कृष्ण के सोलह हज़ार विवाह

'श्रीमद्भागवत महापुराण'[1] के अनुसार- श्रीशुकदेवजी कहते हैं- "परीक्षित! भगवान की स्तुति करते हुए पृथ्वी देवी ने कहा- "शंखचक्रगदाधारी देव-देवेश्वर! मैं आपको नमस्कार करती हूँ। परमात्मन! आप अपने भक्तों की इच्छा पूर्ण करने के लिये उसी के अनुसार रूप प्रकट किया करते हैं। आपको नमस्कार करती हूँ। प्रभो! आपकी नाभि से कमल प्रकट हुआ है। आप कमल की माला पहनते हैं। आपके नेत्र कमल से खिले हुए और शान्तिदायक हैं। आपके चरण कमल के समान सुकुमार और भक्तों के हृदय को शीतल करने वाले हैं। आपको मैं बार- बार नमस्कार करती हूँ। आप समग्र ऐश्वर्य, धर्म, यश, सम्पत्ति, ज्ञान और वैराग्य के आश्रय हैं। आप सर्वव्यापक होने पर भी स्वयं वसुदेवनन्दन के रूप में प्रकट हैं। मैं आपको नमस्कार करती हूँ। आप ही पुरुष हैं और समस्त कारणों के भी परम कारण हैं। आप स्वयं पूर्ण ज्ञानस्वरूप हैं। मैं आपको नमस्कार करती हूँ। आप स्वयं तो हैं जन्मरहित, परन्तु इस जगत के जन्मदाता आप ही हैं। आप ही अनन्त शक्तियों के आश्रय ब्रह्मा हैं। जगत का जो कुछ भी कार्य- कारणमय रूप है, जितने भी प्राणी या अप्राणी हैं, सब आपके ही स्वरूप हैं। परमात्मन! आपके चरणों में मेरा बार-बार नमस्कार।"

"प्रभो! जब आप जगत की रचना करना चाहते हैं, तब उत्कट रजोगुण को, और जब इसका प्रलय करना चाहते हैं, तब तमोगुण को, तथा जब इसका पालन करना चाहते हैं, सत्त्वगुण को स्वीकार करते हैं। परन्तु यह सब करने पर भी आप इन गुणों से ढकते नहीं, लिप्त नहीं होते। जगत्पते! आप स्वयं ही प्रकृति, पुरुष और दोनों के संयोग-वियोग के हेतु काल हैं तथा उन तीनों से परे भी हैं। भगवन! मैं (पृथ्वी), जल, अग्नि, वायु, आकाश, पंचतन्मात्राएँ, मन, इन्द्रिय और इनके अधिष्ठातृ- देवता, अहंकार और महतत्त्व- कहाँ तक कहूँ, यह सम्पूर्ण चराचर जगत आपके अद्वितीय स्वरूप में भ्रम के कारण ही पृथक प्रतीत हो रहा है। शरणागत-भय-भंजन प्रभो! मेरे पुत्र भौमासुर का यह पुत्र भगदत्त अत्यन्त भयभीत हो रहा है। मैं इसे आपके चरणकमलों की शरण में ले आयी हूँ। प्रभो! आप इसकी रक्षा कीजिये और इसके सिर पर अपना वह करकमल रखिये, जो सारे जगत के समस्त पाप-तापों को नष्ट करने वाला है।"

श्रीशुकदेवजी कहते हैं- "परीक्षित! जब पृथ्वी ने भक्तिभाव से विनम्र होकर इस प्रकार भगवान श्रीकृष्ण की स्तुति-प्रार्थना की, तब उन्होंने भगदत्त को अभयदान दिया और भौमासुर के समस्त सम्पत्तियों से सम्पन्न महल में प्रवेश किया। वहाँ जाकर भगवान ने देखा कि भौमासुर ने बलपूर्वक राजाओं से सोलह हज़ार राजकुमारियाँ छीनकर अपने यहाँ रख छोड़ी थीं। जब उन राजकुमारियों ने अन्तःपुर में पधारे हुए नरश्रेष्ठ भगवान श्रीकृष्ण को देखा, तब वे मोहित हो गयीं और उन्होंने उनकी अहैतु की कृपा तथा अपना सौभग्य समझकर मन-ही-मन भगवान को अपने परम प्रियतम पति के रूप में वरण कर लिया। उन राजकुमारियों में से प्रत्येक ने अलग-अलग अपने मन में यही निश्चय किया कि ‘ये श्रीकृष्ण ही मेरे पति हों और विधाता मेरी इस अभिलाषा को पूर्ण करें।’ इस प्रकार उन्होंने प्रेम-भाव से अपना हृदय भगवान के प्रति निछावर कर दिया। तब भगवान श्रीकृष्ण ने उन राजकुमारियों को सुन्दर- सुन्दर निर्मल वस्त्राभूषण पहनाकर पालकियों से द्वारका भेज दिया और उनके साथ ही बहुत-से खजाने, रथ, घोड़े तथा अतुल सम्पत्ति भी भेजी। ऐरावत के वंश में उत्पन्न हुए अत्यन्त वेगवान चार-चार दाँतों वाले सफ़ेद रंग के चौंसठ हाथी भी भगवान ने वहाँ से द्वारका भेजे।

इसके बाद भगवान श्रीकृष्ण अमरावती में स्थित देवराज इन्द्र के महलों में गये। वहाँ देवराज इन्द्र ने अपनी पत्नी इन्द्राणी के साथ सत्यभामाजी और भगवान श्रीकृष्ण की पूजा की, तब भगवान ने अदिति के कुण्डल उन्हें दे दिये। वहाँ से लौटते समय सत्यभामाजी की प्रेरणा से भगवान श्रीकृष्ण ने कल्पवृक्ष उखाड़कर गरुड़ पर रख दिया और देवराज इन्द्र तथा समस्त देवताओं को जीतकर उसे द्वारका ले आये। भगवान ने उसे सत्यभामा के महल के बगीचे में लगा दिया। इससे उस बगीचे की शोभा अत्यन्त बढ़ गयी। कल्पवृक्ष के साथ उसके गन्ध और मकरन्द के लोभी भौरें स्वर्ग से द्वारका में चले आये थे। परीक्षित! देखो तो सही, जब इन्द्र को अपना काम बनाना था, तब तो उन्होंने अपना सिर झुकाकर मुकुट की नोक से भगवान श्रीकृष्ण के चरणों का स्पर्श करके उनसे सहायता की भिक्षा माँगी थी, परन्तु जब काम बन गया, तब उन्होंने उन्हीं भगवान श्रीकृष्ण से लड़ाई ठान ली। सचमुच ये देवता भी बड़े तमोगुणी हैं और सबसे बड़ा दोष तो उनमें धनाढ्यता का है। धिक्कार है ऐसी धनाढ्यता को।

तदनन्तर भगवान श्रीकृष्ण ने एक ही मुहूर्त में अलग-अलग भवनों में अलग-अलग रूप धारण करके एक ही साथ सब राजकुमारियों का शास्त्रोक्त विधि से पाणिग्रहण किया। सर्वशक्तिमान अविनाशी भगवान के लिये इसमें आश्चर्य की कौन-सी बात है। परीक्षित! भगवान की पत्नियाँ के अलग-अलग महलों में ऐसी दिव्य सामग्रियाँ भरी हुई थीं, जिनके बराबर जगत में कहीं भी और कोई भी सामग्री नहीं है; फिर अधिक की तो बात ही क्या है। उन महलों में रहकर मति-गति के परे की लीला करने वाले अविनाशी भगवान श्रीकृष्ण अपने आत्मानन्द में मग्न रहते हुए लक्ष्मीजी की अंशस्वरूपा उन पत्नियों के साथ ठीक वैसे ही विहार करते थे, जैसे कोई साधारण मनुष्य घर-गृहस्थी में रहकर गृहस्थ-धर्म के अनुसार आचरण करता हो। परीक्षित! ब्रह्मा आदि बड़े-बड़े देवता भी भगवान के वास्तविक स्वरूप को और उनकी प्राप्ति के मार्ग को नहीं जानते। उन्हीं रमारमण भगवान श्रीकृष्ण को उन स्त्रियों ने पति के रूप में प्राप्त किया था। अब नित्य-निरन्तर उनके प्रेम और आनन्द की अभिवृद्धि होती रहती थी और वे प्रेमभरी मुसकराहट, मधुर चितवन, नवसमागम, प्रेमालाप तथा भाव बढ़ाने वाली लज्जा से युक्त होकर सब प्रकार से भगवान की सेवा करती रहती थीं। उनमें से सभी पत्नियों के साथ सेवा करने के लिये सैकड़ों दासियाँ रहतीं, फिर भी जब उनके महल में भगवान पधारते तब वे स्वयं आगे जाकर आदरपूर्वक उन्हें लिवा लातीं, श्रेष्ठ आसन पर बैठातीं, उत्तम सामग्रियों से पूजा करतीं, चरणकमल पखारतीं, पान लगाकर खिलातीं, पाँव दबाकर थकावट दूर करतीं, पंखा झलती, इत्र- फुलेल, चन्दन आदि लगातीं, फूलों के हार पहनातीं, केश सँवारतीं, सुलातीं, स्नान करातीं और अनेक प्रकार के भोजन कराकर अपने ही हाथों भगवान की सेवा करतीं।"


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. दशम स्कन्ध, अध्याय 59, श्लोक 25- 45

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