देवकी

संक्षिप्त परिचय
देवकी
कृष्ण-बलराम, देवकी-वसुदेव से मिलते हुए, द्वारा- राजा रवि वर्मा
वंश-गोत्र अंधक वंश
पिता देवक
धर्म-संप्रदाय हिन्दू
परिजन वसुदेव, कृष्ण, बलराम, उग्रसेन
विवाह वसुदेव
संतान कृष्ण, बलराम
प्रसिद्ध घटनाएँ कृष्ण जन्म
संबंधित लेख मथुरा, उग्रसेन, देवक, कंस, वसुदेव, रोहिणी, श्रीकृष्ण, बलराम, नंद, यशोदा
विशेष भगवान श्रीकृष्ण ने देवकी के आठवें गर्भ से जन्म लिया था, जिन्होंने मथुरा नरेश कंस का वध कर उसके अत्याचारों से समस्त प्रजा को मुक्त किया।
अन्य जानकारी देवकी उग्रसेन के छोटे भाई देवक की सबसे छोटी कन्या थी। कंस अपनी छोटी चचेरी बहन देवकी से अत्यन्त स्नेह करता था। कंस ने पति सहित देवकी को कारावास में रखा, क्योंकि एक आकाशवाणी ने उसे बताया था कि देवकी का आठवाँ पुत्र ही उसका वध करेगा।

देवकी मथुरा के राजा उग्रसेन के छोटे भाई देवक की पुत्री थीं। ये कंस की चचेरी बहन थीं। भगवान श्रीकृष्ण का इनके आठवें गर्भ से जन्म हुआ था। इससे पूर्व देवकी के सातवें गर्भ को देवी योगमाया ने संकर्षित करके वसुदेव की दूसरी पत्नी रोहिणी के गर्भ में स्थापित कर दिया था, जिससे महाबलि बलराम का जन्म हुआ था।

परिचय

राजा आहुक ने अपनी बहिन आहुकी का विवाह अवंती देश में किया था। आहुक की एक पुत्री भी थी, जिसने दो पुत्र उत्पन्न किये। उनके नाम थे- देवक और उग्रसेन। वे दोनों देवकुमारों के समान तेजस्वी थे। देवक के चार पुत्र हुए, जो देवताओं के समान सुन्दर और वीर थे, जिनके नाम- 'देववान', 'उपदेव', 'सुदेव' और 'देवरक्षक' थे। उनके सात बहनें थीं, जिनका विवाह देवक ने वसुदेव के साथ कर दिया था। उन सातों के नाम इस प्रकार थे- 'देवकी', 'श्रुतदेवी', 'यशोधरा', 'श्रुतिश्रवा', 'श्रीदेवी', 'उपदेवा' और 'सुरूपा'। उग्रसेन के नौ पुत्र हुए; उनमें कंस सबसे बड़ा था। शेष के नाम थे- 'न्यग्रोध', 'सुनामा', 'कंक', 'शंकु', 'सुहू', 'राष्ट्रपाल', 'सृष्टि' और 'तुष्टिमान'। उनके पाँच बहनें थीं- 'कंसा', 'कंसवती', 'सुरभी', 'राष्ट्रपाली' और 'कंका'। ये सब-की-सब बड़ी सुन्दरी थीं। इस प्रकार सन्तानों सहित उग्रसेन तक कुकुर-वंश का वर्णन किया गया है।

विवाह

देवकी कंस से छोटी थी, अतः वह इन्हें बहुत प्यार करता था। इनका विवाह यदुवंशी राजा वसुदेव से हुआ। देवक ने अपनी पुत्री का विवाह बड़े ही उल्लास के साथ किया था। बहुत-सा दहेज वसुदेव जी को दिया गया और बड़ी धूमधाम से विवाह का समस्त कार्य सम्पन्न हुआ। कंस अपनी बहन के प्रति स्नेह प्रदर्शित करने के लिये विदाई के समय उसके रथ को स्वयं हांकने लगा। रथ में नवविवाहिता देवकी और वसुदेव बैठे थे।

आकाशवाणी

कंस घोड़ों को हांक रहा था। इसी समय आकाशवाणी हुई-

"अरे ओ मूढ़ कंस ! तू जिस बहन के रथ को इतनी प्रीति से हांक रहा है, इसी का अष्टम गर्भ तुझे मारेगा।"
देवकी वध को प्रयात्नशील कंस

बस, फिर क्या था, रंग में भंग पड़ गया, अमृत में विष मिल गया। हर्ष के स्थान में उदासी छा गयी, स्नेह का स्थान द्वेष ने ग्रहण कर लिया। कंस क्रोध के साथ बोला- "बस, न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी। विष के वृक्ष को बढ़ने ही क्यों दिया जाय कि फिर उसके फलों से मृत्यु की संभावना हो। बढ़ने के पहले वृक्ष को काट ही देना बुद्धिमानी है। मैं अभी इस देवकी का अन्त किये देता हूँ।" पास में बैठे हुए वसुदेव ने बड़े धैर्य के साथ उसे समझाया, ज्ञान की बातें बतायी, धर्म सुझाया और अन्त में विश्वास दिलाया कि- "इसके जितने भी पुत्र होंगे, हम सब तुम्हें दे जाया करेंगे। तुम इस अबला को, जो तुम्हारी छोटी बहन है, नवविवाहिता है, क्यों मारते हो?" भगवान की प्रेरणा से उसके मन में यह बात बैठ गयी।

भगवान का जन्म

कंस ने देवकी को छोड़ दिया, परन्तु पीछे से वसुदेव के सहित देवकी को कारावास में बंद कर दिया। क्रमशः देवकी के गर्भ से सात संतानें हुई। अपनी प्रतिज्ञानुसार वसुदेव ने उन्हें कंस को सौंप दिया और उस दुष्ट ने सभी को मार डाला। अष्टम गर्भ में साक्षात श्रीभगवान चतुर्भुज रूप में प्रकट हुए। यह गर्भ देवकी के लिये ‘हर्षशोकविविर्धनः’ हुआ। हर्ष तो इस बात का था कि साक्षात भगवान अवतीर्ण हुए हैं, शोक कंस के अत्यचारों को लेकर, जब भगवान अपनी प्रभा से दसों दिशाओं को जगमगाते हुए शंख, चक्र, गदा पद्म के साथ चतुर्भुज रूप में प्रकट हुए, तब देवकी माता ने उनकी बड़ी स्तुति की और प्रार्थना की- "प्रभो ! मैं कंस से बहुत डरती हूं, वह तुम्हें भी मार डालेगा। अतः उससे मेरी रक्षा करो और अपना यह अलौकिक रूप छिपा लो।" लीलामय भगवान ने कहा- "यदि ऐसा ही है तो मुझे नन्द के गोकुल में भेज दो; वहाँ यशोदा के गर्भ में मेरी माया उत्पन्न हुई है, उसे ले आओ।" यह कहकर प्रभु साधारण शिशु हो गये। वसुदेव भगवान को नन्द जी के यहाँ पहुँचा आये और वहाँ से कन्या को ले आये।

बन्दी जीवन से मुक्ति

बालक उत्पन्न हुआ है, यह सुनकर कंस आया और उसने उस शिशु-कन्या को ज्यों ही पत्थर पर पटका, त्यों ही वह असाधारण कन्या आकाश में उड़कर अष्टभुजा के रूप में परिवर्तित हो गयी। भगवान श्रीकृष्ण ब्रज में ही बड़े हुए। देवकी माता अपने हृदय के टुकड़े को देखने के लिये तरसती रहीं। उनका मन उस श्यामसुन्दर सलोनी मनमोहिनी मूर्ति के लिये तरसता रहा। कंस को मारकर जब भगवान देवकी जी और वसुदेव जी के पास आये, तब भगवान ने अत्यन्त स्नेह प्रदर्शित करते हुए कहा- "आप लोग सदा मेरे लिये उत्कण्ठित रहे; किंतु मैं आप लागों की कुछ भी सेवा शुश्रूषा नहीं कर सका। बाल्यकाल की क्रीड़ाएं करके बालक माता-पिता को प्रमुदित करता है; मेरे द्वारा यह भी नहीं हो सका, अतः आप क्षमा करें।" इस प्रकार भगवान ने मातृ-पितृ भक्ति प्रदर्शित की।

द्वारका जीवन

जब मथुरापुरी छोड़कर भगवान द्वारका पधारे, तब देवकी द्वारका में ही भगवान के समीप रहती थीं। वे उन्हें अपना प्रिय पुत्र ही समझती थीं। पुत्र-स्नेह भी कैसा मधुमय सम्बन्ध है। भगवत्ता का उन्हें स्मरण भी नहीं होता था। उनके लिये तो श्यामसुन्दर बालक ही थे; उन्हें अपने हाथ से खिलातीं-पिलातीं, भाँति-भाँति की शिक्षाएं देतीं। मातृ-स्नेह को व्यक्त करने के लिये भगवान भी देवकी की हर प्रकार से सेवा करते। जन्म के समय भगवान ने अपने चतुर्भुज रूप से जो माता को दर्शन दिया था; उसे वे भूल गयीं और अब उन्हें फिर अपना पुत्र ही मानने लगीं।

श्रीकृष्ण की लीला

भगवान विष्णु कारागार मे श्रीकृष्ण अवतार लेते हुए

भगवान श्रीकृष्ण तो माता को असली ज्ञान कराना चाहते थे, अतः उनके मन में एक प्रेरणा की। माता ने जब सुना कि मेरे पुत्र बलराम-कृष्ण ने गुरुदक्षिणा में गुरु के मृतक पुत्र को ला दिया, तब उन्होंने भी प्रार्थना की कि- "मेरे भी कंस के द्वारा जो पुत्र मारे गये हैं, उन्हें ला दो।" माता की ऐसी प्रार्थना सुनकर भगवान वासुदेव बलदेव जी के साथ पाताल-लोक में गये और वहाँ से उन पुत्रों को ले आये। माता ने देखा, वे तो अभी भी उसी अवस्था के हैं। माता अपने-आपको भूल गयीं। उनके स्तनों में से दूध टपकने लगा। बड़े स्नेह से उन्हें गोदी में बिठाकर वे दूध पिलाने लगीं। वे भी श्रीकृष्णोच्छिष्ट स्तन का पान करके देवलोक को चले गये। अब माता को ज्ञात हुआ कि "ये मेरे साधारण पुत्र नहीं। ये तो चराचर स्वामी हैं, विश्व के एकमात्र अधीश्वर हैं।" माता की मोह-ममता दूर हो गयी, वे भगवान के ध्यान में मग्न हो गयीं।

परलोक गमन

अन्त में जब प्रभास क्षेत्र की महायात्रा हुई और उसमें सब यदुवंशियों का नाश हो गया तथा भगवान भी अपने लोक को पधार गये, तब यह समाचार दारुक के द्वारा वसुदेव-देवकी ने भी सुना। वे दौड़े-दौड़े प्रभास क्षेत्र में आये। वहाँ आनंदकन्द श्रीकृष्ण और बलराम को न देखकर माता देवकी ने श्रीवसुदेव जी के साथ भगवान के विरह में पांचभौतिक शरीर से उसी क्षण सम्बन्ध त्याग दिया। वे उस भगवद्धाम को चली गयीं, जहाँ उनके प्यारे प्रभु नित्य निवास करते हैं।

छान्दोग्य उपनिषद का वर्णन

श्रीकृष्ण की माता का नाम देवकी तथा पिता का नाम वसुदेव था। देवकी कंस की बहन थी। कंस ने पति सहित उसको कारावास में बन्द कर रखा था, क्योंकि उसको ज्योतिषियों ने बताया था कि देवकी का कोई पुत्र ही उसका वध करेगा। कंस ने देवकी के सभी पुत्रों का वध किया, किन्तु जब कृष्ण उत्पन्न हुए तो वसुदेव रातों-रात उन्हें गोकुल ग्राम में नन्द-यशोदा के यहाँ छोड़ आये। देवकी के बारे में इससे अधिक कुछ विशेष वक्तव्य ज्ञात नहीं होता है। 'छान्दोग्य उपनिषद'[1] में भी देवकीपुत्र कृष्ण[2] का उल्लेख है।

अन्य उल्लेख

मथुरा के राजा उग्रसेन के छोटे भाई देवक की पुत्री, वसुदेव की पत्नी तथा कृष्ण की वास्तविक माता का नाम देवकी था। इसके अतिरिक्त शैव्य की कन्या, युधिष्ठिर की पत्नी, उद्गीथ ऋषि की पत्नी का भी देवकी के नाम से उल्लेख मिलता है। यद्यपि देवकी कृष्ण की वास्तविक माता थीं, तथापि कृष्ण-भक्त कवि यशोदा की तुलना में उसके व्यक्तित्व में मातृत्व का उभार नहीं दे सके। देवकी को कृष्ण जन्म के पूर्व ही उनके अतिप्राकृत व्यक्तित्व का ज्ञान था, फिर भी जन्म के समय उनके अतिप्राकृत चिह्नों को देखकर वह चिन्तित हो जाती हैं।[3] इस अवसर पर उनके मातृत्व का आभास मात्र मिलता है। वह वसुदेव से किसी भी प्रकार कृष्ण की रक्षा की प्रार्थना करती हैं।[4] कृष्ण-कथा में देवकी की दूसरी झलक मथुरा में उसके कृष्ण से पुनर्मिलन के अवसर पर होती है।[5] कृष्ण के अलौकिक व्यक्तित्व के परिचय एवं बलराम के स्वयं को शेषनाग का अवतार कहने पर वह अपना विलाप त्यागकर मौन हो जाती हैं। इसलिए कथा के उत्तरार्द्ध में देवकी का मातृत्व दब-सा गया है। अन्त में देवकी का वात्सल्य भक्ति में बदल जाता है। वह कृष्ण से स्वयं को गोकुल में शरण देने की प्रार्थना करती हैं।[6]

'देवी भागवत' का विवरण

'देवी भागवत' के अनुसार, कृष्ण-कथा में अंकित सभी पात्र किसी न किसी कारणवश शापग्रस्त होकर जन्मे थे। कश्यप ने वरुण से कामधेनु मांगी थी, फिर लौटायी नहीं, अत: वरुण के शाप से वे ग्वाले हुए। देवी भागवत में दिति और अदिति को दक्ष कन्या माना गया है। अदिति का पुत्र इन्द्र था, जिसने माँ की प्रेरणा से दिति के गर्भ के 49 भाग कर दिए थे, जो मरुत हुए। अदिति से रुष्ट होकर दिति ने शाप दिया था- 'जिस प्रकार गुप्त रूप से तूने मेरा गर्भ नष्ट करने का प्रयत्न करवाया है, उसी प्रकार पृथ्वी पर जन्म लेकर तू बार-बार मृतवत्सा होगी।" फलत: उसने देवकी के रूप में जन्म लिया।

देवकी विवाह

देवकी उग्रसेन के छोटे भाई देवक की सबसे छोटी कन्या थी। कंस अपनी छोटी चचेरी बहन देवकी से अत्यन्त स्नेह करता था। जब उसका विवाह वसुदेव से हुआ तो कंस स्वयं रथ हाँककर अपनी उस बहन को पहुँचाने चला। रास्ते में आकाशवाणी हुई- "मूर्ख! तू जिसे इतने प्रेम से पहुँचाने जा रहा है, उसी के आठवें गर्भ से उत्पन्न पुत्र तेरा वध करेगा।" आकाशवाणी सुनते ही कंस का सारा प्रेम समाप्त हो गया। वह रथ से कूद पड़ा और देवकी के केश पकड़ कर तलवार से उसका वध करने के लिये तैयार हो गया।"

वसुदेव का वचन

कंस को देवकी वध हेतु आतुर देखकर वसुदेव ने कहा- "महाभाग! आप क्या करने जा रहे हैं? विश्व में कोई अमर होकर नहीं आया है। आपको स्त्री वध जैसा जघन्य पाप नहीं करना चाहिये। यह आपकी छोटी बहन है और आपके लिये पुत्री के समान है। आप कृपा करके इसे छोड़ दें। आपको इसके पुत्र से भय है। मैं प्रतिज्ञा करता हूँ कि इससे जो भी पुत्र होगा, उसे मैं आपको लाकर दे दूँगा।" कंस ने वसुदेव के वचनों पर विश्वास करके देवकी को छोड़ दिया। कंस स्वभाव से ही अत्याचारी था। इसलिये उसने अपने पिता उग्रसेन को बन्दी बनाकर कारागार में डाल दिया। शासक होते ही उसने अपने असुर सेवकों को स्वतन्त्रता दे दी। यज्ञ बन्द हो गये। धर्मकृत्य अपराध माने जाने लगे। गौ और ब्राह्मणों की हिंसा होने लगी।

नारद की सलाह

समय पाकर देवकी को प्रथम पुत्र हुआ। वसुदेव अपने वचन के अनुसार उसे लेकर कंस के समीप पहुँचे। कंस ने उनका आदर किया और कहा- "इससे मुझे कोई भय नहीं है। आप इसे लेकर लौट जायें।" वहाँ देवर्षि नारद भी थे। उन्होंने कहा- "आपने यह क्या किया राजन? विष्णु कपटी है। आपके वध के लिये उन्हैं अवतार लेना है। पता नहीं वे किस गर्भ में आयें। पहला गर्भ भी आठवाँ हो सकता है और आठवाँ गर्भ भी पहला हो सकता है।" देवर्षि की बात सुनकर कंस ने बच्चे का पैर पकड़कर उसे शिलाखण्ड पर पटक दिया। देवकी चीत्कार कर उठी। कंस ने नवदम्पति को तत्काल हथकड़ी-बेड़ी में जकड़कर कारागार में डाल दिया और कठोर पहरा बैठा दिया। इसी प्रकार देवकी के छ: पुत्रों को कंस ने क्रमश: मौत के घाट उतार दिया। सातवें गर्भ में अनन्त भगवान शेष पधारे। भगवान के आदेश से योगमाया ने इस गर्भ को आकर्षित करके वसुदेव की दूसरी पत्नी रोहिणी के गर्भ में पहुँचा दिया। यह प्रचार हो गया कि देवकी का गर्भ स्त्रवित हो गया।

कृष्ण जन्म

देवकी के आठवें गर्भ का समय आया। उनका शरीर ओज से पूर्ण हो गया। कंस को निश्चित हो गया कि अब की ज़रूर मुझे मारने वाला विष्णु आया है। पहरेदारों की संख्या बढ़ा दी गयी। भाद्रपद की अँधेरी रात की अष्टमी तिथि थी। शंख, चक्र, गदा, पद्म, वनमाला धारण किये भगवान देवकी-वसुदेव के समक्ष प्रकट हुए। भगवान का दर्शन करके माता देवकी धन्य हो गयीं। पुन: भगवान नन्हें शिशु के रूप में देवकी की गोद में आ गये। पहरेदार सो गये। वसुदेव-देवकी की हथकड़ी-बेड़ी अपने-आप खुल गयी। भगवान के आदेश से वसुदेव जी उन्हें गोकुल में यशोदा की गोद में डाल आये और वहाँ से उनकी तत्काल पैदा हुई कन्या ले आये। कन्या के रोने की आवाज़ सुनकर पहरेदारों ने कंस को सूचना पहुँचायी और वह बन्दीगृह में दौड़ता हुआ आया। देवकी से कन्या को छीनकर कंस ने जैसे ही उसे शिला पर पटकना चाहा, वह उसके हाथ से छूटकर आकाश में चली गयी और कंस के शत्रु के कहीं और प्रकट होने की भविष्यवाणी करके अन्तर्धान हो गयी। एक-एक करके कंस के द्वारा भेजे गये सभी दैत्य गोकुल में श्रीकृष्ण बलराम के हाथों यमलोक सिधारे और अन्त में मथुरा की रंगशाला में कंस की मृत्यु के साथ उसके अत्याचारों का अन्त हुआ। वसुदेव-देवकी के जयघोष के स्वरों ने माता देवकी को चौंका दिया और जब माता ने आँख खोलकर देखा तो राम-श्याम उनके चरणों में पड़े थे। वसुदेव-देवकी के दु:खों का अन्त हुआ।

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. छान्दोग्य उपनिषद#तेरहवें खण्ड से उन्नीसवें खण्ड तक
  2. घोर आगिंरस के शिष्य
  3. सूरसागर, प0 (622-625
  4. सूरसागर0प0 627
  5. सूरसागर, प0 3708
  6. सूरसागर प0 3740

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