जगन्नाथ रथयात्रा

जगन्नाथ रथयात्रा
जगन्नाथ रथयात्रा, पुरी
तिथि जगन्नाथ रथयात्रा दस दिवसीय महोत्सव होता है। यात्रा की तैयारी अक्षय तृतीया के दिन श्रीकृष्ण, बलराम और सुभद्रा के रथों के निर्माण के साथ ही शुरू हो जाती है।
धार्मिक मान्यता वर्तमान रथयात्रा में जगन्नाथ को दशावतारों के रूप में पूजा जाता है, उनमें विष्णु, कृष्ण और वामन और बुद्ध हैं।
प्रसिद्धि भगवान श्रीकृष्ण के अवतार 'जगन्नाथ' की रथयात्रा का पुण्य सौ यज्ञों के बराबर माना जाता है।
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रथ का निर्माण भगवान जगन्नाथ की रथयात्रा के लिए रथों का निर्माण लकड़ियों से होता है। इसमें कोई भी कील या काँटा, किसी भी धातु को नहीं लगाया जाता।
बाहुड़ा यात्रा आषाढ़ शुक्ल दशमी को जगन्नाथ जी की वापसी यात्रा शुरू होती है। इसे बाहुड़ा यात्रा कहते हैं।
अन्य जानकारी जगन्नाथ मंदिर में पूजा, आचार-व्यवहार, रीति-नीति और व्यवस्थाओं को शैव, वैष्णव, बौद्ध, जैन धर्मावलम्बियों ने भी प्रभावित किया है।

जगन्नाथ रथयात्रा भारत में मनाए जाने वाले धार्मिक महामहोत्सवों में सबसे प्रमुख तथा महत्त्वपूर्ण मानी जाती है। यह रथयात्रा न केवल भारत अपितु विदेशों से आने वाले पर्यटकों के लिए भी ख़ासी दिलचस्पी और आकर्षण का केंद्र बनती है। भगवान श्रीकृष्ण के अवतार 'जगन्नाथ' की रथयात्रा का पुण्य सौ यज्ञों के बराबर माना जाता है। सागर तट पर बसे पुरी शहर में होने वाली 'जगन्नाथ रथयात्रा उत्सव' के समय आस्था का जो विराट वैभव देखने को मिलता है, वह और कहीं दुर्लभ है। इस रथयात्रा के दौरान भक्तों को सीधे प्रतिमाओं तक पहुँचने का बहुत ही सुनहरा अवसर प्राप्त होता है। जगन्नाथ रथयात्रा दस दिवसीय महोत्सव होता है। यात्रा की तैयारी अक्षय तृतीया के दिन श्रीकृष्ण, बलराम और सुभद्रा के रथों के निर्माण के साथ ही शुरू हो जाती है। देश-विदेश से लाखों लोग इस पर्व के साक्षी बनने हर वर्ष यहाँ आते हैं। भारत के चार पवित्र धामों में से एक पुरी के 800 वर्ष पुराने मुख्य मंदिर में योगेश्वर श्रीकृष्ण जगन्नाथ के रूप में विराजते हैं। साथ ही यहाँ बलभद्र एवं सुभद्रा भी हैं।

दर्शन

वर्तमान रथयात्रा में जगन्नाथ को दशावतारों के रूप में पूजा जाता है, उनमें विष्णु, कृष्ण और वामन और बुद्ध हैं। जगन्नाथ मंदिर में पूजा, आचार-व्यवहार, रीति-नीति और व्यवस्थाओं को शैव, वैष्णव, बौद्ध, जैन धर्मावलम्बियों ने भी प्रभावित किया है। रथ का रूप श्रद्धा के रस से परिपूर्ण होता है। वह चलते समय शब्द करता है। उसमें धूप और अगरबत्ती की सुगंध होती है। इसे भक्तजनों का पवित्र स्पर्श प्राप्त होता है। रथ का निर्माण बुद्धि, चित्त और अहंकार से होता है, ऐसे रथ रूपी शरीर में आत्मा रूपी भगवान जगन्नाथ विराजमान होते हैं। इस प्रकार रथयात्रा शरीर और आत्मा के मेल की ओर संकेत करता है और आत्मदृष्टि बनाए रखने की प्रेरणा देती है। रथयात्रा के समय रथ का संचालन आत्मा युक्त शरीर करता है जो जीवन यात्रा का प्रतीक है। यद्यपि शरीर में आत्मा होती है तो भी वह स्वयं संचालित नहीं होती, बल्कि उसे माया संचालित करती है। इसी प्रकार भगवान जगन्नाथ के विराजमान होने पर भी रथ स्वयं नहीं चलता बल्कि उसे खींचने के लिए लोक-शक्ति की आवश्यकता होती है।

इतिहास

जगन्नाथ रथयात्रा, 1850

पौराणिक कथाओं के अनुसार राजा इन्द्रद्युम्न भगवान जगन्नाथ को शबर राजा से यहाँ लेकर आये थे तथा उन्होंने ही मूल मंदिर का निर्माण कराया था जो बाद में नष्ट हो गया। इस मूल मंदिर का कब निर्माण हुआ और यह कब नष्ट हो गया इस बारे में कुछ भी स्पष्ट नहीं है। ययाति केशरी ने भी एक मंदिर का निर्माण कराया था। वर्तमान 65 मीटर ऊंचे मंदिर का निर्माण 12वीं शताब्दी में चोल गंगदेव तथा अनंग भीमदेव ने कराया था। परंतु जगन्नाथ संप्रदाय वैदिक काल से लेकर अब तक मौजूद है। जगन्नाथपुरी का वर्णन स्कन्द पुराण, नारद पुराण, पद्म पुराण और ब्रह्म पुराण में भी मिलता है। जगन्नाथ मंदिर के निजी भृत्‍यों की एक सेना है, जो 36 रूपों तथा 97 वर्गों में विभाजित कर दी गयी है। पहले इनके प्रधान खुर्द के राजा थे, जो अपने को जगन्‍नाथ का भृत्‍य समझते थे।

मंदिर की प्रतिमाएँ

रथयात्रा के समय भक्तों को प्रतिमाओं तक पहुँचने का अवसर मिलता है। पुरी का जगन्नाथ मंदिर भक्तों की आस्था केंद्र है, जहाँ पूरे वर्ष भक्तों का मेला लगा रहता है। पुरी का जगन्नाथ मंदिर उच्चस्तरीय नक़्क़ाशी और भव्यता लिए प्रसिद्ध है। रथोत्सव के समय इसकी छटा निराली होती है। पुरी के महान मन्दिर में तीन मूर्तियाँ हैं-

  1. भगवान जगन्नाथ की मूर्ति
  2. बलभद्र की मूर्ति
  3. सुभद्रा की मूर्ति

ये सभी मूर्तियाँ काष्ठ की बनी हुई हैं। पुरी की ये तीनों प्रतिमाएँ भारत के सभी देवी-देवताओं की तरह नहीं होतीं। यह मूर्तियाँ आदिवासी मुखाकृति के साथ अधिक साम्यता रखती हैं। पुरी का मुख्य मंदिर बारहवीं सदी में राजा अनंतवर्मन के शासनकाल के समय बनाया गया। उसके बाद जगन्नाथ जी के 120 मंदिर बनाए गए हैं। भगवान जगन्नाथ और उनके मंदिर ने अनेक संप्रदायों तथा धार्मिक समुदायों के धर्म गुरुओं को आकर्षित किया है। आदि शंकराचार्य ने इसे गोवर्धन पीठ स्थापित करने के लिए चुना। उन्होंने 'जगन्नाथाष्टक' का भी संकलन किया। अन्य धार्मिक संत या धर्म गुरु जो यहाँ आये तथा भगवान जगन्नाथ की पूजा की उनमें माध्वाचार्य, निम्बार्काचार्य, सायणाचार्य, रामानुज, रामानंद, तुलसीदास, नानक, कबीर, तथा चैतन्य हैं और स्थानीय संत, जैसे- जगन्नाथ दास, बलराम दास, अच्युतानंद, यशवंत, शिशु अनंत और जयदेव भी यहाँ आये तथा भगवान जगन्नाथ की पूजा की। पुरी में इन संतों द्वारा मठ या आश्रम स्थापित किये गये जो अभी भी मौजूद हैं तथा किसी न किसी रूप में जगन्नाथ मंदिर से संबधित हैं।

मंदिर की विशालता

जगन्नाथ रथयात्रा, उड़ीसा

जगन्नाथ के विशाल मंदिर के भीतर चार खण्‍ड हैं - 'प्रथम भोग मंदिर', जिसमें भगवान को भोग लगाया जाता है। 'द्वितीय रंग मंदिर', जिसमें नृत्‍य-गान आदि होते हैं। 'तृतीय सभामण्‍डप', जिसमें दर्शकगण (तीर्थ यात्री) बैठते हैं। चौथा अंतराल है। जगन्‍नाथ के मंदिर का गुंबद 192 फुट ऊंचा और चवक्र तथा ध्‍वज से आच्‍छन्‍न है। मंदिर समुद्र तट से 7 फर्लांग दूर है। यह सतह से 20 फुट ऊंची एक छोटी सी पहाड़ी पर स्‍थित है। पहाड़ी गोलाकार है, जिसे 'नीलगिरि' कहकर सम्‍मानित किया जाता है। अन्‍तराल के प्रत्‍येक तरफ़ एक बड़ा द्वार है, उनमें पूर्व का द्वार सबसे बड़ा और भव्‍य है। प्रवेश द्वार पर एक 'बृहत्‍काय सिंह' है, इसीलिए इस द्वार को 'सिंह द्वार' भी कहा जाता है। यह मंदिर 20 फीट ऊंची दीवार के परकोटे के भीतर है, जिसमें अनेक छोटे-छोटे मंदिर है। मुख्य मंदिर के अलावा एक परंपरागत डयोढ़ी, पवित्र देवस्थान या गर्भगृह, प्रार्थना करने का हॉल और स्तंभों वाला एक नृत्य हॉल है। सदियों से पुरी को अनेक नामों से जाना जाता है, जैसे- नीलगिरि, नीलाद्री, नीलाचंल, पुरुषोत्तम, शंखक्षेत्र, श्रीक्षेत्र, जगन्नाथ धाम और जगन्नाथ पुरी। यहाँ पर बारह महत्त्वपूर्ण त्यौहार मनाये जाते हैं, लेकिन इनमें सबसे महत्त्वपूर्ण त्यौहार जिसने अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त की है, वह रथयात्रा ही है।

दस दिवसीय महोत्सव

पुरी के जगन्नाथ मंदिर के दस दिवसीय महोत्सव की तैयारी का श्रीगणेश अक्षय तृतीया को श्रीकृष्ण, बलराम और सुभद्रा के रथों के निर्माण से हो जाता है। कुछ धार्मिक अनुष्ठान भी किए जाते हैं।

गरुड़ध्वज

जगन्नाथ जी का रथ 'गरुड़ध्वज' या 'कपिलध्वज' कहलाता है। 16 पहियों वाला यह रथ 13.5 मीटर ऊँचा होता है, जिसमें लाल व पीले रंग के वस्त्र का प्रयोग होता है। विष्णु का वाहक गरुड़ इसकी रक्षा करता है। रथ पर जो ध्वज है, उसे 'त्रैलोक्यमोहिनी' या ‘नंदीघोष’ रथ कहते हैं।

तालध्वज

बलराम का रथ 'तलध्वज' के नाम से पहचाना जाता है। यह रथ 13.2 मीटर ऊँचा 14 पहियों का होता है। यह लाल, हरे रंग के कप़ड़े व लक़ड़ी के 763 टुक़ड़ों से बना होता है। रथ के रक्षक वासुदेव और सारथी मताली होते हैं। रथ के ध्वज को 'उनानी' कहते हैं। 'त्रिब्रा', ;घोरा', 'दीर्घशर्मा' व 'स्वर्णनावा' इसके अश्व हैं। जिस रस्सी से रथ खींचा जाता है, वह 'वासुकी' कहलाता है।

पद्मध्वज या दर्पदलन

सुभद्रा का रथ 'पद्मध्वज' कहलाता है। 12.9 मीटर ऊँचे 12 पहिए के इस रथ में लाल, काले कप़ड़े के साथ लकड़ी के 593 टुकड़ों का प्रयोग होता है। रथ की रक्षक 'जयदुर्गा' व सारथी अर्जुन होते हैं। रथध्वज 'नदंबिक' कहलाता है। 'रोचिक', 'मोचिक', 'जिता' व 'अपराजिता' इसके अश्व होते हैं। इसे खींचने वाली रस्सी को 'स्वर्णचूडा' कहते हैं। दसवें दिन इस यात्रा का समापन हो जाता है।

रथ निर्माण

रथ में प्रयोग वाले पहिये

भगवान जगन्नाथ की रथयात्रा के लिए रथों का निर्माण लकड़ियों से होता है। इसमें कोई भी कील या काँटा, किसी भी धातु का नहीं लगाया जाता। यह एक धार्मिक कार्य है, जो पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ता रहा है। रथों का निर्माण अक्षय तृतीया से 'वनजगा' महोत्सव से प्रारम्भ होता है तथा लकड़ियाँ चुनने का कार्य इसके पूर्व बसन्त पंचमी से शुरू हो जाता है। पुराने रथों की लकड़ियाँ भक्तजन श्रद्धापूर्वक ख़रीद लेते हैं और अपने–अपने घरों की खिड़कियाँ, दरवाज़े आदि बनवाने में इनका उपयोग करते हैं।

सामुदायिक पर्व

रथयात्रा एक सामुदायिक पर्व है। घरों में कोई भी पूजा इस अवसर पर नहीं होती है तथा न ही कोई उपवास रखा जाता है। जगन्नाथपुरी और भगवान जगन्‍नाथ की कुछ मौलिक विशेषताएं हैं। यहाँ किसी प्रकार का जातिभेद नहीं है। जगन्‍नाथ के लिए पकाया गया चावल वहाँ के पुरोहित निम्‍न कोटि के नाम से पुकारे जाने वाले लोगों से भी लेते हैं। जगन्‍नाथ को चढ़ाया हुआ चावल कभी अशुद्घ नहीं होता, इसे 'महाप्रसाद' की संज्ञा दी गयी है। इसकी विशेषता रथयात्रा पर्व की महत्‍ता है। इसका पुरी के चौबीस पर्वों में सर्वाधिक महत्‍व है। रथ तीर्थ या‌‌त्रियों और कुशल मज़दूरों द्वारा खींचे जाते हैं। भावुकतापूर्ण गीतों से य‌ह 'महाउत्‍सव' मनाया जाता है।

धार्मिक उत्सव की तैयारियाँ

पुरी में रथयात्रा के लिए बलराम, श्रीकृष्णसुभद्रा के लिए अलग–अलग तीन रथ बनाये जाते हैं। बलभद्र के रथ को 'पालध्वज' व उसका रंग लाल एवं हरा, सुभद्रा के रथ को 'दर्पदलन' और उसका रंग एवं नीला तथा भगवान जगन्नाथ के रथ को 'नन्दीघोष' कहते हैं। इसका रंग लाल व पीला होता है। रथयात्रा में सबसे आगे बलभद्र जी का रथ, उसके बाद बीच में सुभद्रा जी का रथ तथा सबसे पीछे भगवान जगन्नाथ जी का रथ होता है। आषाढ़ की शुक्ल द्वितीय को तीनों रथों को 'सिंहद्वार' पर लाया जाता है। स्नान व वस्त्र पहनाने के बाद प्रतिमाओं को अपने–अपने रथ में रखा जाता है। इसे 'पहोन्द्रि महोत्सव' कहते हैं। जब रथ तैयार हो जाते हैं, तब पुरी के राजा एक पालकी में आकर इनकी प्रार्थना करते हैं तथा प्रतीकात्मक रूप से रथ मण्डप को झाडू से साफ़ करते हैं। इसे 'छर पहनरा' कहते हैं। अब सर्वाधिक प्रतीक्षित व शुभ घड़ी आती है। ढोल, नगाड़ों, तुरही तथा शंखध्वनि के बीच भक्तगण इन रथों को खींचते हैं। इस पवित्र धार्मिक कार्य के लिए दूर–दूर से लोग प्रत्येक वर्ष पुरी में आते हैं। भव्य रथ घुमावदार मार्ग पर आगे बढ़ते हैं तथा गुण्डीच मन्दिर के पास रुकते हैं। ये रथ यहाँ पर सात दिन तक रहते हैं। यहाँ पर सुरक्षा व्यवस्था काफ़ी चुस्त व दुरुस्त रखी जाती है। रथयात्रा का विभिन्न टेलीविज़न चैनलों के द्वारा सीधा प्रसारण भी किया जाता है। सारा शहर श्रद्धालु भक्तगणों से खचाखच भर जाता है। भगवान जगन्नाथ की इस यात्रा में शायद ही कोई व्यक्ति ऐसा हो, जो कि सम्मिलित न होता हो।

मुख्य मन्दिर की ओर पुर्नयात्रा

आषाढ़ की दसवीं तिथि को रथों की मुख्य मन्दिर की ओर पुर्नयात्रा प्रारम्भ होती है। इसे 'बहुदा यात्रा' कहते हैं। सभी रथों को मन्दिर के ठीक सामने लाया जाता है, परन्तु प्रतिमाएँ अभी एक दिन तक रथ में ही रहती हैं। आगामी दिन एकादशी होती है, इस दिन जब मन्दिर के द्वार देवी - देवताओं के लिए खोल दिए जाते हैं, तब इनका श्रृंगार विभिन्न आभूषणों व शुद्ध स्वर्ण से किया जाता है। इस धार्मिक कार्य को 'सुनबेसा' कहा जाता है।

यात्रा का समापन

आस-पास के दर्शकों के मनोरंजन के लिए, प्रतिमाओं की वापसी यात्रा के मध्य एक हास्यपूर्ण दृश्य किया जाता है। मुख्य जगन्नाथ मन्दिर के अन्दर एक छोटा 'महालक्ष्मी मन्दिर' भी है। ऐसा दिखाया जाता है कि भगवती लक्ष्मी इसलिए क्रुद्ध हैं, क्योंकि उन्हें यात्रा में नहीं ले जाया गया। वे भगवान पर कटाक्ष करती हैं। प्रभु उन्हें मनाने का प्रयास करते हैं व कहते हैं कि देवी को सम्भवतः उनके भाई बलभद्र के साथ बैठना शोभा नहीं देता। पुजारी व देवदासियाँ इसे लोकगीतों में प्रस्तुत करते हैं। क्रुद्ध देवी मन्दिर को अन्दर से बन्द कर लेती हैं। परन्तु शीघ्र ही पंडितों का गीत उन्हें प्रसन्न कर देता है। जब मन्दिर के द्वार खोल दिए जाते हैं तथा सभी लोग अन्दर प्रवेश करते हैं। इसी के साथ इस दिन की भगवान जगन्नाथ की यह अत्यन्त अदभुत व अनूठी यात्रा हर्षोल्लास से सम्पन्न हो जाती है।


टीका टिप्पणी और संदर्भ

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