वेणुगीत

'श्रीमद्भागवत महापुराण'[1] के अनुसार- श्रीशुकदेवजी कहते हैं- परीक्षित! शरद ऋतु के कारण वह वन बड़ा सुन्दर हो रहा था। जल निर्मल था और जलाशयों में खिले हुए कमलों की सुगन्ध से सनकर वायु मन्द-मन्द चल रही थी। भगवान श्रीकृष्ण ने गौओं और ग्वालबालों के साथ उस वन में प्रवेश किया। सुन्दर-सुन्दर पुष्पों से परिपूर्ण हरी-हरी वृक्ष-पंक्तियों में मतवाले भौंरे स्थान-स्थान पर गुनगुना रहे थे और तरह-तरह के पक्षी झुंड-के-झुंड अलग-अलग कलरव कर रहे थे, जिससे उस वन के सरोवर, नदियाँ और पर्वत-सब-के-सब गूँजते रहते थे। मधुपति श्रीकृष्ण ने बलरामजी और ग्वालबालों के साथ उसके भीतर घुसकर गौओं को चराते हुए अपनी बाँसुरी पर बड़ी मधुर तान छेड़ी। श्रीकृष्ण की वह वंशीध्वनि भगवान के प्रति प्रेमभाव को, उनके मिलन की आकांक्षा को जगाने वाली थी।[2] वे एकान्त में अपनी सखियों से उनके रूप, गुण और वंशीध्वनि के प्रभाव का वर्णन करने लगीं। ब्रज की गोपियों ने वंशीध्वनि का माधुर्य आपस में वर्णन करना चाहा तो अवश्य; परन्तु वंशी का स्मरण होते ही उन्हें श्रीकृष्ण की मधुर चेष्टाओं की, प्रेमपूर्ण चितवन, भौहों के इशारे और मधुर मुस्कान आदि की याद हो आयी। उनकी भगवान से मिलने की आकांक्षा और भी बढ़ गयी। उनका मन हाथ से निकल गया। वे मन-ही-मन वहाँ पहुँच गयीं, जहाँ श्रीकृष्ण थे। अब उनकी वाणी बोले कैसे? वे उसके वर्णन में असमर्थ हो गयीं।[3] श्रीकृष्ण ग्वालबालों के साथ वृन्दावन में प्रवेश कर रहे हैं। उनके सिर पर मयूरपिच्छ है और कानों पर कनेर के पीले-पीले पुष्प; शरीर पर सुनहला पीताम्बर और गले में पाँच प्रकार के सुगन्धित पुष्पों की बनी वैजयन्ती माला है। रंगमंच पर अभिनय करते हुए श्रेष्ठ नटका-सा क्या ही सुन्दर वेष है। बाँसुरी के छिद्रों को वे अपने अधरामृत से भर रहें हैं। उनके पीछे-पीछे ग्वालबाल उनकी लोकपावन कीर्ति का गान कर रहे हैं। इस प्रकार वैकुण्ठ से भी श्रेष्ठ वह वृन्दावनधाम उनके चरणचिह्नों से और भी रमणीय बन गया है। परीक्षित! यह वंशीध्वनि जड़, चेतन-समस्त भूतों का मन चुरा लेती है। गोपियों ने उसे सुना और सुनकर उनका वर्णन करने लगीं। वर्णन करते-करते वे तन्मय हो गयीं और श्रीकृष्ण को पाकर आलिंगन करने लगीं।

गोपियाँ आपस में बातचीत करने लगीं- "अरी सखी! हमने तो आँख वालों के जीवन की और उनकी आँखों की बस, यही-इतनी ही सफलता समझी है; और तो हमें कुछ मालूम ही नहीं है। वह कौन-सा लाभ है ? वह यही है कि जब श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण और गौरसुन्दर बलराम ग्वालबालों के साथ गायों को हाँककर वन में ले जा रहे हों या लौटकर ब्रज में ला रहे हों, उन्होंने अपने अधरों पर मुरली धर रखी हो और प्रेमभरी तिरछी चितवन से हमारी ओर देख रहे हों, उस समय हम उनकी मुख-माधुरी का पान करती रहें। अरी सखी! जब वे आम की नयीं कोंपलें, मोरों के पंख, फूलों के गुच्छे, रंग-बिरंगे कमल और कुमुद की मालाएँ धारण कर लेते हैं, श्रीकृष्ण के साँवरे शरीर पर पीताम्बर और बलराम के गोरे शरीर पर नीलाम्बर फहराने लगता है, तब उनका वेष बड़ा ही विचित्र बन जाता है। ग्वालबालों की गोष्ठी में वे दोनों बीचो-बीच बैठ जाते हैं और मधुर संगीत की तान छेड़ देते हैं। मेरी प्यासी सखी! उस समय ऐसा जान पड़ता है मानों दो चतुर नट रंगमंच पर अभिनय कर रहे हों। मैं क्या बताऊँ कि उस समय उनकी कितनी शोभा होती है।

अरी गोपियों! यह वेणु पुरुष जाति का होने पर भी पूर्वजन्म में न जाने ऐसा कौन-सा साधन-भजन कर चुका है कि हम गोपियों की अपनी सम्पत्ति-दामोदर के अधरों की सुधा स्वयं ही इस प्रकार पिये जा रहा है कि हम लोगों के लिये थोड़ा-सा भी रस शेष नहीं रहेगा। इस वेणु को अपने रस से सींचने वाली हृदिनियाँ आज कमलों के मिस रोमांचित हो रही हैं और अपने वंश में भगवत्प्रेमी सन्तानों को देखकर श्रेष्ठ पुरुषों के समान वृक्ष भी इसके साथ अपना सम्बन्ध जोड़कर आँखों से आनन्दाश्रु बहा रहे हैं।

अरी सखी! यह वृन्दावन वैकुण्ठलोक तक पृथ्वी की कीर्ति का विस्तार कर रहा है। क्योंकि यशोदानन्दन श्रीकृष्ण के चरणकमलों के चिह्नों से यह चिह्नित हो रहा है! सखि! जब श्रीकृष्ण अपनी मुनिजनमोहिनी बाँसुरी बजाते हैं, तब मोर मतवाले होकर उसकी ताल पर नाचने लगते हैं। यह देखकर पर्वत की चोटियों पर विचरने वाले सभी पशु-पक्षी चुपचाप-शान्त होकर खड़े रह जाते हैं। अरी सखी! जब प्राणवल्लभ श्रीकृष्ण विचित्र वेष धारण करके बाँसुरी बजाते हैं, जब मूढ़ बुद्धि वाली ये हरिनियाँ भी वंशी की तान सुनकर अपने पति कृष्णसार मृगों के साथ नन्दनन्दन के पास चली आती हैं और अपनी प्रेमभरी बड़ी-बड़ी आँखों से उन्हें निरखने लगती हैं। निरखती क्या हैं, अपनी कमल के समान बड़ी-बड़ी आँखें श्रीकृष्ण के चरणों पर निछावर कर देती हैं और श्रीकृष्ण की प्रेमभरी चितवन के द्वारा किया हुआ अपना सत्कार स्वीकार करती हैं।’ वास्तव में उनका जीवन धन्य है।[4] अरी सखी! हरिनियों की तो बात ही क्या है, स्वर्ग की देवियाँ जब युवतियों को आनन्दित करने वाले सौन्दर्य और शील के खजाने श्रीकृष्ण को देखती हैं और बाँसुरी पर उनके द्वारा गाया हुआ मधुर संगीत सुनतीं हैं, तब उनके चित्र-विचित्र आलाप सुनकर वे अपने विमान पर ही सुध-बुध खो बैठती हैं-मुर्छित हो जाती हैं। यह कैसे मालूम हुआ सखी? सुनो तो, जब उनके हृदय में श्रीकृष्ण से मिलने की तीव्र आकांक्षा जग जाती है, तब वे अपना धीरज खो बैठती हैं, बेहोश हो जाती हैं। उन्हें इस बात का भी पता नहीं चलता कि उनकी चोटियों में गुँथे हुए फूल पृथ्वी पर गिर रहे हैं। यहाँ तक कि उन्हें अपनी साड़ी का भी पता नहीं रहता, वह कमर से खिसककर जमीन पर गिर जाती है। अरी सखी! तुम देवियों की बात क्या-क्या कह रही हो, इन गौओं को नहीं देखती? जब हमारे प्यारे कृष्ण अपने मुख से बाँसुरी में स्वर भरते हैं और गौएँ उनका मधुर संगीत सुनती हैं, तब ये अपने दोनों कानों के दोने सम्हाल लेती हैं, खड़े कर लेती हैं और मानो उनसे अमृत पी रही हों, इस प्रकार उस संगीत का रस लेने लगती हैं? ऐसा क्यों होता है सखी? अपने नेत्रों के द्वार से श्यामसुन्दर को हृदय में जाकर वे उन्हें वहीं विराजमान कर देती हैं और मन-ही-मन उनका आलिंगन करती हैं। देखती नहीं हो, उनके नेत्रों से आनन्द के आँसू छलकने लगते हैं। और उनके बछड़े, बछड़ों की तो दशा ही निराली हो जाती है। यद्यपि गायों के थनों से अपने-आप दूध झरता रहता है, वे जब दूध पीते-पीते अचानक ही वंशीध्वनि सुनते हैं, तब मुँह में लिया हुआ दूध का घूँट न उगल पाते हैं और न निगल पाते हैं। उनके हृदय में भी होता है भगवान का संस्पर्श और नेत्रों में छलकते होते हैं आनन्द के आँसू। वे ज्यों-के-त्यों ठिठके रह जाते हैं।

अरी सखी! गौएँ और बछड़े तो हमारी घर की वस्तु हैं। उनकी बात तो जाने ही दो। वृन्दावन के पक्षियों को तुम नहीं देखती हो। उन्हें पक्षी कहना ही भूल है। सच पूछो तो उनमें से अधिकांश बड़े-बड़े ऋषि-मुनि हैं। वे वृन्दावन के सुन्दर-सुन्दर वृक्षों की नयी और मनोहर कोंपलों वाली डालियों पर चुपचाप बैठ जाते हैं और आँखें बंद नहीं करते, निर्निमेष नयनों से श्रीकृष्ण की रूप-माधुरी तथा प्यार-भरी चितवन देख-देखकर निहाल होते रहते हैं, तथा कानों से अन्य सब प्रकार के शब्दों को छोड़कर केवल उन्हीं की मोहनी वाणी और वंशी का त्रिभुवन मोहन संगीत सुनते रहते हैं। मेरी प्यारी सखी! उनका जीवन कितना धन्य है।

अरी सखी! देवता, गौओं और पक्षियों की बात क्यों करती हो? वे तो चेतन हैं। इन जड़ नदियों को नहीं देखतीं? इसमें जो भँवर दीख रहे है, उनसे इनके हृदय से श्यामसुन्दर से मिलने की तीव्र आकांक्षा का पता चलता है? उसके वेग से ही तो इनका प्रवाह रुक गया है। इन्होंने भी प्रेमस्वरूप श्रीकृष्ण की वंशीध्वनि सुन ली है। देखो, देखो! ये अपनी तरंगों के हाथों से उनके चरण पकड़कर कमल के फूलों का उपहार चढ़ा रही हैं, और उनका आलिंगन कर रही हैं; मानो उसके चरणों पर अपना हृदय ही निछावर कर रही हैं। अरी सखी! ये नदियाँ ये हमारी पृथ्वी की, हमारे वृन्दावन की वस्तुएँ हैं; तनिक इन बादलों को भी देखो! जब वे देखते हैं कि ब्रजराजकुमार श्रीकृष्ण और बलरामजी ग्वालबालों के साथ धूप में गौएँ चरा रहे हैं और साथ-साथ बाँसुरी भी बजाते जा रहे हैं, तब उनके हृदय में प्रेम उमड़ आता है। वे उनके ऊपर मँडराने लगते हैं और वे श्यामघन अपने सखा घनश्याम के ऊपर अपने शरीर को ही छाता बनाकर तान देते हैं। इतना ही नहीं सखी! वे जब उन पर नन्हीं-नन्हीं फुहियों की वर्षा करने लगते हैं, तब ऐसा जान पड़ता है कि वे उनके ऊपर सुन्दर-सुन्दर श्वेत कुसुम चढ़ा रहे हैं। नहीं सखी, उनके बहाने वे तो अपना जीवन ही निछावर कर देते हैं।

अरी भटू! हम तो वृन्दावन की इन भीलनियों को ही धन्य और कृतकृत्य मानती हैं। ऐसा क्यों सखी? इसलिये कि इनके हृदय में बड़ा प्रेम है। जब ये हमारे कृष्ण-प्यारे को देखती हैं, तब इनके हृदय में भी उनसे मिलने की तीव्र आकांक्षा जाग उठती है। इनके हृदय में भी प्रेम की व्याधि लग लग जाती है। उस समय ये क्या उपाय करती हैं, यह भी सुन लो। हमारे प्रियतम की प्रेयसी गोपियाँ अपने वक्षःस्थलों पर जो केसर लगाती हैं, वह श्यामसुन्दर के चरणों में लगी होती है और वे जब वृन्दावन के घास-पात पर चलते हैं, तब उनमें भी लग जाती है। ये सौभाग्यवती भीलनियाँ उन्हें उन तिनकों पर से छुड़ाकर अपने स्तनों और मुखों पर मल लेतीं हैं और इस प्रकार अपने हृदय की प्रेम-पीड़ा शान्त करती हैं।

अरी गोपियों! यह गिरिराज गोवर्धन तो भगवान के भक्तों में बहुत ही श्रेष्ठ है। धन्य हैं इसके भाग्य! देखती नहीं हो, हमारे प्राणवल्लभ श्रीकृष्ण और नयनाभिराम बलराम के चरणकमलों का स्पर्श प्राप्त करके यह कितना आनन्दित रहता है। इसके भाग्य की सहारना कौन करे? यह तो उन दोनों का-ग्वालबालों और गौओं का बड़ा ही सत्कार करता है। स्नान-पान के लिये झरनों का जल देता है, गौओं के लिये सुन्दर हरी-हरी घास प्रस्तुत करता है, विश्राम करने के लिये कन्दराएँ और खाने के लिये कन्द-मूल फल देता है। वास्तव में यह धन्य है।

अरी सखी! इन साँवरे-गोरे किशोरों की तो गति ही निराली है। जब वे सिर पर नोवना[5] लपेटकर और कंधो पर फंदा[6] रखकर गायों को एक वन से दूसरे वन में हाँककर ले जाते हैं, साथ में ग्वालबाल भी होते हैं और मधुर-मधुर संगीत गाते हुए बाँसुरी की तान छेड़ते हैं, उस समय मनुष्यों की तो बात ही क्या अन्य शरीरधारियों में भी चलने वाले चेतन पशु-पक्षी और जड़ नदी आदि तो स्थिर हो जाते हैं, तथा अचल-वृक्षों को भी रोमांच हो आता है। जादूभरी वंशी का और क्या चमत्कार सुनाऊँ।

परीक्षित! वृन्दावनविहारी श्रीकृष्ण की ऐसी-ऐसी एक नहीं, अनेक लीलाएँ हैं। गोपियाँ प्रतिदिन आपस में उनका वर्णन करतीं और तन्मय हो जातीं। भगवान की लीलाएँ उनके हृदय में स्फुरित होने लगतीं।


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. दशम स्कन्द, अध्याय 21, श्लोक 1-20
  2. उसे सुनकर गोपियों का हृदय प्रेम से परिपूर्ण हो गया।
  3. वे मन-ही-मन देखने लगीं कि
  4. हम वृन्दावन की गोपी होने पर भी इस प्रकार उन पर अपने को निछावर नहीं कर पातीं, हमारे घर वाले कुढ़ने लगते हैं। कितनी विड़म्बना हैं।
  5. दुहते समय गाय के पैर बाँधने की रस्सी
  6. भागने वाली गायों को पकड़ने की रस्सी

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