द्वारका

द्वारिकाधीश मन्दिर, द्वारका, गुजरात

द्वारका दक्षिण-पश्चिम गुजरात राज्य, पश्चिम-मध्य भारत का प्रसिद्ध नगर है। यह काठियावाड़ प्रायद्वीप के छोटे पश्चिमी विस्तार, ओखामंडल प्रायद्वीप के पश्चिमी तट पर स्थित है। द्वारका कई द्वारों का शहर (संस्कृत में द्वारका या द्वारवती) को जगत या जिगत के रूप में भी जाना जाता है। द्वारका भगवान कृष्ण की पौराणिक राजधानी थी, जिन्होंने मथुरा से पलायन के बाद इसकी स्थापना की थी। इसकी पवित्रता के कारण यह सात प्रमुख हिंदू तीर्थस्थलों में से एक है, हालांकि इस नगर के मूल मंदिरों को 1372 में दिल्ली के शासकों ने नष्ट कर दिया था। नगर का अधिकांश राजस्व तीर्थयात्रियों से मिलता है; ज्वार-बाजरा, घी, तिलहन और नमक यहाँ के बंदरगाह से जहाज़ों द्वारा भेजे जाते हैं। वस्तुत: द्वारका दो हैं-

  1. गोमती द्वारका
  2. बेट द्वारका, गोमती द्वारका धाम है, बेट द्वारका पुरी है। बेट द्वारका के लिए समुद्र मार्ग से जाना पड़ता है।

मान्यता है कि द्वारका को श्रीकृष्ण ने बसाया था और मथुरा से यदुवंशियों को लाकर इस संपन्न नगर को उनकी राजधानी बनाया था, किंतु उस वैभव के कोई चिह्न अब नहीं दिखाई देते। कहते हैं, यहाँ जो राज्य स्थापित किया गया उसका राज्यकाल मुख्य भूमि में स्थित द्वारका अर्थात गोमती द्वारका से चलता था। बेट द्वारका रहने का स्थान था। (यहाँ समुद्र में ज्वार के समय एक तालाब पानी से भर जाता है। उसे गोमती कहते हैं। इसी कारण द्वारका गोमती द्वारका भी कहलाती है)। यह भारत की सात पवित्र पुरियों में से एक हैं, जिनकी सूची निम्नांकित है:

अयोध्या मथुरा माया काशी काशी अवन्तिका।
पुरी द्वारवती जैव सप्तैता मोक्षदायिका:॥

कुशस्थली

  • गुजरात का द्वारका शहर वह स्थान है जहाँ 5000 वर्ष पूर्व भगवान कृष्ण ने मथुरा छोड़ने के बाद द्वारका नगरी बसाई थी। जिस स्थान पर उनका निजी महल 'हरि गृह' था। वहाँ आज प्रसिद्ध द्वारकाधीश मंदिर है। इसलिए कृष्ण भक्तों की दृष्टि में यह एक महान तीर्थ है।
  • द्वारका का प्राचीन नाम है। पौराणिक कथाओं के अनुसार महाराजा रैवतक के समुद्र में कुश बिछाकर यज्ञ करने के कारण ही इस नगरी का नाम कुशस्थली हुआ था। बाद में त्रिविक्रम भगवान ने कुश नामक दानव का वध भी यहीं किया था। त्रिविक्रम का मंदिर द्वारका में रणछोड़जी के मंदिर के निकट है। ऐसा जान पड़ता है कि महाराज रैवतक (बलराम की पत्नी रेवती के पिता) ने प्रथम बार, समुद्र में से कुछ भूमि बाहर निकाल कर यह नगरी बसाई होगी।

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  • हरिवंश पुराण [1] के अनुसार कुशस्थली उस प्रदेश का नाम था जहाँ यादवों ने द्वारका बसाई थी।
  • विष्णु पुराण के अनुसार,[2] आनर्त के रेवत नामक पुत्र हुआ जिसने कुशस्थली नामक पुरी में रह कर आनर्त पर राज्य किया। विष्णु पुराण [3] से सूचित होता है कि प्राचीन कुशावती के स्थान पर ही श्रीकृष्ण ने द्वारका बसाई थी।
'कुशस्थली या तव भूप रम्या पुरी पुराभूदमरावतीव, सा द्वारका संप्रति तत्र चास्ते स केशवांशो बलदेवनामा'।
  • कुशावती का अन्य नाम कुशावर्त भी है। एक प्राचीन किंवदंती में द्वारका का संबंध 'पुण्यजनों' से बताया गया है। ये 'पुण्यजन' वैदिक 'पणिक' या 'पणि' हो सकते हैं। अनेक विद्वानों का मत है कि पणिक या पणि प्राचीन ग्रीस के फिनीशियनों का ही भारतीय नाम था। ये लोग अपने को कुश की संतान मानते थे[4]। इस प्रकार कुशस्थली या कुशावर्त नाम बहुत प्राचीन सिद्ध होता है। पुराणों के वंशवृत्त में शार्यातों के मूल पुरुष शर्याति की राजधानी भी कुशस्थली बताई गई है।
  • महाभारत, [5] के अनुसार कुशस्थली रैवतक पर्वत से घिरी हुई थी-'कुशस्थली पुरी रम्या रैवतेनोपशोभितम्'। जरासंध के आक्रमण से बचने के लिए श्रीकृष्ण मथुरा से कुशस्थली आ गए थे और यहीं उन्होंने नई नगरी द्वारका बसाई थी। पुरी की रक्षा के लिए उन्होंने अभेद्य दुर्ग की रचना की थी जहाँ रह कर स्त्रियां भी युद्ध कर सकती थीं।
'तथैव दुर्गसंस्कारं देवैरपि दुरासदम्, स्त्रियोऽपियस्यां युध्येयु: किमु वृष्णिमहारथा:'।[6]
  • भगवान कृष्ण के जीवन से सम्बन्ध होने के कारण इसका विशेष महत्त्व है। महाभारत के वर्णनानुसार कृष्ण का जन्म मथुरा में कंस तथा दूसरे दैत्यों के वध के लिए हुआ। इस कार्य को पूरा करने के पश्चात् वे द्वारका (काठियावाड़) चले गये। आज भी गुजरात में स्मार्त्त ढंग की कृष्णभक्ति प्रचलित है। यहाँ के दो प्रसिद्ध मन्दिर 'रणछोड़राय' के हैं, अर्थात् उस व्यक्ति से सम्बन्धित हैं जिसने ऋण (कर्ज) छुड़ा दिया। इसमें जरासंध से भय से कृष्ण द्वारा मथुरा छोड़कर द्वारका भाग जाने का अर्थ भी निहित है। किन्तु वास्तव में 'बोढाणा' भक्त की प्रीति से कृष्ण का द्वारका से डाकौर चुपके से चला आना और पंडों के प्रति भक्त का ऋण चुकाना- यह भाव संनिहित है। ये दोनों मन्दिर डाकौर (अहमदाबाद के समीप) तथा द्वारका में हैं। दोनों में वैदिक नियमानुसार ही यज्ञ आदि किये जाते हैं।
  • तीर्थयात्रा में यहाँ आकर गोपीचन्दन लगाने का विशेष महत्त्व समझा जाता है। यह आगे चलकर कृष्ण के नेतृत्व में यादवों की राजधानी हो गयी थी। यह चारों धामों में एक धाम भी है। कृष्ण के अन्तर्धान होने के पश्चात् प्राचीन द्वारकापुरी समुद्र में डूब गयी। केवल भगवान का मन्दिर समुद्र ने नहीं डुबोया। यह नगरी सौराष्ट्र (काठियावाड़) में पश्चिमी समुद्रतट पर स्थित है।

विशेषता

यहाँ के विशाल भवन सूर्य और चंद्रमा के समान प्रकाशवान् तथा मेरु के समान उच्च थे। नगरी के चतुर्दिक चौड़ी खाइयां थीं जो गंगा और सिंधु के समान जान पड़ती थीं और जिनके जल में कमल के पुष्प खिले थे तथा हंस आदि पक्षी क्रीड़ा करते थे[7]। सूर्य के समान प्रकाशित होने वाला एक परकोटा नगरी को सुशोभित करता था जिससे वह श्वेत मेघों से घिरे हुए आकाश के समान दिखाई देती थी [8]। रमणीय द्वारकापुरी की पूर्वदिशा में महाकाय रैवतक नामक पर्वत (वर्तमान गिरनार) उसके आभूषण के समान अपने शिखरों सहित सुशोभित होता था [9]। नगरी के दक्षिण में लतावेष्ट, पश्चिम में सुकक्ष और उत्तर में वेष्णुमंत पर्वत स्थित थे और इन पर्वतों के चतुर्दिक् अनेक उद्यान थे। महानगरी द्वारका के पचास प्रवेश द्वार थे- [10]। शायद इन्हीं बहुसंख्यक द्वारों के कारण पुरी का नाम द्वारका या द्वारवती था। पुरी चारों ओर गंभीर सागर से घिरी हुई थी। सुन्दर प्रासादों से भरी हुई द्वारका श्वेत अटारियों से सुशोभित थी। तीक्ष्ण यन्त्र, शतघ्नियां , अनेक यन्त्रजाल और लौहचक्र द्वारका की रक्षा करते थे-[11]। द्वारका की लम्बाई बारह योजन तथा चौड़ाई आठ योजन थी तथा उसका उपनिवेश (उपनगर) परिमाण में इसका द्विगुण था [12]। द्वारका के आठ राजमार्ग और सोलह चौराहे थे जिन्हें शुक्राचार्य की नीति के अनुसार बनाया गया था।[13] द्वारका के भवन मणि, स्वर्ण, वैदूर्य तथा संगमरमर आदि से निर्मित थे। श्रीकृष्ण का राजप्रासाद चार योजन लंबा-चौड़ा था, वह प्रासादों तथा क्रीड़ापर्वतों से संपन्न था। उसे साक्षात् विश्वकर्मा ने बनाया था [14]। श्रीकृष्ण के स्वर्गारोहण के पश्चात् समग्र द्वारका, श्रीकृष्ण का भवन छोड़कर समुद्रसात हो गयी थी जैसा कि विष्णु पुराण के इस उल्लेख से सिद्ध होता है-

'प्लावयामास तां शून्यां द्वारकां च महोदधि: वासुदेवगृहं त्वेकं न प्लावयति सागर:,[15]

पर्यटन स्थल

द्वारका के पर्यटन स्थलों में जगत मंदिर; 48मीटर ऊंचा खूब नक़्क़ाशीदार मीनार वाला पांच मंज़िला प्राचीन मंदिर 32 किमी दूर शंखोद्वार द्वीप में प्रसिद्ध रणछोड़रायजी मंदिर एवं मत्स्यवतार मंदिर; गोपी झील तथा द्वारिकावन शामिल है। द्वारिका में व्यापक रूप से सीमेंट का काम होता है।

मोक्ष तीर्थ

नंगेश्वर महादेव, द्वारका, गुजरात

हिन्दुओं के चार धामों में से एक गुजरात की द्वारिकापुरी मोक्ष तीर्थ के रूप में जानी जाती है। पूर्णावतार श्रीकृष्ण के आदेश पर विश्वकर्मा ने इस नगरी का निर्माण किया था। श्रीकृष्ण ने मथुरा से सब यादवों को लाकर द्वारका में बसाया था। महाभारत में द्वारका का विस्तृत वर्णन है जिसका कुछ अंश इस प्रकार है-द्वारका के मुख्य द्वार का नाम वर्धमान था[16]। नगरी के सब ओर सुन्दर उद्यानों में रमणीय वृक्ष शोभायमान थे, जिनमें नाना प्रकार के फल-फूल लगे थे।

द्वारिकाधीश मंदिर

द्वारिकाधीश मन्दिर, द्वारका, गुजरात
Dwarkadhish Temple, Dwarka, Gujarat

द्वारिकाधीश मंदिर कांकरोली में राजसमन्द झील के किनारे पाल पर स्थित है। मेवाड़ के चार धाम में से एक द्वारिकाधीश मंदिर भी आता है, द्वारिकाधीश काफ़ी समय पूर्व संवत 1726-27 में यहाँ ब्रज से कांकरोली पधारे थे। मंदिर सात मंज़िला है। भीतर चांदी के सिंहासन पर काले पत्थर की श्रीकृष्ण की चतुर्भुजी मूर्ति है। कहते हैं, यह मूल मूर्ति नहीं है। मूल मूर्ति डाकोर में है। द्वारिकाधीश मंदिर से लगभग 2 किमी दूर एकांत में रुक्मिणी का मंदिर है। कहते हैं, दुर्वासा के शाप के कारण उन्हें एकांत में रहना पड़ा। कहा जाता है कि उस समय भारत में बाहर से आए आक्रमणकारियों का सर्वत्र भय व्याप्त था, क्योंकि वे आक्रमणकारी न सिर्फ़ मंदिरों कि अतुल धन संपदा को लूट लेते थे बल्कि उन भव्य मंदिरों व मूर्तियों को भी तोड कर नष्ट कर देते थे। तब मेवाड यहाँ के पराक्रमी व निर्भीक राजाओं के लिये प्रसिद्ध था। सर्वप्रथम प्रभु द्वारिकाधीश को आसोटिया के समीप देवल मंगरी पर एक छोटे मंदिर में स्थापित किया गया, तत्पश्चात् उन्हें कांकरोली के इस भव्य मंदिर में बड़े उत्साहपूर्वक लाया गया। आज भी द्वारका की महिमा है। यह चार धामों में एक है। सात पुरियों में एक पुरी है। इसकी सुन्दरता बखानी नहीं जाती। समुद्र की बड़ी-बड़ी लहरें उठती है और इसके किनारों को इस तरह धोती है, जैसे इसके पैर पखार रही हों। पहले तो मथुरा ही कृष्ण की राजधानी थी। पर मथुरा उन्होंने छोड़ दी और द्वारका बसाई। द्वारका एक छोटा-सा-कस्बा है। कस्बे के एक हिस्से के चारों ओर चहारदीवारी खिंची है इसके भीतर ही सारे बड़े-बड़े मन्दिर है। द्वारका के दक्षिण में एक लम्बा ताल है। इसे गोमती तालाब कहते हैं। द्वारका में द्वारकाधीश मंदिर के निकट ही आदि शंकराचार्य द्वारा देश में स्थापित चार मठों में से एक मठ भी है।

नागेश्वर ज्योतिर्लिंग

नागेश्वर मन्दिर, द्वारका, गुजरात

श्री नागेश्वर ज्योतिर्लिंग गुजरात प्रान्त के द्वारकापुरी से लगभग 25 किलोमीटर की दूरी पर अवस्थित है। यह स्थान गोमती द्वारका से बेट द्वारका जाते समय रास्ते में ही पड़ता है। द्वारका से नागेश्वर-मन्दिर के लिए बस,टैक्सी आदि सड़क मार्ग के अच्छे साधन उपलब्ध होते हैं। रेलमार्ग में राजकोट से जामनगर और जामनगर रेलवे से द्वारका पहुँचा जाता है।

रणछोड़ जी मंदिर

कहा जाता है कृष्ण के भवन के स्थान पर ही रणछोड़ जी का मूल मंदिर है। यह परकोटे के अंदर घिरा हुआ है और सात-मंज़िला है। इसके उच्चशिखर पर संभवत: संसार की सबसे विशाल ध्वजा लहराती है। यह ध्वजा पूरे एक थान कपड़े से बनती है। द्वारकापुरी महाभारत के समय तक तीर्थों में परिगणित नहीं थी।

  • जैन सूत्र अंतकृतदशांग में द्वारवती के 12 योजन लंबे, 9 योजन चौड़े विस्तार का उल्लेख है तथा इसे कुबेर द्वारा निर्मित बताया गया है और इसके वैभव और सौंदर्य के कारण इसकी तुलना अलका से की गई है। रैवतक पर्वत को नगर के उत्तरपूर्व में स्थित बताया गया है। पर्वत के शिखर पर नंदन-वन का उल्लेख है।
  • श्रीमद् भागवत में भी द्वारका का महाभारत से मिलता जुलता वर्णन है। इसमें भी द्वारका को 12 योजन के परिमाण का कहा गया है तथा इसे यंत्रों द्वारा सुरक्षित तथा उद्यानों, विस्तीर्ण मार्गों एवं ऊंची अट्टालिकाओं से विभूषित बताया गया है,[17]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. हरिवंश पुराण 1,11,4
  2. 'आनर्तस्यापि रेवतनामा पुत्रोजज्ञे योऽसावानर्तविषयं बुभुजे पुरीं च कुशस्थलीमध्युवास' विष्णु पुराण 4,1,64.
  3. विष्णु पुराण 4,1,91
  4. वेडल-मेकर्स आव सिविलीजेशन, पृ0 80
  5. महाभारत सभा पर्व 14,50
  6. महाभारत, सभा पर्व 14,51
  7. 'पद्यषंडाकुलाभिश्च हंससेवितवारिभि: गंगासिंधुप्रकाशाभि: परिखाभिरंलंकृता महाभारत सभा पर्व 38
  8. 'प्राकारेणार्कवर्णेन पांडरेण विराजिता, वियन् मूर्घिनिविष्टेन द्योरिवाभ्रपरिच्छदा' महाभारत सभा पर्व 38
  9. 'भाति रैवतक: शैलो रम्यसनुर्महाजिर:, पूर्वस्यां दिशिरम्यायां द्वारकायां विभूषणम्'महाभारत सभा पर्व 38
  10. 'महापुरी द्वारवतीं पंचाशद्भिर्मुखै र्युताम्' महाभारत सभा पर्व 38
  11. 'तीक्ष्णयन्त्रशतघ्नीभिर्यन्त्रजालै: समन्वितां आयसैश्च महाचक्रैर्ददर्श। महाभारत सभा पर्व 38
  12. 'अष्ट योजन विस्तीर्णामचलां द्वादशायताम् द्विगुणोपनिवेशांच ददर्श द्वारकांपुरीम्'महाभारत सभा पर्व 38
  13. ('अष्टमार्गां महाकक्ष्यां महाषोडशचत्वराम् एव मार्गपरिक्षिप्तां साक्षादुशनसाकृताम्'महाभारत सभा पर्व 38)
  14. 'साक्षाद् भगवतों वेश्म विहिंत विश्वकर्मणा, ददृशुर्देवदेवस्य-चतुर्योजनमायतम्, तावदेव च विस्तीर्णमप्रेमयं महाधनै:, प्रासादवरसंपन्नं युक्तं जगति पर्वतै:'
  15. विष्णु. 5,38,9
  16. 'वर्धमानपुरद्वारमाससाद पुरोत्तमम्' महाभारत सभा पर्व 38
  17. 'इति संमन्त्र्य भगवान दुर्ग द्वादशयोजनम्, अंत: समुद्रेनगरं कृत्स्नाद्भुतमचीकरत्। दृश्यते यत्र हि त्वाष्ट्रं विज्ञानं शिल्प नैपुणम् , रथ्याचत्वरवीथीभियथावास्तु विनिर्मितम्। सुरद्रुमलतोद्यानविचत्रोपवनान्वितम्, हेमश्रृंगै र्दिविस्पृग्भि: स्फाटिकाट्टालगोपुरै:' श्रीमद्भागवत 10,50, 50-52

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