कृष्णलीला

कृष्णलीला भगवान श्रीकृष्ण की जीवन कथा के पारंपरिक मंचन को कहा जाता है। मथुरा में कृष्ण जन्मभूमि परिसर में हर वर्ष जन्माष्टमी के बाद कृष्णलीला का आयोजन किया जाता है। कृष्णलीला भारत के अतिरिक्त कई देशों में भी काफ़ी प्रचलित है। ब्रज में भगवान श्रीकृष्ण से सम्बंधित कई लीलाओं का मंचन व प्रस्तुतीकरण निपुण कलाकारों द्वारा किया जाता है। इन कलाकारों द्वारा कृष्णलीला में किया जाने वाला अभिनय सजीव सा लगता है और किसी का भी मन मोहने में समर्थ होता है। श्रीकृष्ण ने अपने बालकाल से लेकर युवावस्था तक न जाने कितनी ही लीलाएँ कीं। भारत भूमि पर उनके जन्म की लीला भी बहुत आनंद प्रदान करने वाली है। श्रीकृष्ण द्वारा पूतना वध, मृतिका भक्षण, माखन चोरी, कालिय नाग का मर्दन, कुबेर पुत्रों का उद्धार, खेल-खेल में ही कई राक्षसों का वध, इन्द्र का घमण्ड चूर-चूर करना तथा गोवर्धन पर्वत को अपनी कनिष्ठा अंगुली पर उठाना जैसी कई चमत्कारपूर्ण लीलाएँ की गईं।

पूतना वध

पूतना एक राक्षसी थी, जिसे कंस द्वारा बालकृष्ण का वध करने के लिए गोकुल भेजा गया था। गोकुल पहुँच कर वह सीधे नन्दबाबा के महल में गई और शिशु के रूप में सोते हुये कृष्ण को गोद में उठाकर अपना दूध पिलाने लगी। उसकी मनोहरता और सुन्दरता ने यशोदा और रोहिणी को भी मोहित कर लिया, इसलिये उन्होंने बालक को उठाने और दूध पिलाने से नहीं रोका। पूतना के स्तनों में हलाहल विष लगा हुआ था। अन्तर्यामी श्रीकृष्ण सब जान गये और वे क्रोध करके अपने दोनों हाथों से उसका कुच थाम कर उसके प्राण सहित दुग्धपान करने लगे। उनके दुग्धपान से पूतना के मर्म स्थलों में अति पीड़ा होने लगी और उसके प्राण निकलने लगे। वह चीख-चीख कर कहने लगी- “अरे छोड़ दे! छोड़ दे! बस कर! बस कर!” वह बार-बार अपने हाथ पैर पटकने लगी और उसकी आँखें फट गईं। उसका सारा शरीर पसीने में लथपथ होकर व्याकुल हो गया। वह बड़े भयंकर स्वर में चिल्लाने लगीं... और पढ़ें

मृतिका भक्षण

कृष्ण के मुख में देखतीं माता यशोदा

एक दिन बलराम आदि ग्वालबाल श्रीकृष्ण के साथ खेल रहे थे। उन लोगों ने माँ यशोदा के पास आकर कहा- "माँ! कन्हैया ने मिट्टी खायी है। हितैषिणी यशोदाजी ने श्रीकृष्ण का हाथ पकड़ लिया। उस समय श्रीकृष्ण की आँखें डर के मारे नाच रहीं थीं। यशोदा मैया ने डाँटकर कहा- "क्यों रे नटखट! तू बहुत ढीठ हो गया है। तूने अकेले में छिपकर मिट्टी क्यों खायी ? देख तो तेरे दल के तेरे सखा क्या कह रहे हैं। तेरे बड़े भैया बलदाऊ भी तो उन्हीं ओर से गवाही दे रहें हैं।" भगवान श्रीकृष्ण ने कहा- "माँ! मैंने मिट्टी नहीं खायी। ये सब झूठ बक रहें हैं। यदि तुम इन्हीं की बात सच मानती हो तो मेरा मुँह तुम्हारे सामने ही है, तुम अपनी आँखों से देख लो। यशोदाजी ने कहा- "अच्छी बात है। यदि ऐसा है, तो मुँह खोल।" माता के ऐसा कहने पर भगवान श्रीकृष्ण ने अपना मुँह खोल दिया। यशोदाजी ने देखा कि उनके मुँह में चर-अचर सम्पूर्ण जगत विद्यमान है। आकाश, दिशाएँ, पहाड़, द्वीप और समुद्रों के सहित सारी पृथ्वी, बहने वाली वायु, विद्युत, अग्नि, चन्द्रमा और तारों के साथ सम्पूर्ण ज्योतिर्मण्डल, जल, तेज, पवन, वैकारिक अहंकार के कार्य देवता, मन-इन्द्रिय, पंचतन्मात्राएँ और तीनों गुण श्रीकृष्ण के मुख में दीख पड़े... और पढ़ें

माखन चोरी

श्रीकृष्ण माखन की चोरी करते हुए

भगवान श्रीकृष्ण जब चलने लगे तो पहली बार घर से बाहर निकले। ब्रज से बाहर भगवान की मित्र मंडली बन गयी। सुबल, मंगल, सुमंगल, श्रीदामा, तोसन आदि उनके मित्र बन गये थे। सारी मित्रमण्डली मिलकर हर दिन माखन चोरी करने जाते। चोर मंडली के अध्यक्ष स्वयं माखन चोर श्रीकृष्ण थे। सब एक जगह इकट्टा होकर योजना बनाते कि किस गोपी के घर माखन की चोरी करनी है... और पढ़ें

ऊखल बंधन

एक समय की बात है, नन्दरानी यशोदा ने घर की दासियों को तो दूसरे कामों में लगा दिया और स्वयं दही मथने लगीं। उसी समय भगवान श्रीकृष्ण स्तन पीने के लिए दही मथती हुई अपनी माता के पास आये। उन्होंने अपनी माता के हृदय में प्रेम और आनन्द को और भी बढ़ाते हुए दही की मथानी पकड़ ली तथा उन्हें मथने से रोक दिया। श्रीकृष्ण माता यशोदा की गोद में चढ़ गये। इतने में ही दूसरी ओर अँगीठी पर रखे हुए दूध में उफान आया। उसे देखकर यशोदा जी उन्हें अतृप्त ही छोड़कर जल्दी से दूध उतारने के लिए चली गयीं। श्रीकृष्ण ने पास ही पड़े हुए लोढ़े से दही का मटका फोड़फाड़ डाला, बनावटी आँसू आँखों में भर लिये और दूसरे घर में जाकर अकेले में बासी माखन खाने लगे। यशोदा जी औटे हुए दूध को उतारकर फिर मथने के घर में चली आयीं। वहाँ देखती हैं तो दही का मटका टुकड़े-टुकड़े हो गया है। वे समझ गयीं कि सब सब मेरे लाला की ही करतूत है। साथ ही उन्हें वहाँ न देखकर यशोदा माता हँसने लगीं। इधर-उधर ढूंढने पर पता चला कि श्रीकृष्ण एक उलटे हुए ऊखल पर खड़े हैं और छीके पर का माखन ले-लेकर बंदरों को खूब लुटा रहे हैं। उन्हें यह भी डर है कि कहीं मेरी चोरी खुल न जाय, इसलिए चौकन्ने होकर चारों ओर ताकते जाते हैं। यह देखकर यशोदा रानी पीछे से धीरे-धीरे उनके पास जा पहुँची... और पढ़ें

कुबेर पुत्रों का उद्धार

नलकूबर और मणिग्रीव, ये दोनों धनाध्यक्ष कुबेर के लाड़ले लड़के थे और दूसरे इनकी गिनती रुद्र भगवान के अनुचरों में हो गयी थी। इससे उनका घमण्ड बढ़ गया। एक दिन वे दोनों मन्दाकिनी के तट पर कैलाश के रमणीय उपवन में वारुणी मदिरा पीकर मदोन्मत्त हो गये थे। नशे के कारण उनकी आँखें घूम रही थीं। बहुत-सी स्त्रियाँ उनके साथ गा-बजा रहीं थीं और वे पुष्पों से लदे हुए वन में उनके साथ विहार कर रहे थे। उस समय गंगा जी में पाँत-के-पाँत कमल खिले हुए थे। वे स्त्रियों के साथ जल के भीतर घुस गये और जैसे हाथियों का जोड़ा हथिनियों के साथ जलक्रीडा कर रहा हो, वैसे ही वे उन युवतियों के साथ तरह-तरह की क्रीड़ा करने लगे। संयोगवश उधर से परम समर्थ देवर्षि नारद जी आ निकले। उन्होंने उन यक्ष-युवकों को देखा और समझ लिया कि ये इस समय मतवाले हो रहे हैं। देवर्षि नारद को देखकर वस्त्रहीन अप्सराएँ लजा गयीं। शाप के डर से उन्होंने तो अपने-अपने कपड़े झटपट पहन लिये, परन्तु इन यक्षों ने कपड़े नहीं पहने... और पढ़ें

बकासुर वध

मथुरा के राजा कंस ने अनेक प्रयास किए, जिससे श्रीकृष्ण का वध किया जा सके, किन्तु वह अपने प्रयत्नों में सफल नहीं हो पा रहा था। इन्हीं प्रयत्नों के अंतर्गत कंस के एक दैत्य ने श्रीकृष्ण को मारने के लिए एक बगुले का रूप धारण किया। बगुले का रूप धारण करने के ही कारण उसे 'बकासुर' कहा गया। दोपहर के पश्चात् का समय था। श्रीकृष्ण दोपहर का भोजन करने के पश्चात् एक वृक्ष की छाया में आराम कर रहे थे। सामने गऊएँ चर रही थीं। कुछ ग्वाल-बाल यमुना में पानी पीने गए। ग्वाल-बाल जब पानी पीने बैठे तो एक भयानक जंतु को देखकर चीत्कार कर उठे। वह जंतु था तो बगुले के आकार का, किंतु उसका मुख और चोंच बहुत बड़ी थी। ग्वाल-बालों ने ऐसा बगुला कभी नहीं देखा था। ग्वाल-बालों की चीत्कार सुनकर बालकृष्ण उठ पड़े और उसी ओर दौड़ पड़े, जिस ओर से चीत्कार आ रही थी... और पढ़ें

अघासुर वध

अघासुर के मुख में जाते ग्वालबाल

कंस के दैत्यों में अघासुर बड़ा भयानक था। वह वेश बदलने में दक्ष तो था ही, बड़ा शूरवीर और मायावी भी था। कंस ने कृष्ण को हानि पहुँचाने के लिए बकासुर के पश्चात् अघासुर को भेजा। दोपहर के पहले का समय था। गऊएँ चर रहीं थीं। ग्वाल-बाल इधर-उधर घूम रहे थे। बालकृष्ण चरती गायों को बड़े ध्यान से देख रहे थे। बालकृष्ण यह जानकर चकित हो उठे कि उनके ग्वाल बालों में कोई भी नहीं दिखाई पड़ रहा है। गऊएँ रह-रहकर हुंकार रही हैं। बालकृष्ण विस्मित होकर आगे बढ़े। वे ग्वाल-बालों को पुकार-पुकार कर उन्हें खोजने लगे, किंतु न तो उन्हें कोई उत्तर मिला, न ही कोई ग्वाल-बाल दिखाई पड़ा। कृष्ण चिंतित होकर सोचने लगे, आख़िर सब गए तो कहाँ गए? कोई उत्तर क्यों नहीं दे रहा है? श्रीकृष्ण कुछ और आगे बढ़े। उन्होंने आगे जाकर जो कुछ देखा, उससे उनके आश्चर्य की सीमा नहीं रही। एक भयानक अजगर मार्ग में पड़ा हुआ था, जो ज़ोर-ज़ोर से सांसे ले रहा था... और पढ़ें

धेनुकासुर वध

जब कृष्ण तथा बलराम अपने सखाओं के साथ ताड़ के वन में फलों को खाने गये, तब असुर धेनुकासुर ने गधे के रूप में उन पर हमला किया। बलराम ने उसके पैर पकड़कर और घुमाकर पेड़ पर पटक दिया, जिससे प्राण निकल गये। वृंदावन में रहते हुए बलराम और श्रीकृष्ण ने पौगण्ड-अवस्था में अर्थात छठे वर्ष में प्रवेश कर लिया था। बलराम और श्रीकृष्ण के सखाओं में एक प्रधान गोप बालक थे, जिनका नाम था- श्रीदामा। एक दिन उन्होंने बड़े प्रेम से बलराम और श्रीकृष्ण से कहा- "हम लोगों को सर्वदा सुख पहुँचाने वाले बलरामजी। आपके बाहुबल की तो कोई थाह ही नहीं है। हमारे मनमोहन श्रीकृष्ण! दुष्टों को नष्ट कर डालना तो तुम्हारा स्वभाव ही है। यहाँ से थोड़ी ही दूर पर एक बड़ा भारी वन है। उसमें बहुत सारे ताड़ के वृक्ष हैं। वे सदा फलों से लदे रहते हैं। वहाँ धेनुक नाम का दुष्ट दैत्य भी रहता है। उसने उन फलों को खाने पर रोक लगा रखी है। वह दैत्य गधे के रूप में रहता है। है श्रीकृष्ण! हमें उन फलों को खाने की बड़ी इच्छा है।" अपने सखा ग्वाल बालों की यह बात सुनकर भगवान श्रीकृष्ण और बलराम दोनों हंसे और फिर उन्हें प्रसन्न करने के लिए उनके साथ ताड़ वन के लिए चल पड़े... और पढ़ें

कालिय नाग उद्धार

कालिय के फन पर नृत्यरत श्रीकृष्ण

कालिय नाग कद्रू का पुत्र और पन्नग जाति का नागराज था। वह पहले रमण द्वीप में निवास करता था, किंतु पक्षीराज गरुड़ से शत्रुता हो जाने के कारण वह यमुना नदी में एक कुण्ड में आकर रहने लगा था। कालिय नाग जिस कुण्ड में निवास करता था, उसका जल विष की गर्मी से खौलता रहता था। यहाँ तक कि उसके ऊपर उड़ने वाले पक्षी भी झुलसकर उसमें गिर जाया करते थे। उसके विषैले जल की उत्ताल तरंगों का स्पर्श करके तथा उसकी छोटी-छोटी बूंदें लेकर जब वायु बाहर आती और तट के घास-पात, वृक्ष, पशु-पक्षी आदि का स्पर्श करती, तब वे उसी समय मर जाते थे। श्रीकृष्ण ने देखा कि कालिय नाग के विष का वेग बड़ा प्रचण्ड है और वह भयानक विष ही उसका महान बल है तथा उसके कारण मेरे विहार का स्थान यमुना भी दूषित हो गई है। इसीलिए एक दिन अपने सखाओं के साथ गेंद खेलते हुए कृष्ण ने अपने सखा श्रीदामा की गेंद यमुना में फेंक दी। अब श्रीदामा गेंद वापस लाने के लिए कृष्ण से जिद करने लगे। सब सखाओं के समझाने पर भी श्रीदामा नहीं माने और गेंद वापस लाने के लिए कहते रहे... और पढ़ें

गोवर्धन लीला

गोवर्धन उठाते श्रीकृष्ण

श्रीकृष्ण अपने सखाओं और गोप-ग्वालों के साथ गाय चराने गोवर्धन पर्वत पर भी जाते थे। एक बार उन्होंने गोवर्धन पर्वत पर देखा कि वहाँ गोपियाँ 56 प्रकार के भोजन रखकर बड़े उत्साह से नाच-गाकर उत्सव मना रही हैं। श्रीकृष्ण के पूछने पर उन्होंने बताया कि आज के दिन वृत्रासुर को मारने वाले तथा मेघों व देवों के स्वामी इन्द्र का पूजन होता है। इसे 'इन्द्रोज यज्ञ' कहते हैं। इससे प्रसन्न होकर इन्द्र ब्रज में वर्षा करते हैं और जिससे प्रचुर अन्न पैदा होता है। श्रीकृष्ण ने कहा कि इन्द्र में क्या शक्ति है? उससे अधिक शक्तिशाली तो हमारा गोवर्धन पर्वत है। इसके कारण वर्षा होती है। अत: हमें इन्द्र से भी बलवान गोवर्धन की पूजा करनी चाहिए। बहुत विवाद के बाद श्रीकृष्ण की यह बात मानी गई तथा ब्रज में इन्द्र के स्थान पर गोवर्धन की पूजा की तैयारियाँ शुरू हो गईं। सभी गोप-ग्वाल अपने-अपने घरों से पकवान लाकर गोवर्धन की तराई में श्रीकृष्ण द्वारा बताई विधि से पूजन करने लगे। श्रीकृष्ण द्वारा सभी पकवान चखने पर ब्रजवासी खुद को धन्य समझने लगे। नारद मुनि भी यहाँ 'इन्द्रोज यज्ञ' देखने पहुँच गए थे। इन्द्रोज बंद करके बलवान गोवर्धन की पूजा ब्रजवासी कर रहे हैं, यह बात इन्द्र तक नारद मुनि द्वारा पहुँच गई और इन्द्र को नारद मुनि ने यह कहकर और भी डरा दिया कि उनके राज्य पर आक्रमण करके इन्द्रासन पर भी अधिकार शायद श्रीकृष्ण कर लें... और पढ़ें

रासलीला

कृष्ण के प्रति ब्रजवासियों का बड़ा स्नेह था। गोपियाँ तो विशेष रूप से उनके सौंदर्य तथा साहसपूर्ण कार्यों पर मुग्ध थीं। प्राचीन पुराणों के अनुसार शरद पूर्णिमा की एक सुहावनी रात को गोपियों ने कृष्ण के साथ मिलकर नृत्य-गान किया। इसका नाम 'रास' प्रसिद्ध हुआ। शरद पूर्णिमा का शास्त्रों में बड़ा महत्त्व बताया गया है। पुराणों के अनुसार एक बार गोपियों ने भगवान श्रीकृष्ण से उन्हें पति रूप में पाने कीइच्छा प्रकट की। भगवान श्रीकृष्ण ने गोपियों की इस कामना को पूरी करने का वचन दिया। अपने वचन को पूरा करने के लिए भगवान ने रास का आयोजन किया। इसके लिए शरद पूर्णिमा की रात को यमुना तट पर गोपियों को मिलने के लिए कहा गया। सभी गोपियां सज-धज कर नियत समय पर यमुना तट पर पहुँच गईं। इसके बाद भगवान ने रास आरंभ किया।

माना जाता है कि वृंदावन स्थित निधिवन ही वह स्थान है, जहाँ श्रीकृष्ण ने महारास रचाया था। यहाँ भगवान ने एक अद्भुत लीला दिखाई। जितनी गोपियाँ थीं, उतने ही श्रीकृष्ण के प्रतिरूप प्रकट हो गए। सभी गोपियों को उनका कृष्ण मिल गया और दिव्य नृत्य एवं प्रेमानंद शुरू हुआ। माना जाता है कि आज भी शरद पूर्णिमा की रात में भगवान श्रीकृष्ण गोपिकाओं के संग रास रचाते हैं। इसलिए प्रेम निवेदन के लिए शरद पूर्णिमा का दिन उत्तम माना गया है। शरद पूर्णिमा की रात में चन्द्रमा अपनी सोलह कलाओं से पूर्ण होता है, इसलिए चन्द्रमा का सौन्दर्य पूरे वर्ष में इस रात सबसे अधिक निखर कर आता है। इसलिए श्रीकृष्ण ने महारास के लिए इस दिन का चयन किया।... और पढ़ें

कुब्जा उद्धार

कंस की नगरी मथुरा में कुब्जा नाम की स्त्री थी, जो कंस के लिए चन्दन, तिलक तथा फूल इत्यादि का संग्रह किया करती थी। कंस भी उसकी सेवा से अति प्रसन्न था। जब भगवान श्रीकृष्ण कंस वध के उद्देश्य से मथुरा में आये, तब कंस से मुलाकात से पहले उनका साक्षात्कार कुब्जा से होता है। बहुत ही थोड़े लोग थे, जो कुब्जा को जानते थे। उसका नाम कुब्जा इसलिए पड़ा था, क्योंकि वह कुबड़ी थी। जैसे ही भगवान श्रीकृष्ण ने देखा कि उसके हाथ में चन्दन, फूल और हार इत्यादि है और बड़े प्रसन्न मन से वह लेकर जा रही है। तब श्रीकृष्ण ने कुब्जा से प्रश्न किया- "ये चन्दन व हार फूल लेकर इतना इठलाते हुए तुम कहाँ जा रही हो और तुम कौन हो?" कुब्जा ने उत्तर दिया कि- "मैं कंस की दासी हूँ। कुबड़ी होने के कारण ही सब मुझको कुब्जा कहकर ही पुकारते हैं और अब तो मेरा नाम ही कुब्जा पड़ गया है। मैं ये चंदन, फूल हार इत्यादि लेकर प्रतिदिन महाराज कंस के पास जाती हूँ और उन्हें ये सामग्री प्रदान करती हूँ। वे इससे अपना श्रृंगार आदि करते हैं।" श्रीकृष्ण ने कुब्जा से आग्रह किया कि- "तुम ये चंदन हमें लगा दो, ये फूल, हार हमें चढ़ा दो"... और पढ़ें

कुवलयापीड़ और श्रीकृष्ण

कुवलयापीड़ वध

मथुरा के दक्षिण में श्री रंगेश्वर महादेवजी क्षेत्रपाल के रूप में अवस्थित हैं। कंस ने श्रीकृष्ण और बलराम को मारने का षड़यन्त्र कर इस तीर्थ स्थान पर एक रंगशाला का निर्माण करवाया। अक्रूर के द्वारा छलकर गोकुल से श्रीकृष्ण और बलराम को मथुरा लाया गया था। श्रीकृष्ण और बलराम नगर भ्रमण के बहाने ग्वालवालों के साथ लोगों से पूछते–पूछते इस रंगशाला में प्रविष्ट हुये। रंगशाला बहुत ही सुन्दर सजायी गई थी। सुन्दर-सुन्दर तोरण-द्वार पुष्पों से सुसज्जित थे। सामने भगवान शिव का विशाल धनुष रखा गया था। मुख्य प्रवेश द्वार पर मतवाला कुवलयापीड़ हाथी झूमते हुए, बस संकेत पाने की प्रतीक्षा कर रहा था। कुवलयापीड़ को दोनों भाईयों को मारने के लिए भली-भाँति प्रशिक्षित किया गया था... और पढ़ें

कंस वध

कंस का वध करते श्रीकृष्ण

मथुरा आगमन से पूर्व ही कृष्ण-बलराम का नाम इस भव्य नगरी में प्रसिद्ध हो चुका था। उनके द्वारा नगर में प्रवेश करते ही एक विचित्र कोलाहल पैदा हो गया। जिन लोगों ने उनका विरोध किया, वे इन बालकों द्वारा दंडित किये गये। ऐसे मथुरावासियों की संख्या कम न थी, जो प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से कृष्ण के प्रति सहानुभूति रखते थे। इनमें कंस के अनेक भृत्य भी थे, जैसे सुदाभ या गुणक नामक माली, कुब्जा दासी आदि। कंस ने ये उपद्रवपूर्ण बातें सुनी। उसने चाणूर और मुष्टिक नामक अपने पहलवानों को कृष्ण-बलराम के वध के लिए सिखा-पढ़ा दिया। शायद कंस ने यह भी सोचा कि उन्हें रंग भवन में घुसने से पूर्व ही क्यों न हाथी द्वारा कुचलवा दिया जाय, क्योंकि भीतर घुसने पर वे न जाने कैसा वातावरण उपस्थित कर दें। प्रात: होते ही दोनों भाई धनुर्याग का दृश्य देखने राजभवन में घुसे। ठीक उसी समय पूर्व योजनानुसार कुवलयापीड़ नामक राज्य के एक भयंकर हाथी ने उन पर प्रहार किया। दोनों भाइयों ने इस संकट को दूर किया। भीतर जाकर कृष्ण चाणूर से और बलराम मुष्टिक से भिड़ गये। इन दोनों पहलवानों को समाप्त कर कृष्ण ने तोसलक नामक एक अन्य योद्धा को भी मारा। कंस के शेष योद्धाओं में आतंक छा जाने और भगदड़ मचने के लिए इतना कृत्य यथेष्ट था। इसी कोलाहल में कृष्ण ऊपर बैठे हुए कंस पर झपटे और उसको भी कुछ समय बाद परलोक पहुँचा दिया। इस भीषण कांड के समय कंस के सुनाम नामक भृत्य ने कंस को बचाने की चेष्टा की, किन्तु बलराम ने उसे बीच में ही रोककर उसका वध कर डाला... और पढ़ें

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