भगवान शेषनाग


संक्षिप्त परिचय
भगवान शेषनाग
भगवान शेष
विवरण 'भगवान शेष' साक्षात नारायण के स्वरूप हैं एवं उनके लिए शैय्या रूप हो उन्हें धारण करते हैं।
अन्य नाम नागराज अनन्त
विशेष गन्‍धर्व, अप्‍सरा, सिद्ध, किन्‍नर, नाग आदि कोई भी इनके गुणों की थाह नहीं लगा सकते, इसी से इन्‍हें 'अनन्‍त' कहते हैं।
संबंधित लेख भगवान विष्णु
अन्य जानकारी ये अपने सहस्‍त्र मुखों के द्वारा निरन्‍तर भगवान का गुणानुवाद करते रहते हैं और अनादि काल से यों करते रहने पर भी अघाते या ऊबते नहीं।

भगवान शेषनाग की सर्पवत्‌ आकृतिविशेष होती है। सारी सृष्टि के विनाश के पश्चात भी ये बचे रहते हैं, इसीलिए इनका नाम 'शेष' है। सर्पाकार होने से इनके नाम से 'नाग' विशेषण जुड़ा हुआ है। शेषनाग स्वर्ण पर्वत पर रहते हैं। इनके हज़ार मस्तक हैं।

  • शेषनाग नागराज अनन्त का ही एक अन्य नाम है। ये साक्षात नारायण का स्वरूप हैं एवं उनके लिए शैय्या रूप होकर उन्हें धारण करते हैं।[1][2]
  • इन्होंने मंदराचल पर्वत को उखाड़ा था। नागों में सर्वप्रथम इन्हीं की उत्पत्ति हुई थी।
  • नागों में परस्पर विद्वेष से खिन्न होकर इन्होंने पुष्कर आदि पुण्य क्षेत्रों में तपस्या की थी।
  • धर्म में अटल श्रद्धा बनी रहने के निमित्त इन्होंने ब्रह्मा से वर माँगा था।
  • त्रिपुर दाह के समय शेष भगवान शिव के रथ के अक्ष बने थे।
  • शास्‍त्रों में भगवान के पंचविध स्‍वरूप माने गये हैं। इनमें एक रूप ‘व्‍यूह’ के नाम से परिचित है। यह रूप सृष्टि, पालन और सं‍हार करने के लिये, संसारीजनों को संरक्षण करने के लिये और उपासकों पर अनुग्रह करने के लिये ग्रहण किया जाता है।
  • वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्‍न और अनिरुद्ध- ये चार व्‍यूह हैं। वास्‍तव में संकर्षणादि तीन व्‍यूह हैं। वासुदेव तो व्‍यूह मण्‍डल में आकर व्‍यूह रूप में केवल गिने जाते हैं। इनमें से संकर्षण जीव तत्त्व के अधिष्‍ठाता हैं। इनमें ज्ञान और बल, इन दो गुणों की प्रधानता है। यही ‘शेष’ अथवा ‘अनन्‍त’ के रूप में पाताल मूल में रहते हैं और प्रलयकाल में इन्‍हीं के मुख में संवर्तक अग्नि प्रकर होकर सारे जगत को भस्‍म कर देती है।
  • ये ही भगवान आदिपुरुष नारायण के पर्यंक-रूप में क्षीरसागर में रहते हैं। ये अपने सहस्‍त्र मुखों के द्वारा निरन्‍तर भगवान विष्णु का गुणानुवाद करते रहते हैं और अनादि काल से यों करते रहने पर भी अघाते या ऊबते नहीं।
  • ये भक्तों के परम सहायक हैं और जीव को भगवान की शरण में ले जाते हैं। इनकी सारे देवता वन्‍दना करते हैं और इनके बल, पराक्रम, प्रभाव और स्‍वरूप को जानने अथवा वर्णन करने की सामर्थ्‍य किसी में भी नहीं है।
  • गन्‍धर्व, अप्‍सरा, सिद्ध, किन्‍नर, नाग आदि कोई भी इनके गुणों की थाह नहीं लगा सकते, इसी से इन्‍हें अनन्‍त कहते हैं।
  • ये पंचविध ज्‍योति: सिद्धान्‍त के प्रवर्तक माने गये हैं। ये सारे विश्‍व के आधारभूत भगवान नारायण के श्रीविग्रह को धारण करने के कारण सब लोकों में पूज्‍य और धन्‍यतम कहे जाते हैं।
  • सारे ब्रह्माण्‍ड को अपने मस्‍तक पर ये धारण किये रहते हैं।
  • भगवान के निवास- शय्या, आसन, पादुका, वस्‍त्र, पादपीठ, तकिया तथा छत्र के रूप में ये शेष अर्थात अंगीभूत होने के कारण शेष कहलाते हैं।
  • त्रेतायुग में श्रीलक्ष्‍मी जी के अवतीर्ण होकर भगवान की लीला में सहायक बनते हैं।
  • ये भगवान के नित्‍य परिकर, नित्‍यमुक्‍त एवं अखण्‍ड ज्ञान-सम्‍पन्‍न माने जाते हैं।








टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. महाभारत आदिपर्व 18.8; 35.2-5; 36-3-5, 17
  2. पौराणिक कोश |लेखक: राणा प्रसाद शर्मा |प्रकाशक: ज्ञानमण्डल लिमिटेड, वाराणसी |संकलन: भारत डिस्कवरी पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 500 |

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