नृग का उद्धार

श्री कृष्ण के द्वारा राजा नृग का उद्धार

'श्रीमद्भागवत महापुराण'[1] के अनुसार- श्रीशुकदेवजी कहते हैं- "प्रिय परीक्षित! एक दिन साम्ब, प्रद्युम्न, चारुभानु और गदा आदि यदुवंशी राजकुमार घूमने के लिये उपवन में गये। वहाँ बहुत देर तक खेल खेलते हुए उन्हें प्यास लग आयी। अब वे इधर-उधर जल की खोज करने लगे। वे एक कुएँ के पास गये; उसमें जल तो था नहीं, एक बड़ा विचित्र जीव दीख पड़ा। वह जीव पर्वत के समान आकार का एक गिरगिट था। उसे देखकर उनके आश्चर्य की सीमा न रही। उनका हृदय करुणा से भर आया और वे उसे बाहर निकालने का प्रयत्न करने लगे। परन्तु जब वे राजकुमार उस गिरे हुए गिरगिट को चमड़े और सूत की रस्सियों से बाँधकर बाहर न निकाल सके, तब कुतूहलवश उन्होंने यह आश्चर्यमय वृत्तान्त भगवान श्रीकृष्ण के पास जाकर निवेदन किया। जगत के जीवनदाता कमलनयन भगवान श्रीकृष्ण उस कुएँ पर आये। उसे देखकर उन्होंने बायें हाथ से खेल-खेल में-अनायास ही उसको बाहर निकाल लिया। भगवान श्रीकृष्ण के करकमलों का स्पर्श होते ही उसका गिरगिट-रूप जाता रहा और वह एक स्वर्गीय देवता के रूप में परिणत हो गया। अब उसके शरीर का रंग तपाये हुए सोने के समान चमक रहा था और उसके शरीर पर अद्भुत वस्त्र, आभूषण और पुष्पों के हार शोभा पा रहे थे। यद्यपि भगवान श्रीकृष्ण जानते थे कि इस दिव्य पुरुष को गिरगिट-योनि क्यों मिली थी, फिर भी वह कारण सर्वसाधारण को मालूम हो जाय, इसलिये उन्होंने उस दिव्य पुरुष से पूछा- "महाभाग! तुम्हारा यह रूप तो बहुत ही सुन्दर है। तुम हो कौन? मैं तो ऐसा समझता हूँ कि तुम अवश्य ही कोई श्रेष्ठ देवता हो। कल्याणमूर्ते! किस कर्म के फल से तुम्हें इस योनि में आना पड़ा था? वास्तव में तुम इसके योग्य नहीं हो। हम लोग तुम्हारा वृत्तान्त जानना चाहते हैं। यदि तुम हम लोगों को वह बतलाना उचित समझो तो अपना परिचय अवश्य दो।"


श्रीशुकदेवजी कहते हैं- "परीक्षित! जब अनन्तमूर्ति भगवान श्रीकृष्ण ने राजा नृग से[2] इस प्रकार पूछा, तब उन्होंने अपना सूर्य के समान जाज्वल्यमान मुकुट झुकाकर भगवान को प्रणाम किया और वे इस प्रकार कहने लगे।

राजा नृग ने कहा- "प्रभो! मैं महाराज इक्ष्वाकु का पुत्र राजा नृग हूँ। जब कभी किसी ने आपके सामने दानियों की गिनती की होगी, तब उसमें मेरा नाम भी अवश्य ही आपके कानों में पड़ा होगा। प्रभो! आप समस्त प्राणियों की एक-एक वृत्ति के साक्षी हैं। भूत और भविष्य का व्यवधान भी आपके अखण्ड ज्ञान में किसी प्रकार की बाधा नहीं डाल सकता। अतः आपसे छिपा ही क्या है? फिर भी मैं आपकी आज्ञा का पालन करने के लिये कहता हूँ। भगवन! पृथ्वी में जितने धूलिकण हैं, आकाश में जितने तारे हैं और वर्षा में जितनी जल की धाराएँ गिरती हैं, मैंने उतनी ही गौएँ दान की थीं। वे सभी गौएँ दुधार, नौजवान, सीधी, सुन्दर, सुलक्षणा और कपिला थीं। उन्हें मैंने न्याय के धन से प्राप्त किया था। सबके साथ बछड़े थे। उनके सींगों में सोना मढ़ दिया गया था और खुरों में चाँदी। उन्हें वस्त्र, हार और गहनों से सजा दिया जाता था। ऐसी गौएँ मैने दी थीं। भगवन! मैं युवावस्था से सम्पन्न श्रेष्ठ ब्राह्मणकुमारों को-जो सद्गुणी, शीलसम्पन्न, कष्ट में पड़े हुए कुटुम्ब वाले, दम्भरहित तपस्वी, वेदपाठी, शिष्यों को विद्यादान करने वाले तथा सच्चरित्र होते-वस्त्राभूषण से अलंकृत करता और उन गौओं का दान करता। इस प्रकार मैंने बहुत-सी गौएँ, पृथ्वी, सोना, घर, घोड़े, हाथी, दासियों के सहित कन्याएँ, तिलों के पर्वत, चाँदी, शय्या, वस्त्र, रत्न, गृह-सामग्री और रथ आदि दान किये। अनेकों यज्ञ किये और बहुत-से कुएँ, बावली आदि बनवाये।

एक दिन किसी अप्रतिग्रही[3], तपस्वी ब्राह्मण की एक गाय बिछुड़कर मेरी गौओं में आ मिली। मुझे इस बात का बिलकुल पता न चला। इसलिये मैंने अनजान में उसे किसी दूसरे ब्राह्मण को दान कर दिया। जब उस गाय को वे ब्राह्मण ले चले, तब उस गाय के असली स्वामी ने कहा- "यह गौ मेरी है।" दान ले जाने वाले ब्राह्मण ने कहा- "यह तो मेरी है, क्योंकि राजा नृग ने मुझे इसका दान किया है।" वे दोनों ब्राह्मण आपस में झगड़ते हुए अपनी-अपनी बात कायम करने के लिये मेरे पास आये। एक ने कहा- "यह गाय अभी-अभी आपने मुझे दी है" और दूसरे ने कहा कि "यदि ऐसी बात है तो तुमने मेरी गाय चुरा ली है।" भगवन! उन दोनों ब्राह्मणों की बात सुनकर मेरा चित्त भ्रमित हो गया। मैंने धर्मसंकट में पड़कर उन दोनों से बड़ी अनुनय-विनय की और कहा कि- "मैं बदले में एक लाख उत्तम गौएँ दूँगा। आप लोग मुझे यह गाय दे दीजिये। मैं आप लोगों का सेवक हूँ। मुझसे अनजाने में यह अपराध बन गया है। मुझ पर आप लोग कृपा कीजिये और मुझे इस घोर कष्ट से तथा घोर नरक में गिरने से बचा लीजिये।"

"राजन! मैं इसके बदले मैं कुछ नहीं लूँगा।" यह कहकर गाय का स्वामी चला गया। "तुम इसके बदले में एक लाख ही नहीं, दस हज़ार गाएँ और दो तो भी मैं लेने का नहीं।" इस प्रकार कहकर दूसरा ब्राह्मण भी चला गया। देवाधिदेव जगदीश्वर! इसके बाद आयु समाप्त होने पर यमराज के दूत आये और मुझे यमपुरी ले गये। वहाँ यमराज ने मुझसे पूछा- "राजन! तुम पहले अपने पाप का फल भोगना चाहते हो या पुण्य का? तुम्हारे दान और धर्म के फलस्वरूप तुम्हें ऐसा तेजस्वी लोक प्राप्त होने वाला है, जिसकी कोई सीमा ही नहीं है।" भगवन! तब मैंने यमराज से कहा- "देव! पहले मैं अपने पाप का फल भोगना चाहता हूँ।" और उसी क्षण यमराज ने कहा- "तुम गिर जाओ।" उनके ऐसा कहते ही मैं वहाँ से गिरा और गिरते ही समय मैंने देखा कि मैं गिरगिट हो गया हूँ। प्रभो! मैं ब्राह्मणों का सेवक, उदार, दानी और आपका भक्त था। मुझे इस बात की उत्कट अभिलाषा थी कि किसी प्रकार आपके दर्शन हो जायँ। इस प्रकार आपकी कृपा से मेरे पूर्वजन्मों की स्मृति नष्ट न हुई। भगवन! आप परमात्मा हैं। बड़े-बड़े शुद्ध-हृदय योगीश्वर उपनिषदों की दृष्टि से[4] अपने हृदय में आपका ध्यान करते हैं। इन्द्रियातीत परमात्मन! साक्षात आप मेरे नेत्रों के सामने कैसे आ गये। क्योंकि मैं तो अनेक प्रकार के व्यसनों, दुःखद कर्मों में फँसकर अंधा हो रहा था। आपका दर्शन तो तब होता है, जब संसार के चक्कर से छुटकारा मिलने का समय आता है।

देवताओं के भी आराध्यदेव! पुरुषोत्तम गोविन्द! आप ही व्यक्त और अव्यक्त जगत तथा जीवों के स्वामी हैं। अविनाशी अच्युत! आपकी कीर्ति पवित्र है। अन्तर्यामी नारायण! आप ही समस्त वृत्तियों और इन्द्रियों के स्वामी हैं। प्रभो! श्रीकृष्ण! मैं अब देवताओं के लोक में जा रहा हूँ। आप मुझे आज्ञा दीजिये। आप ऐसी कृपा कीजिये कि मैं चाहे कहीं कहीं भी क्यों न रहूँ, मेरा चित्त सदा आपके चरणकमलों में ही लगा रहे। आप समस्त कार्यों और कारणों के रूप में विद्यमान हैं। आपकी शक्ति अनन्त हैं और आप स्वयं ब्रह्म हैं। आपको मैं नमस्कार करता हूँ। सच्चिंदानन्दस्वरूप सर्वान्तर्यामी वासुदेव श्रीकृष्ण! आप समस्त योगों के स्वामी योगेश्वर हैं। मैं आपको बार-बार नमस्कार करता हूँ।"

राजा नृग ने इस प्रकार कहकर भगवान की परिक्रमा की और अपने मुकुट से उनके चरणों का स्पर्श करके प्रणाम किया। फिर उनसे आज्ञा लेकर सबके देखते-देखते ही वे श्रेष्ठ विमान पर सवार हो गये। राजा नृग के चले जाने पर ब्राह्मणों के परम प्रेमी, धर्म के आधार देवकीनन्दन भगवान श्रीकृष्ण ने क्षत्रियों को शिक्षा देने के लिये वहाँ उपस्थित अपने कुटुम्ब के लोगों से कहा- "जो लोग अग्नि के समान तेजस्वी हैं, वे भी ब्राह्मणों का थोड़े-से-थोड़ा धन हड़पकर नहीं पचा सकते। फिर जो अभिमानवश झूठ-मूठ अपने को लोगों का स्वामी समझते हैं, वे राजा तो क्या पचा सकते हैं? मैं हलाहल विष को विष नहीं मानता, क्योंकि उसकी चिकित्सा होती है। वस्तुतः ब्राह्मणों का धन ही परम विष है, उसको पचा लेने के लिये पृथ्वी में कोई औषध, कोई उपाय नहीं है। हलाहल विष केवल खाने वाले का ही प्राण लेता है और आग भी जल के द्वारा बुझायी जा सकती है; परन्तु ब्राह्मण के धन रूप अरणि से जो आग पैदा होती है, वह सारे कुल को समूल जला डालती है। ब्राह्मण का धन यदि उसकी पूरी-पूरी सम्मति लिये बिना भोगा जाय, तब तो वह भोगने वाले, उसके लड़के और पौत्र-इन तीन पीढ़ियों को ही चौपट करता है। परन्तु यदि बलपूर्वक हठ करके उसका उपभोग किया जाय, तब तो पूर्वपुरुषों की दस पीढ़ियाँ और आगे की भी दस पीढ़ियाँ नष्ट हो जाती हैं। जो मूर्ख राजा अपनी राजलक्ष्मी के घमंड से अंधे होकर ब्राह्मणों का धन हड़पना चाहते हैं, समझना चाहिये कि वे जान-बूझकर नरक में जाने का रास्ता साफ कर रहे हैं। वे देखते नहीं कि उन्हें अधःपतन के कैसे गहरे गड्ढ़े में गिरना पड़ेगा। जिन उदारहृदय और बहु-कुटुम्बी ब्राह्मणों की वृत्ति छीन ली जाती है, उनके रोने पर उनके आँसू की बूँदों से धरती के जितने धूलकण भीगते हैं, उतने वर्षों तक ब्राह्मण के स्वत्व को छीनने वाले उस उच्छ्रंखल राजा और उसके वंशजों को कुम्भी पाक नरक में दुःख भोगना पड़ता है। जो मनुष्य अपनी या दूसरों की दी हुई ब्राह्मणों की वृत्ति, उनकी जीविका के साधन छीन लेते हैं, वे साठ हज़ार वर्ष तक विष्ठा के कीड़े होते हैं। इसलिये मैं तो यही चाहता हूँ कि ब्राह्मणों का धन कभी भूल से भी मेरे कोष में न आये, क्योंकि जो लोग ब्राह्मणों के धन की इच्छा भी करते हैं, उसे छीनने की बात तो अलग रही, वे इस जन्म में अल्पायु, शत्रुओं से पराजित और राज्यभ्रष्ट हो जाते हैं और मृत्यु के बाद भी दूसरों को कष्ट देने वाले साँप ही होते हैं।

इसलिये मेरे आत्मीयो! यदि ब्राह्मण अपराध करे, तो भी उससे द्वेष मत करो। वह मार ही क्यों न बैठे या बहुत-सी गालियाँ या शाप ही क्यों न दे, उसे तुम लोग सदा नमस्कार ही करो। जिस प्रकार मैं बड़ी सावधानी से तीनों समय ब्राह्मणों को प्रणाम करता हूँ, वैसे ही तुम लोग भी किया करो। जो मेरी इस आज्ञा का उल्लंघन करेगा, उसे मैं क्षमा नहीं करूँगा, दण्ड दूँगा। यदि ब्राह्मण के धन का अपहरण हो जाय तो वह अपहृत धन उस अपहरण करने वाले को-अनजान में उसके द्वारा यह अपराध हुआ हो तो भी-अधःपतन के गड्ढ़े में डाल देता है। जैसे ब्राह्मण की गाय ने अनजान में उसे लेने वाले राजा नृग को नरक में डाल दिया था।"

परीक्षित! समस्त लोकों को पवित्र करने वाले भगवान श्रीकृष्ण द्वारकावासियों को इस प्रकार उपदेश देकर अपने महल में चले गये।


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. दशम स्कन्ध, अध्याय 64, श्लोक 1-44
  2. क्योंकि वे ही इस रूप में प्रकट हुए थे।
  3. दान न लेने वाले
  4. अभेददृष्टि से

संबंधित लेख

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः