये थे। बचे हुए दैत्यों ने बलि तथा दूसरे सभी अपने पक्ष के सैनिकों के मृत या घायल शरीरों को उठा लिया और वे उन्हें अस्ताचल पर्वत पर ले गये। वहाँ दैत्यगुरु शुक्राचार्य जी ने अपनी संजीवनी विद्या से सभी मृत दैत्यों को जीवित कर दिया।
अश्वमेध यज्ञ आयोजन
बलि पहले से ही ब्राह्मणों के परम भक्त थे। अब तो आचार्य शुक्र ने उन्हें जीवन ही दिया था। वे सब प्रकार से गुरु एवं विप्रों की सेवा में लग गये। उनकी निश्छल सेवा से आचार्य बड़े ही प्रसन्न हुए। शुक्राचार्य जी ने बलि से यज्ञ कराना प्रारम्भ किया। उस विश्वजित यज्ञ के सम्पूर्ण होने पर सन्तुष्ट हुए अग्नि देव ने प्रकट होकर बलि को घोड़ों से जुता रथ, दिव्य धनुष, अक्षय त्रोण एवं अभेद्य कवच प्रदान किये। आचार्य की आज्ञा से उनको प्रणाम करके बलि उस रथ पर सवार हुए और उन्होंने स्वर्ग पर चढाई कर दी। इस बार उनका तेज असह्य था। देवगुरु बृहस्पति के आदेश से देवता बिना युद्ध किये ही स्वर्ग छोड़कर भाग गये। बलि अमरावती को अधिकार में करके त्रिलोकी के अधिपति हो गये। आचार्य शुक्र ने उनसे अश्वमेध यज्ञ कराना प्रारम्भ किया। बिना सौ अश्वमेध यज्ञ किये कोई इन्द्र नहीं बन सकता, आचार्य शुक्र सौ अश्वमेध कराके बलि को नियमित इन्द्र बना देना चाहते थे।
विष्णु का वामन अवतार
देवमाता अदिति को बड़ा दु:ख हुआ कि मेरे पुत्रों को स्वर्ग छोड़कर इधर-उधर पर्वतों की गुफ़ाओं में छिपते हुए बड़े कष्ट से दिन बिताने पड़ते हैं। वे महासती अपने पति महर्षि कश्यप की शरण में गयीं और महर्षि के आदेशानुसार उन्होंने भगवान की आराधना की। भगवान ने दर्शन देकर देवमाता को बताया- "माता! जिस पर देवता तथा ब्राह्मण प्रसन्न हों, जो धर्म पर स्थिर हो, उसके विरुद्ध बल प्रयोग सफल नहीं होता। वहाँ तो विरोध करके कष्ट ही मिलता है। बलि धर्मात्मा और ब्राह्मणों के परम भक्त हैं। मैं भी उनका तिरस्कार नहीं कर सकता, किंतु मेरी आराधना कभी व्यर्थ नहीं जाती। आपकी इच्छा किसी प्रकार अवश्य पूरी करूँगा। भगवान वामन रूप से देवमाता अदिति के यहाँ पुत्र बनकर प्रकट हुए। महर्षि कश्यप ने ऋषियों के साथ उन वामन जी का यज्ञोपवीत संस्कार कराया। वहाँ से भगवान बलि की यज्ञशाला की ओर चले। नर्मदा के उत्तर तट पर शुक्राचार्य की अध्यक्षता में बलि का सौवां अश्वमेध यक्ष चल रहा था। निन्यानबे अश्वमेध वे पूरे कर चुके थे। सब ने देखा कि सूर्य के समान तेजस्वी, वामनरूप के एक ब्रह्मचारी छत्ता, पलाशदण्ड़ तथा कमण्ड़लु लिये यज्ञशाला में पदार्पण कर रहे हैं। शरीर के अनुरूप बड़े ही सुन्दर छोटे-छोट सुकुमार अंग वाले भगवान को देखकर सभी लोग खड़े हो गये। बलि ने वामन ब्रह्मचारी, रूपधारी भगवान को सिंहासन पर बैठाकर उनके चरण धोये। वह पवित्र चरणोदक मस्तक पर चढ़ाया। भली-भाँति पूजन करके बलि ने कहा- "ब्रह्मचारी जी आपके आगमन से आज मैं कृतार्थ हो गया। मेरा कुल धन्य हो गया। अब आप जिस लिये पधारे हैं, वह नि:संकोच कहें, क्योंकि मुझे लगता है कि आप किसी उद्देश्य से ही यहाँ आये हैं।"
भगवान ने बलि की प्रशंसा की। उनके कुल की शूरता, दानशीलता की प्रशंसा की और तब तीन पग भूमि मांगी। बलि को हंसी आ गयी। उन्होंने अधिक भूमि मांग लेने को भगवान से आग्रह किया। भगवान ने कहा- "राजन! तृष्णा की तृप्ति तो कभी होती नहीं। मनुष्य को अपने प्रयोजन से अधिक की इच्छा नहीं करनी चाहिए अन्यथा उसे कभी शान्ति नहीं मिलेगी। जिसकी भूमि में कोई तप, जप आदि किया जाता है, उस भूस्वामी को भी उसका भाग मिलता है, अत: मैं तीन पग भूमि अपने लिये चाहता हूँ। मुझे इससे अधिक नहीं चाहिए।"
शुक्राचार्य द्वारा शाप
बलि जब भूमिदान का संकल्प देने लगे, तब आचार्य शुक्र ने उन्हें रोका। शुक्राचार्य ने बताया कि ये ब्रह्मचारी रूप में साक्षात विष्णु हैं और त्रिलोकी नाप लेने आये हैं। आचार्य ने यह भी कहा कि- "तीनों लोक इनके दो पग में आ जायंगे। तीसरे पग को स्थान नहीं रहने से दान का संकल्प पूरा न होगा और उसके फलस्वरूप तुम्हें नरक भी मिल सकता है। परंतु बलि ने सोचकर आचार्य से कह दिया कि- "मुझे ऐश्वर्य के नाश या नरक का भय नहीं है। मैं दान देने को कहकर अस्वीकार नहीं करूँगा।" शुक्राचार्य ने रुष्ट होकर बलि को शाप दे दिया- "दृष्ट तू मेरी आज्ञा नहीं मानता, अत: तेरा यह ऐश्वर्य नष्ट हो जायगा।"
भूमिदान
आचार्य के शाप से भी बलि ड़रे नहीं। उन्होंने स्थिर चित्त से श्रद्धापूर्वक वामन भगवान को भूमि का दान किया। भूमि-दान का संकल्प हो जाने पर वामन भगवान ने अपना रूप बढ़ाया। वे विराट रूप हो गये। उन्होंने एक पद में समस्त पृथ्वी नाप ली और उनका दूसरा चरण ब्रह्मलोक तक पहुँच गया। आक्रमण के लिये उद्यत दैत्यों को भगवान के पार्षदों ने मारकर भगा दिया। वे सब पाताल चले गये। भगवान की आज्ञा से गरुड़ जी ने बलि को वरुण पाश में बांध लिया। अब भगवान ने कहा- "बलि! तुम्हें अपनी सम्पत्ति का बड़ा गर्व था। मुझे तीन पग भूमि दी थी, किंतु तुम्हारा समस्त राज्य दो पग में तुम्हारे सामने मैंने नाप लिया। अब मेरी एक पद भूमि और दो।" धर्मात्मा सत्यवादी, ब्राह्मण-भक्त बलि राज्य छिन जाने और बन्धन में होने पर भी स्थिर थे। उन्हें तनिक भी दु:ख या क्षोभ नहीं हुआ था। उन्होंने नम्रता से कहा- "भगवान! सम्पत्ति का स्वामी उस सम्पत्ति से बड़ा होता है। आपने दो पद में मेरा राज्य ले लिया, अब एक पद में मेरा शरीर ले लें। तीसरा पद मेरे मस्तक पर रखें। बलि धन्य हो गये।
भगवान ने तीसरा पग बलि के मस्तक पर रख दिया। भगवान ब्रह्मा यह सब देखकर स्वयं आये। यदि धर्मात्मा पुरुष बन्धन में पड़े तो धर्म के आधार पर स्थित विश्व कैसे रहेगा। ब्रह्मा जी ने भगवान से प्रार्थना की- "प्रभो! आपके चरणों में जो श्रद्धापूर्वक एक चुल्लू जल और दूर्वा के कुछ अंकुर चढ़ाता है, वह सभी सम्पूर्ण बन्धनों से सदा के लिये छूट जाता है, फिर जिसने स्थिर चित्त से श्रद्धापूर्वक आपको त्रिलोकी का राज्य दान कर दिया, वह बन्धन में कैसे रह सकता है।"
सुतल के स्वामी
भगवान ने ब्रह्मा जी की ओर देखा और फिर स्नेह से बलि की ओर देखते हुए बोले- "ब्रह्मा जी! धर्म का फल ही है मुझे संतुष्ट करना। मैं प्रह्लाद के इस धर्मात्मा पौत्र की परीक्षा ले रहा था। आप जानते है कि जो अपने आपको मुझे दे देता है, मैं भी अपने को उसे दे देता हूँ। इस बलि ने मुझे जीत लिया है। पुत्र बलि! उठो! अब तुम अपने पितामह प्रह्लाद के साथ सुतल में जाओ। उस सुतल का राज्य करो, जिसके वैभव की तुलना में स्वर्ग किसी गणना में नहीं है। मैं स्वयं अब बराबर गदा लिये वहाँ सदा, सर्वदा तुम्हारे द्वार पर उपस्थित रहूँगा। जो भी दैत्य, दानव तुम्हारी आज्ञा नहीं मानेंगे, उन्हें मेरा चक्र दण्ड देगा। तुम्हें नित्य मेरे दर्शन होंगे। पुत्र! तुम्हें इन्द्र ही तो होना था। मैं स्वयं तुम्हें अगले सावर्णि मन्वन्तर में इन्द्र पद पर बैठाऊंगा।" बलि के नेत्रों से अश्रु का प्रवाह चलने लगा। वे बोलने में असमर्थ हो गये। ये करुणामय प्रभु इतनी तुच्छ सेवा से द्रवित हो गये। वे सम्पूर्ण भुवनों के स्वामी अब दैत्यों के द्वार पर द्वाररक्षक बनेंगे। बलि ने भगवान के चरणों पर मस्तक रख दिया। भगवान की आज्ञा से शुक्राचार्य ने वह यज्ञ पूर्ण कराया। बलि अब सुतल में भगवान वामन के द्वारा सुरक्षित विराजते हैं।
"किमात्मनानेन जहाति योऽन्तत:
किं रिक्थहारै: स्वजनाख्यदस्युभि:।
किं जायया संसृतिहेतुभूतया
मर्त्यस्य गेहै: किमिहायुषो व्यय:॥[1]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ श्रीमद्भागवत 8 22 9
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