इन्द्रयज्ञ निवारण

'श्रीमद्भागवत महापुराण'[1] के अनुसार- श्रीशुकदेवजी कहते हैं- परीक्षित! भगवान श्रीकृष्ण बलरामजी के साथ वृन्दावन में रहकर अनेकों प्रकार की लीलाएँ कर रहे थे। उन्होंने एक दिन देखा कि वहाँ के सब गोप इन्द्र-यज्ञ करने की तैयारी कर रहे हैं। भगवान श्रीकृष्ण सबके अन्तर्यामी और सर्वज्ञ हैं। उनसे कोई बात छिपी नहीं थी, वे सब जानते थे। फिर भी विनयावनत होकर उन्होंने नन्दबाबा आदि बड़े-बूढ़े गोपों ने पूछा- "पिताजी! आप लोगों के सामने यह कौन-सा बड़ा भारी काम, कौन-सा उत्सव आ पहुँचा है? इसका फल क्या है? किस उद्देश्य से, कौन लोग, किन साधनों के द्वारा यह यज्ञ किया करते हैं? पिताजी! आप मुझे यह अवश्य बतलाइये। आप मेरे पिता हैं और मैं आपका पुत्र। ये बातें सुनने के लिये मुझे बड़ी उत्कण्ठा भी है। पिताजी! जो संत पुरुष सबको अपनी आत्मा मानते हैं, जिनकी दृष्टि में अपने और पराये का भेद नहीं है, जिनका न कोई मित्र है, न शत्रु और न उदासीन-उनके पास छिपाने की तो कोई होती ही नहीं। परन्तु यदि ऐसी स्थिति न हो तो रहस्य की बात शत्रु की भाँति उदासीन से भी नहीं करनी चाहिये। मित्र तो अपने समान ही कहा गया है, इसलिये उससे कोई बात छिपायी नहीं जाती। यह संसारी मनुष्य समझे-बेसमझे अनेकों प्रकार के कर्मों का अनुष्ठान करता है। उनमें से समझ-बूझकर करने वाले पुरुषों के कर्म जैसे सफल होते हैं, वैसे बेसमझ के नहीं। अतः इस समय आप लोग जो क्रियायोग करने जा रहे हैं, वह सुहृदों के साथ विचारित-शास्त्रसम्मत है अथवा लौकिक ही है, मैं यह सब जानना चाहता हूँ; आप कृपा करके स्पष्ट रूप से बतलाइये।"

नन्दबाबा ने कहा- "बेटा! भगवान इन्द्र वर्षा करने वाले मेघों के स्वामी हैं। ये मेघ उन्हीं के अपने रूप हैं। वे समस्त प्राणियों को तृप्त करने वाला एवं जीवनदान करने वाल जल बरसाते हैं। मेरे प्यारे पुत्र! हम और दूसरे लोग भी उन्हीं मेघपति भगवान इन्द्र की यज्ञों द्वारा पूजा किया करते हैं। जिन सामग्रियों से यज्ञ होता है, वे भी उनके बरसाये हुए शक्तिशाली जल से ही उत्पन्न होती हैं। उनका यज्ञ करने के बाद जो कुछ बच रहता है, उसी अन्न से हम सब मनुष्य अर्थ, धर्म और कामरूप त्रिवर्ग की सिद्धि के लिये अपना जीवन-निर्वाह करते हैं। मनुष्यों के खेती आदि प्रयत्नों के फल देने वाले इन्द्र ही हैं। यह धर्म हमारी कुलपरम्परा से चला आया है। जो मनुष्य काम, लोभ, भय अथवा द्वेषवश ऐसे परम्परागत धर्म को छोड़ देता है, उसका कभी मंगल नहीं होता।

श्रीशुकदेवजी कहते हैं- परीक्षित! ब्रह्मा, शंकर आदि के भी शासन करने वाले केशव भगवान ने नन्दबाबा और दूसरे ब्रजवासियों की बात सुनकर इन्द्र को क्रोध दिलाने के लिये अपने पिता नन्दबाबा से कहा। श्रीभगवान ने कहा- "पिताजी! प्राणी अपने कर्म के अनुसार ही पैदा होता होता और कर्म से ही मर जाता है। उसे उसके कर्म के अनुसार ही सुख-दुःख, भय और मंगल के निमित्तों की प्राप्ति होती है। यदि कर्मों को ही सब कुछ न मानकर उनसे भिन्न जीवों के कर्म का फल देने वाला ईश्वर माना भी जाय तो वह कर्म करने वालों को ही उनके कर्म के अनुसार फल दे सकता है। कर्म न करने वालों पर उसकी प्रभुता नहीं चल सकती।

जब सब प्राणी अपने-अपने कर्मों का ही फल भोग रहे हैं, तब हमें इन्द्र की क्या आवश्यकता है? पिताजी! जब वे पूर्वसंस्कार के अनुसार प्राप्त होने वाले मनुष्यों के कर्म-फल को बादल ही नहीं सकते, तब उनसे प्रयोजन? मनुष्य अपने स्वभाव (पूर्व-संस्कारों) के अधीन है। वह उसी का अनुसरण करता है। यहाँ तक कि देवता, असुर, मनुष्य आदि को लिये हुए यह सारा जगत स्वभाव में ही स्थित है। जीव अपने कर्मों के अनुसार उत्तम और अधम शरीरों को ग्रहण करता और छोड़ता रहता है। अपने कर्मों के अनुसार ही ‘यह शत्रु है, यह मित्र है, यह उदासीन है’-ऐसा व्यवहार करता है। कहाँ तक कहूँ, कर्म ही गुरु है और कर्म ही ईश्वर। इसलिये पिताजी! मनुष्य को चाहिये कि पूर्व-संस्कारों के अनुसार अपने वर्ण तथा आश्रम के अनुकूल धर्मों का पालन करता हुआ कर्म का ही आदर करे। जिसके द्वारा मनुष्य की जीविका सुगमता से चलती है, वही उसका इष्टदेव होता है। जैसे अपने विवाहित पति को छोड़कर जार पति का सेवन करने वाली व्यभिचारिणी स्त्री कभी शान्तिलाभ नहीं करती, वैसे ही जो मनुष्य अपनी आजीविका चलाने वाले एक देवता को छोड़कर किसी दूसरे की उपासना करते हैं, उससे उन्हें कभी सुख नहीं मिलता। ब्राह्मण वेदों के अध्ययन-अध्यापन से, क्षत्रिय पृथ्वीपालन से, वैश्य वार्तावृत्ति से और शूद्र ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यों की सेवा से अपनी जीविक का निर्वाह करें। वैश्यों की वार्तावृत्ति चार प्रकार की है-

  1. कृषि
  2. वाणिज्य
  3. गोरक्षा
  4. ब्याज लेना

हम लोग उन चारों में से एक केवल गोपालन ही सदा से करते आये हैं। पिताजी! इस संसार की स्थिति, उत्पत्ति और अन्त के कारण क्रमशः सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुण हैं। यह विविध प्रकार का सम्पूर्ण जगत स्त्री-पुरुष के सयोग से रजोगुण के द्वारा उत्पन्न होता है। उसी रजोगुण की प्रेरणा से मेघगण सब कहीं जल बरसाते हैं। उसी से अन्न और अन्न से ही सब जीवों की जीविका चलती है। इसमें भला इन्द्र का क्या लेना-देना है? वह भला, क्या कर सकता है?

पिताजी! न तो हमारे पास किसी देश का राज्य है और न तो बड़े-बड़े नगर ही हमारे अधीन हैं। हमारे पास गाँव या घर भी नहीं हैं। हम तो सदा से वनवासी हैं, वन और पहाड़ ही हमारे घर हैं। इसलिये हम लोग गौओं, ब्राह्मणों और गिरिराज का यजन करने की तैयारी करें। इन्द्र-यज्ञ के लिये जो सामग्रियाँ इकट्ठी की गयी हैं, उन्हीं से इस यज्ञ का अनुष्ठान होने होने दें। अनेकों प्रकार के पकवान- खीर, हलवा, पुआ, पूरी आदि से लेकर मूँग की दाल तक बनाये जायँ। ब्रज का सारा दूध एकत्र कर लिया जाय। वेदवादी ब्राह्मणों के द्वारा भली-भाँति हवन करवाया जाय तथा उन्हें अनेकों प्रकार के अन्न, गौएँ और दक्षिणाएँ दी जायँ। और भी, चाण्डाल, पतित तथा कुत्तों तक को यथायोग्य वस्तुएँ देकर गायों को चारा दिया जाय और फिर गिरिराज को भोग लगाया जाय। इसके बाद खूब प्रसाद खा-पीकर, सुन्दर-सुन्दर वस्त्र पहनकर गहनों से सज-सजा लिया जाय और चन्दन लगाकर गौ, ब्राह्मण, अग्नि तथा गिरिराज गोवर्धन की प्रदक्षिणा की जाय। पिताजी! मेरी तो ऐसी ही सम्पत्ति है। यदि आप-लोगों को रुचे तो ऐसा ही कीजिये। ऐसा यज्ञ गौ, ब्राह्मण और गिरिराज को तो प्रिय होगा ही; मुझे भी बहुत प्रिय है।

श्रीशुकदेवजी कहते हैं- परीक्षित! कालात्मा भगवान की इच्छा थी कि इन्द्र का घमण्ड चूर-चूर कर दें। नन्दबाबा आदि गोपों ने उनकी बात सुनकर बड़ी प्रसन्नता से स्वीकार कर ली। भगवान श्रीकृष्ण ने जिस प्रकार का यज्ञ करने को कहा था, वैसा ही यज्ञ उन्होंने प्रारम्भ किया। पहले ब्राह्मणों से स्वस्तिवाचन कराकर उसी सामग्री से गिरिराज और ब्राह्मणों को सादर भेंटे दीं तथा गौओं को हरी-हरी घास खिलायीं। इसके बाद नन्दबाबा आदि गोपों ने गौओं को आगे करके गिरिराज की प्रदक्षिणा की। ब्राह्मणों का आशीर्वाद प्राप्त करके वे और गोपियाँ भली-भाँति श्रृंगार करके और बैलों से जुती गाड़ियों पर सवार होकर भगवान श्रीकृष्ण की लीलाओं का गान करती हुई गिरिराज की परिक्रमा करने लगीं। भगवान श्रीकृष्ण गोपों को विश्वास दिलाने के लिये गिरिराज के ऊपर एक दूसरा विशाल शरीर धारण करके प्रकट हो गये, तथा "मैं गिरिराज हूँ"। इस प्रकार कहते हुए सारी सामग्री आरोगने लगे।

भगवान श्रीकृष्ण ने अपने उस स्वरूप को दूसरे ब्रजवासियों के साथ स्वयं भी प्रणाम किया और कहने लगे- "देखो, कैसा आश्चर्य है! गिरिराज ने साक्षात प्रकट होकर हम पर कृपा की है। ये चाहे जैसा रूप धारण कर सकते हैं। जो वनवासी जीव इनका निरादर करते हैं, उन्हें ये नष्ट कर डालते हैं। आओ, अपना और गौओं का कल्याण करने के लिये इन गिरिराज को हम नमस्कार करें।" इस प्रकार भगवान श्रीकृष्ण की प्रेरणा से नन्दबाबा आदि बड़े-बड़े गोपों ने गिरिराज, गौ और ब्राह्मणों का विधिपूर्वक पूजन किया तथा फिर श्रीकृष्ण के साथ सब ब्रज में लौट आये।


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. दशम स्कन्ध, अध्याय 24, श्लोक 1-38

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