पौण्ड्रक का उद्धार

'श्रीमद्भागवत महापुराण'[1] के अनुसार- श्रीशुकदेवजी कहते हैं- "परीक्षित! जब भगवान बलरामजी नन्दबाबा के ब्रज में गये हुए थे, तब पीछे से करूष देश के अज्ञानी राजा पौण्ड्रक ने भगवान श्रीकृष्ण के पास एक दूत भेजकर यह कहलाया कि "भगवान वासुदेव मैं हूँ।" मूर्ख लोग उसे बहकाया करते थे कि "आप ही भगवान वासुदेव हैं और जगत की रक्षा के लिये पृथ्वी पर अवतीर्ण हुए हैं।" इसका फल यह हुआ कि वह मूर्ख अपने को ही भगवान मान बैठा। जैसे बच्चे आपस में खेलते समय किसी बालक को ही राजा मान लेते हैं और वह राजा की तरह उनके साथ व्यवहार करने लगता है, वैसे ही मन्दमति अज्ञानी पौण्ड्रक ने अचिन्त्यगति भगवान श्रीकृष्ण की लीला और रहस्य न जानकार द्वारका में उनके पास दूत भेज दिया। पौण्ड्रक का दूत द्वारका आया और राजसभा में बैठे हुए कमलनयन भगवान श्रीकृष्ण को उसने अपने राजा का यह सन्देश कह सुनाया-

"एकमात्र मैं ही वासुदेव हूँ। दूसरा कोई नहीं है। प्राणियों पर कृपा करने के लिये मैंने ही अवतार ग्रहण किया है। तुमने झूठ-मूठ अपना नाम वासुदेव रख लिया है, अब उसे छोड़ दो। यदुवंशी! तुमने मुर्खता वश मेरे चिह्न धारण कर रखे हैं। उन्हें छोड़कर मेरी शरण में आओ और यदि मेरी बात तुम्हें स्वीकार न हो, तो मुझसे युद्ध करो।"

श्रीशुकदेवजी कहते हैं- "परीक्षित! मन्दमति पौण्ड्रक की यह बहक सुनकर उग्रसेन आदि सभासद जोर-जोर से हँसने लगे। उन लोगों की हँसी समाप्त होने के बाद भगवान श्रीकृष्ण ने दूत से कहा- "तुम जाकर अपने राजा से कह देना कि 'रे मूढ़! मैं अपने चक्र आदि चिह्न यों नहीं छोडूँगा। इन्हें मैं तुझ पर छोडूँगा और केवल तुझ पर ही नहीं, तेरे उन सब साथियों पर भी, जिनके बहकाने से तू इस प्रकार बहक रहा है। उस समय मूर्ख! तू अपना मुँह छिपाकर, औंधें मुँह गिरकर चील, गीध, बटेर आदि मांसभोजी पक्षियों से घिरकर सो जायेगा और तू मेरा शरणदाता नहीं, उन कुत्तों की शरण होगा, जो तेरा मांस चींथ-चींथ खा जायँगे।' परीक्षित! भगवान का यह तिरस्कार पूर्ण संवाद लेकर पौण्ड्रक का दूत अपने स्वामी के पास आया और उसे कह सुनाया। इधर भगवान श्रीकृष्ण ने भी रथ पर सवार होकर काशी पर चढ़ाई कर दी।[2]

भगवान श्रीकृष्ण के आक्रमण का समाचार पाकर महारथी पौण्ड्रक भी दो अक्षौहिणी सेना के साथ शीघ्र ही नगर से बाहर निकल आया। काशी का राजा पौण्ड्रक का मित्र था। अतः वह भी उसकी सहायता करने के लिये तीन अक्षौहिणी सेना के साथ उसके पीछे-पीछे आया। परीक्षित! अब भगवान श्रीकृष्ण ने पौण्ड्रक को देखा। पौण्ड्रक ने भी शंख, चक्र, तलवार, गदा, शारंग धनुष और श्रीवत्स चिह्न आदि धारण कर रखे थे। उसके वक्षःस्थल पर बनावटी कौस्तुभमणि और वनमाला लटक रही थी। उसने रेशमी पीले वस्त्र पहन रखे थे और रथ की ध्वजा पर गरुड़ का चिह्न भी लगा रखा था। उसके सिर पर अमूल्य मुकुट था और कानों में मकराकृत कुण्डल जगमगा रहे थे।

उसका यह सारा-का-सारा वेष बनावटी था, मानो कोई अभिनेता रंगमंच पर अभिनय करने के लिये आया हो। उसकी वेष-भूषा अपने समान देखकर भगवान श्रीकृष्ण खिलखिलाकर हँसने लगे। अब शत्रुओं ने भगवान श्रीकृष्ण पर त्रिशूल, गदा, मुद्गर, शक्ति, ऋष्टि, प्रास, तोमर, तलवार, पट्टिश और बाण आदि अस्त्र-शस्त्रों से प्रहार किया। प्रलय के समय जिस प्रकार आग सभी प्रकार के प्राणियों को जला देती है, वैसे ही भगवान श्रीकृष्ण ने भी गदा, तलवार, चक्र और बाण आदि शस्त्रास्त्रों से पौण्ड्रक तथा काशिराज के हाथी, रथ, घोड़े और पैदल की चतुरंगिणी सेना को तहस-नहस कर दिया। वह रणभूमि भगवान के चक्र से खण्ड-खण्ड हुए रथ, घोड़े, हाथी, मनुष्य, गधे और ऊँटों से पट गयी। उस समय ऐसा मालूम हो रहा था, मानो वह भूतनाथ शंकर की भयंकर क्रीड़ास्थली हो। उसे देख-देखकर शूरवीरों का उत्साह और भी बढ़ रहा था।

अब भगवान श्रीकृष्ण ने पौण्ड्रक से कहा- "रे पौण्ड्रक! तूने दूत के द्वारा कहलाया था कि मेरे चिह्न अस्त्र-शास्त्रादि छोड़ दो। सो अब मैं उन्हें तुझ पर छोड़ रहा हूँ। तूने झूठ-मुठ मेरा नाम रख लिया है। अतः मूर्ख! अब मैं तुझसे उन नामों को भी छुड़ाकर रहूँगा। रही तेरे शरण में आने की बात; सो यदि मैं तुझसे युद्ध न कर सकूँगा तो तेरी शरण ग्रहण करूँगा।" भगवान श्रीकृष्ण ने इस प्रकार पौण्ड्रक का तिरस्कार करके अपने तीखे बाणों से उसके रथ को तोड़-फोड़ डाला और चक्र से उसका सिर वैसे ही उतार लिया, जैसे इन्द्र ने अपने वज्र से पहाड़ की चोटियों को उड़ा दिया था। इसी प्रकार भगवान ने अपने बाणों से काशीनरेश का सिर भी धड़ से ऊपर उड़ाकर काशीपुरी में गिरा दिया, जैसे वायु कमल का पुष्प गिरा देती है। इस प्रकार अपने साथ डाह रखने वाले पौण्ड्रक को और उसके सखा काशीनरेश को मारकर भगवान श्रीकृष्ण अपनी राजधानी द्वारका में लौट आये। यह समय सिद्धगण भगवान की अमृतमयी कथा का गान कर रहे थे।

परीक्षित! पौण्ड्रक भगवान के रूप का, चाहे वह किसी भाव से हो, सदा चिन्तन करता रहता था। इससे उसके सारे बन्धन कट गये। वह भगवान का बनावटी वेष धारण किये रहता था, इससे बार-बार उसी का स्मरण होने के कारण वह भगवान के सारुप्य को ही प्राप्त हुआ।


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. दशम स्कन्ध, अध्याय 66, श्लोक 1-24
  2. क्योंकि वह करूष का राजा उन दिनों वहीं अपने मित्र काशीराज के पास रहता था।

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