उत्तरा

संक्षिप्त परिचय
उत्तरा
उत्तरा तथा अभिमन्यु
पिता विराट
माता सुदेष्णा
समय-काल महाभारत काल
परिजन विराट, सुदेष्णा और उत्तर
गुरु बृहन्नला[1]
विवाह अभिमन्यु
संतान परीक्षित
विद्या पारंगत नृत्य तथा संगीत
महाजनपद विराट नगर
संबंधित लेख महाभारत, अभिमन्यु, अर्जुन, विराट, सुदेष्णा, उत्तर, परीक्षित
अन्य जानकारी द्रोण पुत्र अश्वत्थामा के ब्रह्मास्त्र प्रहार से उत्तरा ने मृत शिशु को जन्म दिया, किंतु भगवान श्रीकृष्ण ने उस बालक को पुर्नजीवन दिया। यही बालक आगे चलकर राजा परीक्षित नाम से प्रसिद्ध हुआ।

उत्तरा विराट नगर, जो कि महाभारत काल का एक प्रसिद्ध जनपद था, के राजा विराट और उनकी रानी सुदेष्णा की कन्या थी। उसका विवाह पांडव अर्जुन के पुत्र अभिमन्यु से हुआ था। जब पांडव अज्ञातवास कर रहे थे, उस समय अर्जुन बृहन्नला नाम ग्रहण करके विराट के महल में रह रहे थे। बृहन्नला ने उत्तरा को नृत्य, संगीत आदि की शिक्षा दी थी। जब कौरवों ने राजा विराट की समस्त गायें हस्तगत कर लीं, उस समय अर्जुन ने कौरवों से युद्ध करके अर्पूव पराक्रम दिखाया था। अर्जुन की उस वीरता से प्रभावित होकर राजा विराट ने अपनी कन्या उत्तरा का विवाह अर्जुन से करने का प्रस्ताव रखा, किन्तु अर्जुन ने यह कहकर कि उत्तरा उनकी शिष्या होने के कारण उनकी पुत्री के समान है, उन्होंने इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया। किंतु अर्जुन ने अपने पुत्र अभिमन्यु से उत्तरा विवाह स्वीकार कर लिया।

परिचय

उत्तरा मत्स्य-महीप विराट और रानी सुदेष्णा की पुत्री थी। इसके भाई का नाम उत्तर था। कौरवों द्वारा द्यूत क्रीड़ा में हरा दिये जाने के बाद पांडवों ने बारह वर्ष का अज्ञातवास स्वीकार किया। इसी दौरान अर्जुन ने बृहन्नला नाम रखकर स्वयं को नृत्य, गीत और संगीत आदि का कुशल हिजड़ा बतलाया। वह राजा विराट के रनिवास में राजकुमारी उत्तरा को नाचना-गाना आदि सिखाने के लिए रख लिये गये। रनिवास में भर्ती करने से पहले विराट की आज्ञा पाकर स्त्रियों ने हर तरह से परीक्षा करके उन्हें हिजड़ा ही पाया। वहाँ अर्जुन राजकुमारी उत्तरा को नाचने-गाने की शिक्षा बड़े अच्छे ढंग से देने लगे। उनके व्यवहार से राजकुमारी उन पर संतुष्ट रहती थी।

विवाह

जब महाराज विराट ने यह सुना कि उनके पुत्र उत्तर ने समस्त कौरव पक्ष के योद्धाओं को पराजित करके अपनी गायों को लौटा लिया है, तब वे आनन्दातिरेक में अपने पुत्र की प्रशंसा करने लगे। इस पर 'कंक' (युधिष्ठिर) ने कहा- "जिसकी सारथि बृहन्नला (अर्जुन) हो, उसकी विजय तो निश्चित ही है"। महाराज विराट को यह असह्य हो गया कि राज्यसभा में पासा बिछाने के लिये नियुक्त, ब्राह्मण कंक उनके पुत्र के बदले नपुंसक बृहन्नला की प्रशंसा कर रहा है। उन्होंने पासा खींचकर कंक को दे मारा, जिससे कंक की नासिका से रक्त निकलने लगा। सैरन्ध्री बनी हुई द्रौपदी दौड़ी आई और सामने कटोरी रखकर कंक की नासिका से निकलते हुए रक्त को भूमि पर गिरने से बचाया। जब राजा विराट को तीसरे दिन पता लगा कि उन्होंने कंक के वेश में अपने यहाँ निवास कर रहे महाराज युधिष्ठिर का ही अपमान किया है, तब उन्हें अपने-आप पर अत्यन्त खेद हुआ। उन्होंने अनजान में हुए अपराधों के परिमार्जन और पांडवों से स्थायी मैत्री-स्थापना के उद्देश्य से अपनी पुत्री उत्तरा और अर्जुन के विवाह का प्रस्ताव किया। इस पर अर्जुन ने कहा- 'राजन्! मैंने कुमारी उत्तरा को बृहन्नला के रूप में वर्ष भर नृत्य और संगीत की शिक्षा दी है। यदि मैं राजकुमारी को पत्नी रूप में स्वीकार करता हूँ तो लोग मुझ पर और आपकी पुत्री के चरित्र पर संदेह करेंगे और गुरु-शिष्य की परम्परा का अपमान होगा। राजकुमारी मेरे लिये पुत्री के समान है। इसलिये अपने पुत्र अभिमन्यु की पत्नी के रूप में मैं उत्तरा को स्वीकार करता हूँ। भगवान श्रीकृष्ण के भानजे को जामाता के रूप में स्वीकार करना आपके लिये भी गौरव की बात होगी।' सभी ने अर्जुन की धर्मनिष्ठा की प्रशंसा की और उत्तरा का विवाह अभिमन्यु से सम्पन्न हो गया।

  • इस समय राजकुमारियों को अन्य शिक्षा के साथ-साथ नाचने-गाने की भी आवश्यक शिक्षा दी जाती थी। इस शिक्षा से वे अपना मनोरंजन तो कर सकती थीं, साथ ही पारिवारिक मनोविनोद के भी उपयोग में आती थीं। धनी हो चाहे निर्धन, प्रभावशाली हो अथवा साधारण श्रेणी का, समाज का भय सबको रहता था। यह भय न होता तो सम्भवतः उत्तरा का विवाह पांडवों के वंश में न होकर किसी अन्य परिवार में होता। वास्तव में उस समय पांडव लोग संकट सह रहे थे। न तो उनके पास धन-दौलत थी और न ही राज-पाट। उनसे रिश्तेदारी करने में मत्स्य-नरेश का लोकलाज से बचने के अतिरिक्त और कौन-सा हित था? हाँ, पांडवों को अवश्य लाभ हुआ। उन्हें एक प्रबल सहायक मिला और बहुत-सी सम्पत्ति भी प्राप्त हुई।

अभिमन्यु का वध

जिस समय गुरु द्रोणाचार्य ने महाभारत युद्ध में चक्रव्यूह की रचना की, तब अभिमन्यु चक्रव्यूह तोड़ने के लिए जाने से पूर्व अपनी पत्नी उत्तरा से विदा लेने गया था। उस समय उत्तरा ने अभिमन्यु से प्रार्थना की-

'हे उत्तरा के धन रहो
तुम उत्तरा के पास ही।'[2]

चक्रव्यूह में प्रवेश

युद्ध में पांडवों की सेना अभिमन्यु के पीछे-पीछे चली और जहाँ से व्यूह तोड़कर अभिमन्यु अंदर घुसा था, वहीं से व्यूह के अंदर प्रवेश करने लगी। यह देख सिंधु देश का पराक्रमी राजा जयद्रथ, जो धृतराष्ट्र का दामाद था, अपनी सेना को लेकर पांडव-सेना पर टूट पड़ा। जयद्रथ के इस साहसपूर्ण काम और सूझ को देखकर कौरव सेना में उत्साह की लहर दौड़ गई। कौरव सेना के सभी वीर उसी जगह इकट्ठे होने लगे, जहाँ जयद्रथ पांडव-सेना का रास्ता रोके हुए खड़ा था। शीघ्र ही टूटे मोरचों की दरारें भर गई। जयद्रथ के रथ पर चांदी का शूकर-ध्वज फहरा रहा था। उसे देख कौरव सेना की शक्ति बहुत बढ़ गई और उसमें नया उत्साह भर गया। व्यूह को भेदकर अभिमन्यु ने जहाँ से रास्ता बनाया था, वहाँ इतने सैनिक आकर इकट्ठे हो गये कि व्यूह फिर पहले जैसा ही मज़बूत हो गया।

जयद्रथ की वीरता

व्यूह के द्वार पर एक तरफ युधिष्ठिर, भीमसेन और दूसरी ओर जयद्रथ युद्ध छिड़ गया। युधिष्ठिर ने जो भाला फेंककर मारा तो जयद्रथ का धनुष कटकर गिर गया। पलक झपकते ही जयद्रथ ने दूसरा धनुष उठा लिया और दस बाण युधिष्ठिर पर छोड़े। भीमसेन ने बाणों की बौछार से जयद्रथ का धनुष काट दिया। रथ की ध्वजा और छतरी को तोड़-फोड़ दिया और रणभूमि में गिरा दिया। उस पर भी सिंधुराज नहीं घबराया। उसने फिर एक दूसरा धनुष ले लिया और बाणों से भीमसेन का धनुष काट डाला। पलभर में ही भीमसेन के रथ के घोड़े ढेर हो गये। भीमसेन को लाचार हो रथ से उतरकर सात्यकि के रथ पर चढ़ना पड़ा। जयद्रथ ने जिस कुशलता और बहादुरी से ठीक समय पर व्यूह की टूटी क़िलेबंदी को फिर से पूरा करके मज़बूत बना दिया, उससे पाडंव बाहर ही रह गये। अभिमन्यु व्यूह के अंदर अकेला रह गया। पर अकेले अभिमन्यु ने व्यूह के अंदर ही कौरवों की उस विशाल सेना को तहस-नहस करना शुरू कर दिया। जो भी उसके सामने आता, ख़त्म हो जाता था।

अभिमन्यु की वारगति

दुर्योधन का पुत्र लक्ष्मण अभी बालक था, किंतु उसमें वीरता की आभा फूट रही थी। उसको भय छू तक नहीं पाया था। अभिमन्यु की बाण वर्षा से व्याकुल होकर जब सभी योद्धा पीछे हटने लगे तो वीर लक्ष्मण अकेला जाकर अभिमन्यु से भिड़ पड़ा। बालक की इस निर्भयता को देख भागती हुई कौरव सेना फिर से इकट्ठी हो गई और लक्ष्मण का साथ देकर लड़ने लगी। सबने एक साथ ही अभिमन्यु पर बाण वर्षा कर दी, किंतु वह अभिमन्यु पर इस प्रकार लगी जैसे पर्वत पर मेह बरसता हो। दुर्योधन पुत्र अपने अदभुत पराक्रम का परिचय देता हुआ वीरता से युद्ध करता रहा। अंत में अभिमन्यु ने उस पर एक भाला चलाया। केंचुली से निकले साँप की तरह चमकता हुआ वह भाला वीर लक्ष्मण के बड़े ज़ोर से जा लगा। सुंदर नासिका और सुंदर भौंहो वाला, चमकीले घुंघराले केश और जगमाते कुण्डलों से विभूषित वह वीर बालक भाले की चोट से तत्काल मृत होकर गिर पड़ा। यह देख कौरव सेना में हाहाकार कर उठी। "पापी अभिमन्यु का क्षण वध करो।" दुर्योधन ने चिल्लाकर कहा और द्रोण, अश्वत्थामा, वृहदबल, कृतवर्मा आदि छह महारथियों ने अभिमन्यु को चारों ओर से घेर लिया। द्रोण ने कर्ण के पास आकर कहा- "इसका कवच भेदा नहीं जा सकता। ठीक से निशाना बाँधकर इसके रथ के घोड़ों की रास काट डालो और पीछे की ओर से इस पर अस्त्र चलाओ।" व्यूह के अंतिम चरण में कौरव पक्ष के सभी महारथी युद्ध के मानदंडों को भुलाकर वीर बालक अभिमन्यु पर टूट पड़े, जिस कारण उसने वीरगति प्राप्त की। उत्तरा उस समय गर्भवती थी। श्रीकृष्‍णचन्‍द्र ने उसे आश्‍वासन देकर पति के साथ सती होने से रोक लिया।

परीक्षित जन्म

महाभारत के संग्राम में अर्जुन संसप्तकों से युद्ध करने के लिये दूर चले गये थे और द्रोणाचार्य ने इसी स्थिति का लाभ उठाने के लिए उनकी अनुपस्थिति में चक्रव्यूह का निर्माण किया था। भगवान शंकर के वरदान से जयद्रथ ने सभी पांडवों को चक्रव्यूह में प्रवेश करने से रोक दिया। अकेले अभिमुन्यु ही व्यूह में प्रवेश कर पाये। महावीर अभिमन्यु ने अद्भुत पराक्रम का प्रदर्शन किया था। उन्होंने कौरव पक्ष के प्रमुख महारथियों को बार-बार हराया। अन्त में सभी महारथियों ने एक साथ मिलकर अन्यायपूर्वक अभिमन्यु का वध कर दिया। उत्तरा उस समय गर्भवती थीं। भगवान् श्रीकृष्ण ने उन्हें आश्वासन देकर पति के साथ सती होने से रोक दिया। जब अश्वत्थामा ने द्रौपदी के पाँच पुत्रों को मार डाला तथा शिविर में आग लगाकर भाग गया, तब अर्जुन ने उसको पकड़ कर द्रौपदी के सम्मुख उपस्थित किया। वध्य होने के बाद भी द्रौपदी ने उसे मुक्त करा दिया, किंतु उस नराधम ने कृतज्ञ होने के बदले पांडवों का वंश ही निर्मूल करने के लिये ब्रह्मास्त्र का प्रयोग उत्तरा के गर्भ पर किया।

अश्वत्थामा द्वारा ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किये जाने पर उत्तरा ने भगवान श्रीकृष्णचंद्र का ध्यान किया। ‘हे देवदेव! हे त्रिभुवन के स्‍वामी! हे शरणागतवत्‍सल! मेरी रक्षा करो। यह प्रज्‍वलित बाण मेरी ओर आ रहा है। भले ही यह मेरा विनाश कर दे, किंतु मेरे उदर में मेरे स्‍वामी की जो एकमात्र धरोहर है, वह सुरक्षित रहे।’ पांडवों से विदा लेकर श्रीकृष्‍णचन्‍द्र द्वारका जाने के लिये रथ पर बैठने ही जा रहे थे कि अन्‍त:पुर से कातर चीत्‍कार करती भयविह्वला उत्तरा उनके पैरों पर आ गिरी। उसके वस्‍त्र अस्‍त-व्‍यस्‍त हो गये थे। केश खुल हुए थे और नेत्र कातर हो रहे थे। इसी समय पांडवों ने देखा कि उनकी ओर भी पांच प्रज्‍वलित बाण आ रहे हैं। "मत डरो!" यह कहकर चक्रपाणि ने चक्र उठाया और पांडवों की ओर आते हुए बाणों को शान्‍त कर दिया। सूक्ष्‍म रूप से उत्तरा के गर्भ में प्रविष्‍ट होकर उन्‍होंने शिशु की रक्षा की। अश्वत्थामा ने जब द्रौपदी के पांचों पुत्रों को मार डाला तथा शिविर में अग्नि लगाकर वह भाग गया, तब प्रात: अर्जुन उसे पकड़ लाये। यद्यपि वह वध्‍य था, किंतु पांचाली ने उसे मुक्‍त करा‍ दिया। उसकी शिर:स्‍थ मणि छीनकर अर्जुन ने उसे निकाल दिया।

कृतज्ञ होने के बदले अश्वत्थामा ने अपमान का अनुभव किया। उसने पांडु के वंश का ही उन्‍मूलन करने का संकल्‍प करके वह ब्रह्मास्‍त्र प्रयुक्‍त किया था। जब तक उत्तरा को बालक न हो जाय, तब तक के लिये श्रीकृष्ण का द्वारका जाना स्‍थगित हो गया। सींक पर इषीकास्‍त्रसंयुक्‍त ब्रह्मास्‍त्र का अश्‍वत्‍थामा ने प्रयोग किया था। गर्भ में श्रीकृष्‍ण ने शिशु के चारों ओर गदा घुमाते हुए अस्‍त्र के प्रभाव को दूर रखा, किंतु उत्‍पन्‍न होते ही बालक अस्‍त्र प्रभाव से जीवनहीन-सा हो गया। यह समाचार पाकर जनार्दन सूतिकागृह की ओर चले। उन्‍होंने अश्‍वत्‍थामा को डांटकर कहा था- "ब्रह्मास्‍त्र! यदि तेरे ब्रह्मास्‍त्र से अभिमन्यु का पुत्र मर भी गया तो मैं उसे पुनर्जीवन दूँगा।" उन्‍हें अपनी प्रतिज्ञा पूर्ण करनी थी। मार्ग में ही कुंती देवी मिलीं। उन्‍होंने बड़े कातर स्‍वरों में उस बालक को जीवित करने के लिये प्रार्थना की। पैरों में पड़कर उसी समय सुभद्रा ने कहा- "मुझे बहन समझकर, पुत्रहीना समझकर या एक अनाथ अबला ही समझकर मेरी रक्षा करो। तुम सब कर सकते हो। मेरे पौत्र को जीवन दान दो।"

"ये तुम्‍हारे श्‍वसुरतुल्‍य श्रीद्वारकेश पधार रहे हैं।" द्रौपदी ने उत्तरा को सूचना दी। वह उसी दुखिया की सेवा में लगी थी। सूतिकागृह श्‍वेत पुष्‍पों की मालाओं से भली-भाँति सुसज्जित था। तीक्ष्‍ण शस्‍त्र चारों ओर लटक रहे थे। तिन्‍दुक (तेंदू) काष्‍ठ की प्रज्‍वलित अग्नि में घृत की आहुतियां पड़ रही थीं। चारों कोनों में अग्नि प्रज्‍वलित थी। अनेक निपुण चिकित्‍सक तथा वृद्धा स्त्रियां उपस्थित थीं। रक्षोघ्‍न द्रव्‍य भली-भाँति यथास्‍थान रखे थे। उत्तरा ने वस्‍त्र से अपने सारे अंगों को ढककर भूमि पर मस्‍तक रखकर श्रीकृष्‍ण को प्रणाम किया। वह रोती हुई कहने लगी- "मेरे पतिदेव ने मुझे यही एक थाती दी थी। इसे खोकर मैं अब क्‍या मुख उन्‍हें दिखाऊँगी। वे कहा करते थे कि यह बालक द्वारका में जाकर शस्‍त्र शिक्षा प्राप्‍त करेगा। वे कभी झूठ नहीं बोले थे। हाय, उनकी अन्तिम बात झूठी हो रही है। यही एकमात्र पांडवों के वंश में बचा था। अब कौन पूर्वजों को पिण्‍ड देगा। इसके बिना मैं, आपकी बहिन, माता कुन्‍ती तथा कोई भी जीवन-धारण नहीं करेगा। पार्थ का पौत्र मरा हुआ उत्‍पन्‍न हुआ, इसे सुनकर धर्मराज मुझे क्‍या कहेंगे? मेरे श्‍वसुर ही मुझे क्‍या कहेंगे? आपका अपने भानजे पर अत्‍यन्‍त प्रेम था। उन्‍हीं का यह पुत्र निर्दयता से ब्रह्मास्‍त्र द्वारा मार डाला गया है। मैं आपसे इसकी भिक्षा मांगती हूँ।"

पगली की भाँति उत्तरा ने मृत बालक को गोद में उठा लिया और कहने लगी- "बेटा! यह त्रिभुवन के स्‍वामी तेरे सम्‍मुख खड़े हैं। तू धर्मात्‍मा तथा शीलवान पिता का पुत्र है। यह अशिष्‍टता अच्‍छी नहीं। इन सर्वेश्‍वर को प्रणाम कर। इनके मंगलमय मुखारविन्‍द का दर्शन करके अपने नेत्रों को सार्थक कर। मैंने सोचा था कि तुझे गोद में लेकर इन उत्‍पत्ति-पालन-प्रलय-समर्थ सर्वाधार के श्रीचरणों पर मस्‍तक रखूँगी। मेरी सारी आशाऍं नष्‍ट हो गयीं।" श्रीकृष्‍ण ने पवित्र जल लेकर आचमन किया और ब्रह्मास्‍त्र को शमित कर दिया। इतना करके वे बोले- "यदि धर्म और ब्राह्मणों में मेरा सच्‍चा प्रेम हो तो यह बालक जीवित हो जाय। यदि मुझ में सत्‍य और धर्म की निरन्‍तर स्थिति रहती हो तो अभिमन्‍यु का यह बालक जीवनलाभ करे। यदि मैंने राग-द्वेषरहित बुद्धि से केशी और कंस को मारकर धर्म किया हो तो यह ब्रह्मास्‍त्र से मृत शिशु अभी जी उठे।" सहसा बालक का श्‍वास चलने लगा। उसने नेत्र खोल दिये। चारों ओर आनन्‍द की लहर दौड़ गयी। पांडवों का वंशधर यही शिशु परीक्षित था। भगवान विष्णु के द्वारा रक्षित होने के कारण उसका नाम ‘विष्‍णुरात’ भी पड़ा।


टीका टिप्पणी

  1. अर्जुन, नृत्य व संगीत गुरु
  2. जयद्रथ वध: मैथिलीशरण गुप्त, तृतीय सर्ग

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