कृष्ण और गोपियाँ

कृष्ण तथा गोपियाँ

कृष्ण-भक्त कवियों ने अपने काव्य में गोपी-कृष्ण की रासलीला को प्रमुख स्थान दिया है। सूरदास के राधा और कृष्ण प्रकृति और पुरुष के प्रतीक हैं और गोपियाँ राधा की अभिन्न सखियाँ हैं। राधा कृष्ण के सबसे निकट दर्शाई गई हैं, किंतु अन्य गोपियाँ उनसे ईर्ष्या नहीं करतीं। वे स्वयं को कृष्ण से अभिन्न मानती हैं। भागवत की प्रेरणा लेकर पुराणों में गोपी-कृष्ण के प्रेमाख्यान को आध्यात्मिक रूप दिया गया है। इससे पहले 'महाभारत' में यह आध्यात्मिक रूप नहीं मिलता। इसके बाद की रचनाओं- 'हरिवंशपुराण' तथा अन्य पुराणों में गोप-गोपियों को देवता बताया गया है, जो भगवान श्रीकृष्ण के ब्रज में जन्म लेने पर पृथ्वी पर अवतरित हुए थे।

"ता मन्मनस्का मत्प्राणा मदर्थे त्यक्तदैहिका:।
मामेव दयितं प्रेष्ठमात्मानं मनसा गता:॥"

भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं- "उन गोपियों का मन मेरा मन हो गया है; उनके प्राण, उनका जीवनसर्वस्व मैं ही हूँ। मेरे लिये उन्होंने अपने शरीर के सारे सम्बन्धों को छोड़ दिया है। उन्होंने अपनी बुद्धि से केवल मुझको ही अपना प्यारा, प्रियतम और आत्मा मान लिया है।"

अवतरण

कलिन्दनन्दिनी श्रीयमुनाजी के तट पर बृहद्वन नामक एक अतिशय सुन्दर वन था। इस वन में एवं वन के पार्श्व-देशों में अनेकों व्रज बसे हुए थे। इन व्रजों में अगणित गोप निवास करते थे। प्रत्येक गोप के पास अपार गोधन की सम्पत्ति थी। गोपालन ही इनकी एकमात्र जीविका थी। सब घरों में दूध-दधि की धारा बहा करती। बड़े सुख से इनका जीवन बीतता था। छल-कटप ये जानते ही नहीं थे। धर्म में पूर्ण निष्ठा थी। इन्हीं गोपों के घर श्रीगोपीजनों का अवतरण हुआ था-विश्व में श्रीकृष्ण प्रेम का आदर्श स्थापित करने के लिये, एक नवीन मार्ग दिखाकर त्रिताप से जलते हुए जगत के प्राणियों को और उधर परमहंस मुनिजनों को भगवत्प्रेमसुधा की धारा से सिक्त कर, उस प्रवाह में बहाकर अचिन्त्य अनिर्वचनीय चिन्मय आनन्दमय लीलारससिन्धु में सदा के लिये निमग्न कर देने के लिये।

अप्रतिम कृष्णप्रेम

लगभग पांच हज़ार वर्ष पूर्व की बात है, उपर्युक्त व्रजों के गोपों के एकच्छत्र अधिपति महाराज नन्द के पुत्ररूप में यशोदा रानी के गर्भ से परब्रह्म पुरुषोत्तम गोलोकविहारी स्वयं भगवान श्रीकृष्णचन्द्र का अवतार हुआ। ब्रजपुर की वसुन्धरा पर यशोदानन्दन की विश्वमोहिनी लीला प्रसारित हुई। सबको अपने सौभाग्य का परम फल प्राप्त होने लगा। इनमें सर्वप्रथम अवसर मिला वहाँ की वात्सल्यवती गोपियों को। इन व्रजों में जितनी पुत्रवती गोपियां थीं, सबने अखिल ब्रह्माण्डनायक यशोदानन्दन को अपने अंक में धारण किया, वे उन्हें अपना स्तनदुग्ध पिलाकर कृतार्थ हुईं। योगीन्द्र-मुनीन्द्रगण अपने ध्यानपथ में भी जिनका स्पर्श पा लेने के लिये सदा लालयित रहते हैं, उन अनन्तैश्वर्यनिकेतन महामहेश्वर को, अपने विशुद्ध वात्सल्य प्रेम की भेंट चढ़ाकर इन गोपियों ने-मानो वे उनके ही हाथ की कठपुतली हों-इस रूप में पाया।

सर्वेश्वर की वह प्रेमाधीनता, भक्तवश्यता देखने ही योग्य थी, किंतु इन वात्सल्यवती गोपिकाओं की अपेक्षा भी निर्मलतर, निर्मलतम प्रेम का निर्दशन व्यक्त हुआ मधुभाव से श्रीकृष्णचन्द्र के प्रति आत्मनिवेदन, सर्वसमर्पण करने वाली श्रीगोपीजनों में। ब्रज की इन गोपकुमारिकाओं का, गोपसुन्दरियों का श्रीकृष्णप्रेम जगत अनादि इतिहास में सर्वथा अप्रतिम बना रहेगा। प्रेम की जैसी अनन्यता इनमें हुई और फिर सर्वथा निर्बाध भगवत्सेवा का जो अधिकार इन्हें प्राप्त हुआ, यह अन्यत्र कहीं है ही नहीं। उस समय की बात है, जब ब्रजराजकुमार रेंगते हुए अपने आंगन में खेल रहे थे। कुछ बड़ी आयु की गोपकुमारिकाएं भी अपनी जननियों के साथ नन्दभवन में इन्हें देखने आया करती थीं, पर श्रीकृष्णचन्द्र के महामरकत-श्यामल अंगों पर दृष्टि पड़ते ही इनकी दशा विचित्र हो जाती। ये ऐसी निष्पन्द हो जातीं, मानों सचमुच कनकपुत्तलिका ही हों। न जाने इनकी समस्त शैशवोचित चंचलता उस समय कहाँ चली जाती। जो गोपबालक थे, वे जब श्रीकृष्णचन्द्र के समीप आते, उनकी माताएं जब उन्हें नीलसुन्दर के पास लातीं, तब वे तो अतिशय उल्लास में भरकर किलकने लगते, अत्यन्त चंचल हो उठते। पर उनसे सर्वथा विपरित दशा इन बालिकाओं की होती, वे विचित्र गम्भीर हो जातीं। केवल इनकी ही नहीं; जो बहुत छोटी थीं, अथवा श्रीकृष्णचन्द्र की समवयस्का या उनसे कुछ मास बड़ी थीं, उनकी भी यही दशा होती। वृद्धा गोपिकाएं स्पष्ट देखतीं- "यह सुकुमार कलिका-सी नन्हीं बालिका-जिसे जन्में एक वर्ष भी पूरा नहीं हुआ है, उसने देखा यशोदा के नीलमणि की ओर केवल आधे क्षणभर ही, और बस, माता की गोद में वह सर्वथा स्थिर हो गयी, उसके नेत्रों का स्पन्दन भी रुद्ध हो गया।"

गोपी बनने का वरदान

माताएं एक बार तो आश्चर्य करने लगतीं। पर फिर तुरन्त ही उनका समाधान हो जाता- "इस सांवरे शिशु का रूप ही ऐसा है-जड़ में विकृति हो जाती है, ये तो चेतन हैं।" उन माताओं को क्या पता कि ये समस्त बालिकाएं ब्रज में जन्मी ही हैं श्रीकृष्णचन्द्र के लिये। वे नहीं जानती कि ये नन्दनन्दन श्रीकृष्णचन्द्र ही त्रेता के दशरथनन्दन श्रीरामचन्द्र हैं। कोशलपुर से ये मिथिला पधारे थे। श्रीजनकनन्दिनी का स्वयंवर था। धनुर्भग के अनन्तर श्रीवैदेह ने जयमाला राधवेन्द्र के गले में डाली। रघुकुलचन्द्र का विवाह सम्पन्न हुआ। उस समय मिथिला की पुरन्ध्रियां उनका कोटि-मदन-सुन्दर रूप देखकर विमोहित हो गयीं। प्राणों में उत्कण्ठा जाग उठी- "आह, हमारे पति ये होते !" किंतु सर्वसमर्थ श्रीराघव उस समय तो मर्यादापुरुषोत्तम थे। इसीलिये सत्यसकल्प प्रभु ने यही वरदान दिया- "देवियो ! शोक मत करो, मा शोकं कुरुत स्त्रियः; द्वापर के अन्त में तुम्हारा मनोरथ पूर्ण होगा-

"द्वापरान्ते करिष्यामि भवतीनां मनोरथम्।"

पूरी श्रद्धा एवं भक्ति के द्वारा तुम सब ब्रज में गोपी बनोगी-

"श्रद्धया परया भक्त्या व्रजे गोप्यो भविष्यथ।"

उसी के परिणामस्वरूप वे मिथिला की ललनाएं ही बालिकाएं बनकर उनके घर पधारी हैं, श्रीकृष्णचन्द्र के चारू पादपद्मों में न्योछावर होने के लिये ही आयी हैं। भला इस रहस्य को वे वृद्धा भोली गोपिकाएं क्या जानें?

इसके अतिरिक्त कोशल देश की ओर लौटते हुए दूल्हा श्रीराम को देखकर न जाने कितनी पुररमणियां विमोहित हुईं और अशेषदर्शी कोशलेन्द्र-नन्दन ने उन्हें भी एक मूक स्वीकृति दी थी- "ब्रजे गोप्यो भविष्यथ।" अपने वनवासी रूप के दर्शन से मुग्ध हुए दण्डकारण्य के ऋषियों को भी उन्होंने द्वापर के अन्त में गोपी बनने का वरदान दिया था। प्रजारंजन का पवित्र आर्दश रखते हुए राजा रामचन्द्र ने अपनी प्राणप्रिया श्रीजानकी का-उनके सर्वथा नित्य पवित्र रहने पर भी-परित्याग किया तथा फिर जब-जब वे यज्ञ करने बैठे, तब-तब प्रत्येक यज्ञ में ही उनकी अर्धांगिनी के स्थान स्वर्णनिर्मित सीता विराजतीं। सर्वेश्वर की माया का क्या कहना है। एक दिन वे अगणित स्वर्णसीता-मूर्तियां चैतन्यघन बन गयीं और सबके लिये राघवेन्द्र के मुख से यह वरदान घोषित हुआ था- "तुम सभी पुण्य वृन्दावन में गोपी बनोगी, मैं तुम्हारा मनोरथ पूर्ण करूंगा।" रुचिपुत्र श्रीयज्ञभगवान के सौन्दर्य से विमोहित हुई देवांगनाओं ने तपस्या करके, परमा भक्ति से श्रीहरि को संतुष्ट कर गोपी बनने का वरदान मिला था। न जाने किन-किन ने श्रीहरि के विभिन्न अवतारों के द्वारा प्रत्यक्ष या मूक ‘एवमस्तु’ का वरदान पाकर द्वापर के शेषकाल में गोपीपद का सौभाग्य लाभ किया था। प्रपंचगत कितने बड़भागी जीवों ने, बड़े-बड़े ऋषि-मुनियों ने, साक्षात ब्रह्मविद्या आदि ने शत-सहस्र जन्मों की उपासना से जगदीश्वर की कृपा प्राप्त की थी और उनके मुख से निर्गत ‘तथास्तु’ का बल लेकर ब्रज की गोपी बनने के अधिकारी हुए थे। इन सबकी गण किसके पास है? एकमात्र श्रीकृष्णचन्द्र की अचिन्त्यलीला-महाशक्ति को ही इसका पूर्ण विवरण ज्ञात रहता है। ब्रज की सीधी-सादी वृद्धा गोपियों को इस रहस्य का क्या पता।

इतना ही नहीं, वे बेचारी नहीं जानतीं कि स्वयं गोलोकविहारी ही ब्रज में पधारे हैं और जब वे आये हैं, तब गोलोकविहारिणी भी आयी ही होंगी, उनके नित्य परिकरों का भी अवतरण अवश्य हुआ होगा। धरा का दुःसह दैत्यभार से पीड़ित होना, विधाता के समीप जाकर अपना दुःख निवेदन करना, ब्रह्मा का जगन्नाथ की स्तुति करना, परमपुरुष के अवतरण का संदेश प्राप्त करना, परमपुरुष की प्राणप्रिया की सेवा के लिये सुरवनिताओं के प्रति भूतल पर उत्पन्न होने का ओदश होना-यह कथा इन आभीर-गोपिकाओं ने सुनी नहीं है। इसीलिये वे कल्पना ही नहीं कर सकीं कि इन गोपबालिकाओं के रूप में नित्यलीला के महामहिम परिकर हैं, प्रपंच के अगणित सौभाग्यशाली साधनसिद्ध प्राण हैं, जो यहाँ गोपी बनकर कृतार्थ होने आये हैं। वे स्वयं कौन हैं, यही उन्हें पता नहीं है। फिर अपनी पुत्रियों-इन गोप-बालिकाओं के सम्बन्ध में कैसे जानें। श्रीकृष्णचन्द्र की अघटन-घटना-पटीयसी योगमाया की यवनिका की ओट में क्या है, इसे कोई जान नहीं सकता। स्मृति का जितना अंश लीलारस-पोषण के लिये आवश्यक होता है, उतने अंश पर ये योगमाया आवरण हटा लेती हैं; शेष भाग पूर्णतया आवृत ही रहता है। यही कारण है कि यशोदानन्दन को देखते ही इन नन्हीं-सी बालिकाओं की, अथवा किंचित-वयस्का गोपकुमारिकाओं की दशा ऐसी क्यों हो जाती है, इसका वास्तविक रहस्य वे वृद्धा गोपियां नहीं जान सकती थीं।

विवाह

दिन बीतते क्या देर लगती है। जो वयस्का गोपकुमारिकाएं थीं, वे ब्याह के योग्य हो गयीं। गोपों ने विभिन्न ब्रजों में अच्छे घर-वर देखकर उनका ब्याह किया। विवाह के सभी संस्कार विधिवत सम्पन्न हुए, भांवरें फिरीं। पर आदि से अन्त तक एक अतिशय आश्चर्यमयी घटना उन दुलहिन बनी हुई गोपबालिकाओं की आंखों के सामने घटित हो रही थी। इसे और तो किसी ने नहीं देखा; पर बालिका स्पष्ट रूप से अनुभव कर रही थी, वर के-उसके भावी पति के अणु-अणु में नन्दनन्दन श्रीकृष्णचंद्र समाये हुए हैं उनके साथ भाँवरें नन्दनन्दन ने ही दी हैं, उसका पाणिग्रहण श्रीकृष्णचन्द्र ने किया है। वह स्वप्न देख रही है, या जाग्रत में ही सचमुच ऐसा हो रहा है-वह कुछ समझ नहीं पाती थी। उसका रोम-रोम एक अनिवर्चनीय आनंद में परिलुप हो रहा था। भ्रान्त-सी हुई वह अपने ब्याह की विधि देखती जा रही थी। जिसके साथ उसने अपनी सगाई की बात सुन रखी थी, वह वर क्षणभर के लिये भी उसके दृष्टिपथ में न आया। अंचल की ओट में विस्फारित नेत्रों से वह एकत्रित समुदाय की ओर कभी देखती, पर कुछ भी निर्णय नहीं कर पाती। निर्णय कर लेना उसके वश की बात ही नहीं है। वास्तव में तो बात यह है-गोपी न तो स्वप्न देख रही थी, न उसे मतिभ्रम हुआ था। वह सर्वथा सत्य का ही दर्शन कर रही थी। सचमुच श्रीकृष्णचन्द्र ने ही उसका पाणिग्रहण किया था। जो एकमात्र उनकी ही हो चुकी है, उनके लिये ही ब्रज में आयी है, उन्हें परपुरुष स्पर्श भी कैसे कर सकता है। यह तो लीलारस की वृद्धि के लिये विवाह का अभिनय था। इसका नियन्त्रण कर रही थी श्रीकृष्णचन्द्र की अचिन्त्यमहाशक्ति योगमाया

लोकदृष्टि में यह प्रतीति हुई की अमुक गोपबाला का अमुक गोपबालक के साथ विवाह हुआ। पर सनातन सत्य सिद्धान्त है-ब्रजसुन्दरियों का कभी क्षणभर के लिये भी मायिक पतियों से मिलन होता ही नहीं। एक रात में एक ही स्थान पर सत्य को आवृत कर योगमाया किसे कब प्रतीति करा देंगी, इसे वे ही जानती हैं। गोपबाला ने अभी-अभी सत्य को प्रत्यक्ष देखा है; किंतु पुनः उसकी स्मृति में आगे कितना उलट-फेर वे करती रहेंगी और परिणामस्वरूप उनका श्रीकृष्णप्रेम उत्तरोत्तर कितना निखरता जायगा-इसकी इयत्ता नहीं है। जो हो, प्रायः प्रत्येक विवाह में ही दुलहिन गोपी को औरों की प्रतीति से सर्वथा विरुद्ध उपर्युक्त अनुभूति ही हुई। और जहाँ ऐसी अनुभूति नहीं हुई वहाँ आगे चलकर श्रीकृष्णमिलन में, भगवत्पादपद्मों के स्पर्श से किंचित व्यवधान हो ही गया। उन-उन ब्रजसुन्दरियों को श्रीकृष्णचन्द्र की चरणसेवा मिली अवश्य; पर इस देह से नहीं-इस देह को छोड़ देने के अनन्तर। जो गोपकुमारिकाएं श्रीकृष्णचन्द्र की समवयस्का थीं या उनसे कुछ ही छोटी या बड़ी थीं, उनके लिये एक दूसरी ही बात हुई। समस्त ब्रज बृहद्वन से उठकर वृन्दावन चला आया और वहाँ श्रीकृष्णचन्द्र की वत्सचारणलीला आरम्भ हुई। फिर उनकी आयु का चैथा वर्ष आरम्भ होने पर शरद-ऋतु में ब्रह्मा ने समस्त गोवत्स एवं गोपशिशुओं का अपहरण किया। एक वर्ष के लिये स्वयं श्रीकृष्णचन्द्र ही विभिन्न ब्रजों के असंख्य बालक एवं गोवत्सों का रूप धारण कर लीला करते रहे। किसी ब्रजवासी गोप को गन्ध तक न मिली कि उनके पुत्र तो ब्रह्मा की माया से मुग्ध होकर कहीं अन्यत्र पड़े हैं। इसी बीच में योगमाया की प्रेरणा से सब ने अपनी कन्याओं की सगाई की। धर्म की साक्षी देकर सब ने ब्रजबालक बने हुए श्रीकृष्ण को ही अपनी कन्या देने का वचन दे डाला। सबके अनजान में ही श्रीकृष्णचन्द्र उन समस्त गोपकुमारिकाओं के भावी पति बन गये। इस प्रकार गोपसुन्दरियों के, गोपकुमारिकाओं के श्रीकृष्णसेवाधिकार प्राप्त होने की भूमिका प्रस्तुत हुई।

गोपियों की मनोदशा

श्रीकृष्ण की गोपियों संग लीलाएँ

जब नन्दनन्दन को आठवां वर्ष लगा एवं लगभग एक मास और बीत गया; वृन्दावन में शरद की शोभा विकसित होने लगी, तब श्रीगोपीजनों में श्रीकृष्णमिलन की उत्कण्ठा (पूर्वराग) जगाने का कार्य भी सम्पन्न हो गया। अवश्य ही एक प्रकार से नहीं। स्वेच्छामय श्रीकृष्णचन्द्र ने श्रीगोपीजनों के प्रेमविवर्धन के लिये जहाँ जो पद्धति उपर्युक्त थी, उसी को अपनाया। उनके पौगण्डवयःश्रित श्यामल अंगों के अन्तराल से कैशोर झांक-सा रहा था। और सच तो यह है कि वे तो नित्यकिशोर हैं। इसी कैशोर रूप की आवश्यकता थी श्रीगोपीजनों की आंखों के लिये, उनके प्रेमोपहार को ग्रहण करने के लिये। इसीलिये वह उनके समक्ष व्यक्त होने लगा और फिर एक दिन गूंज उठी वंशीध्वनि। इससे पूर्व भी वंशी का स्वर ब्रज-सुन्दरियों ने सुना अवश्य था। पर आज की तान निराली थी। कर्णरन्ध्रों में प्रवेश करते ही गोपसुन्दरियों की दशा कुछ-की-कुछ हो गयी। वे सचमुच ही क्षणों में ही सर्वथा बदल गयीं। हृदय का संचित श्रीकृष्ण का प्रेम उमड़ा और उसके प्रवाह में उनके प्राण, मन, इन्द्रियां, शरीर-सभी बह चले। योगमाया ने इस अवसर पर भी अपने अंचल की किंचित-छाया सी डाल दी। गोपसुन्दरियों की स्मृति का कुछ अंश ढक गया ओर वे सोचने लगीं, अनुभव करने लगीं कि इससे पूर्व उन्होंने कभी श्रीकृष्णचन्द्र के दर्शन नहीं किये, कभी वंशी की यह अमृतधारा कर्णपथ में आयी ही नहीं। प्रथम बार श्रीकृष्णचन्द्र के दर्शन हुए हैं, प्रथम बार वंशी से झरते हुए पीयूष का वे पान कर सकी हैं। कितनी तो यह भी भूल गयीं कि यह श्यामवर्ण सौन्दर्यनिधि बालक कौन हैं और परस्पर एक दूसरे के परिचय पूछने लगीं- "री बहिन ! ये किनके पुत्र हैं?"

गोपसुन्दरियों के लिये श्रीकृष्णचन्द्र के अतिरिक्त अन्य कुछ रहा ही नहीं। वे मन-ही-मन नन्दनन्दन पर न्योछावर हो गयीं। घर, माता-पिता, भाई-बन्धु, पति, सगे-सम्बन्धी-सबकी ममता सिमटकर श्रीकृष्णचन्द्र में केन्द्रित हो गयी। अब वे अन्यमनस्क-सी रहने लगीं। निरन्तर उनके नेत्र सजल रहने लगे। प्राणों में एक विचित्र व्यथा थी, जिसे वे प्रकट भी नहीं कर पाती थीं, सह भी नहीं सकती थीं। श्रीकृष्णदर्शन के लिये सतत व्याकुल रहती थीं। प्रातः एवं सायं अपने द्वार पर खड़ी हो जातीं। वन जाते हुए, ब्रज लौटते हुए श्रीकृष्णचन्द्र के दर्शन जहाँ जिस स्थान हो सकते, वहीं वे चली जातीं। गृहकार्य पड़ा रहता। गुयजन खीझते, झल्लाते, समझाते; किंतु सिर नीचा कर लेने के अतिरिक्त वे और कोई उत्तर न देतीं। कितनों के अंग पीले पड़ गये। अभिभावकों ने समझा ये रुग्ण हो गयी हैं। उनके लिये वैद्य बुलाये गये। वैद्यों ने बताया-किसी गहरी चिन्ता के कारण इनकी ऐसी अवस्था हो गयी है। पर क्या चिंता है, यह किसी को पता नहीं लग सका। भाव बढ़ते-बढ़ते यह दशा हुई कि उनके द्वारा गृहकार्य होना सर्वथा असम्भव हो गया। वे करें तो क्या करें। उनके नेत्रों में, मन में श्रीकृष्णचन्द्र समा गये थे। सचेत करने पर वे कार्यभार संभालने अवश्य चलतीं, पर ज्यों चलतीं कि दीखता, आगे-पीछे दाहिने-बांयें-चारों ओर से हमेें घेरकर श्रीकृष्णचन्द्र साथ चल रहे हैं। झाडू देने चलती, तो प्रतीत होता झाडू के कण-कण में श्रीकृष्ण समाये हुए हैं। दही के भांड में, मन्थन-डोरी में, मथानी में श्रीकृष्णचन्द्र खड़े हंसते दिखते। वे कैसे दही बिलोयें? बर्तन मांजने जातीं, उनके कंकण से झन-झन शब्द होता और उन्हें अनुभव होने लगता-श्रीकृष्णचन्द्र के नूपुर की रुनझुन-रुनझुन ध्वनि है। वे चकित नेत्रों से द्वार की ओर देखने लगतीं और उन्हें यही भान होता- "वह देखो, द्वार पर वे खड़े है।" दीपक संजोकर वे दीपदान करने चलतीं, पर दीपक की लौ में श्रीकृष्णचन्द्र नाचते दीखते और दीपक हाथ से गिर जाता। चलते-फिरते समय श्रीकृष्णचन्द्र उनके सामने निरन्तर बने रहते थे। इस परिस्थिति में घर के काम कैसे हों। कितनी तो उन्मत्त प्राय हो गयीं। सिर पर दही का माट लिये वे आतीं नन्दब्रज में दही बेचने और ‘दही लो’ के बदले पुकार उठतीं 'श्रीकृष्ण लो'। लोग चकित नेत्रों से देखते और वे बावरी-सी इस वीथी से उस वीथी में फिरती रहतीं। जिनका बाह्य-ज्ञान लुप्त नहीं हुआ था एवं हृदय में निरन्तर श्रीकृष्ण की स्फूर्ति रहने पर भी किसी प्रकार अपने को संभालने में समर्थ थीं, उनका कार्य रह गया था-केवल श्रीकृष्ण नाम का गान-पनघट पर, यमुना तट पर, गोष्ठ में, ब्रजपुर की गलियों में, हाट में मिलकर परस्पर-एक दूसरी के प्रति अपने प्राणवल्लभ श्रीकृष्णचन्द्र के सम्बन्ध की चर्चा करते रहना।

सदैव श्रीकृष्णचिन्तन

इन गोपिकाओं में न रही थी लज्जा और न रहा था कोई भय। ये निश्चय कर चुकी थीं- दिन-रात श्रीकृष्णचिन्तन, श्रीकृष्णचरित्र की चर्चा करती रहकर वे तन्मय हो गयीं। उन गोपकुमारियों की दशा भी विचित्र थी। ये प्रायः श्रीकृष्णचन्द्र के समान वयकी ही थीं। किंतु जैसे नन्दनन्दन कैशोर शोभा से मण्डित हो चुके थे, वैसे ही इनके शैशव की ओर से नवयौवन व्यक्त होने की प्रस्तावना कर रहा था। सब-की-सब अविवाहिता थीं। इन सबने देखा ब्रजराजतनय की उस सौन्दर्यराशि को; इनके प्राण, मन में भी वह रूप समा गया। फिर तो अराधना आरम्भ हुई नन्दनन्दन को पतिरूप में पाने के लिये। हेमन्त के प्रथम मास में दल-ही-दल ये यमुना के तट पर अरुणोदय से पूर्व एकत्र हो जातीं। परस्पर का स्नेह भी अद्भुत ही था। एक-दूसरी का हाथ पकड़े उच्चकण्ठ से श्रीकृष्णचन्द्र की लीला का गान करती चलतीं। स्नान करके जल के समीप भगवती कात्यायनी महामाया देवी की बालुकामयी प्रतिमा बनाकर विविध उपचारों से पूजा करतीं और अन्तस्तल की श्रद्धा से प्रार्थना करतीं- "माता ! नन्दनन्दन को हमारा पति बना दो, हम तुम्हें नमस्कार कर रही हैं- 'नन्दगोपसुंत देवि पतिं में कुरु ते नमः'।" एक मास तक निर्बाध यह व्रत चलता रहा। योगेश्वरेश्वर श्रीकृष्णचन्द्र का हृदय द्रवित हो उठा इनकी यह अतुलनीय लगन देखकर। चराचर के अधीश्वर, सर्वव्यापक, अन्तर्यामी, विश्वात्मा, ब्रजराजनन्दन स्वयं पधारे उनके व्रत को सफल करने के लिये। चीरहरण-श्रीकृष्णमिलन में बाधक समस्त आवरणों को दूर कर देने की पवित्रतम लीला सम्पन्न हुई। आज इन गोपकुमारिकाओं का सर्वस्व-समर्पण-संस्कार पूर्ण हुआ स्वयं अखिलात्मा महामहेश्वर-उनके ही प्रियतम प्राणवल्लभ व्रजराज-दुलारे के हाथ सेवाधिकार प्राप्ति का वचन पाकर वे कृतार्थ हुई। प्राणों में गूंज उठा श्रीकृष्णचन्द्र के द्वारा दिया हुआ उस समय का यह वरदान- "देखों, आगामी शारदीय रात्रियों में तुम सब मेरे साथ रमण करोगी। मेरे स्वरूपानन्द का निर्बाध उपभोग, मेरी सेवा का सुख पाओगी- 'मयेमा रंस्यथ क्षपाः'।"

महारास

इसके दूसरे वर्ष शारदीय पूर्णिमा की उज्ज्वल रात्रि में गोपसुन्दरियों का, गोपकुमारिकाओं का महारास के लिये आह्वान हुआ। इनकी मिलनोत्कण्ठा चरम सीमा को स्पर्श करने लगी थी। ठीक उसी समय श्रीकृष्णचन्द्र की बाँसुरी पुनः बज उठी। आज इस समय की ध्वनि प्रविष्ट भी हुई केवल उनके ही कानों में। ध्वनि पुकार रही थी उन्हें ही, उनके नाम ले-लेकर। उनका मन तो श्रीकृष्णचन्द्र के पास था ही। शरीर में मन की छायामात्र थी। वह भी आज ध्वनि के साथ ही चली गयी और तब दौड़ीं उस स्वर के पीछे-पीछे सब-की-सब गोपबालाएँ। जो जहाँ जिस अवस्था में थी, वह वहीं से वैसे ही दौड़ पड़ी। दूध दुहना बीच में ही रह गया; दुग्धपुर्ण पात्र, सिद्ध हुए भोज्य अन्न चूल्हे पर ही रह गये; भोजन परोसने का कार्य जितना हो चुका था, उतना ही रह गया; घर के शिशुओं का संलालन, अपने पतियों की सेवा धरी रही; अपने सामने भोजन के लिये परसी हुई थाली पड़ी रह गयी; अपने शरीर में अंगरागलेपन की, अंग-मार्जन की, नेत्रों में अंजनदान की क्रिया भी जितनी हो चुकी थी, उतनी ही रही; और वे सब कुछ छोड़कर, भूलकर चल पड़ीं श्रीकृष्णचन्द्र की ओर। कहाँ पहनने के वस्त्र कहाँ पहन लिये गये। किस अंग का आभूषण कहाँ धारण कर लिये गये-कितनी उलट-पुलट हो गयी है, कैसी विचित्र वेशभूषा से सज्जित होकर वै जा रही हैं, यह ज्ञान भी उन्हें नहीं। पति आदि गुरुजनों ने उन्हें रोकने का प्रयास नहीं किया। पर वे तो चली ही गयीं; जा पहुँची श्रीकृष्णचन्द्र के चरणाप्रान्त में। हां, कुछ अवश्य रोक ली गयीं। पतियों ने द्वार बंद कर दिये; किंतु पतियों का अधिकार, बल प्रयोग शरीर ही था न? मन एवं प्राण पर तो नहीं? फिर विलम्ब क्यों? वे रुद्ध हुई, विरह से जलती गोपसुन्दरियां ध्यानस्थ हो गयीं। श्रीकृष्णचन्द्र के चरण उनके ध्यानपथ में उतर आये। और इधर टूटा उनका समस्त बन्धन।

इस गुणमय देह को सदा के लिये छोड़कर वे भी जो खड़ी हुई अपने प्रियतम प्राणवल्लभ श्रीकृष्णचन्द्र के अत्यन्त समीप ‘जहुगुणमंय देहं सद्यः प्रक्षीणबन्धताः।’ उनके ये शरीर सचमुच पतिभुक्त हो चुके थे, श्रीकृष्णचन्द्र की सेवा के अयोग्य थे। प्राकृतांश किंचित अवशिष्ट था उनमें। इसीलिये उनका परित्याग करके ही श्रीकृष्णचन्द्र की साक्षात सेवा, सर्वथा निर्बाध परिपूर्ण सेवा का अधिकार वे पा सकीं। उधर जो वंशी स्वर से आकर्षित होकर राशि-राशि गोप-सुन्दरियां एकत्रित हुई थीं, उनकी पहले तो अत्यन्त प्रेम-परीक्षा हुई। पर इसमें वे सब-की-सब उत्तीर्ण हुई। उनके परमोज्जवल भाव के मूल्य में विश्वात्मा उनके हाथों बिक गये। गोपसुन्दरियां श्रीकृष्णचन्द्र के हृदय से लगकर कृतार्थ हो गयीं। उसी समय वियोग की लीला भी हुई, श्रीकृष्णचन्द्र कुछ समय के लिये अन्तर्धान हुए और तब निखरा गोपसुन्दरियों के प्रेम का रूप। श्रीकृष्णगान, प्रलाप, करुण-क्रन्दन-सभी सदा अद्वितीय ही रहेंगे। श्रीकृष्णचन्द्र कहीं गये थोड़े थे। वहीं थे, छिपकर प्रेमसुख ले रहे थे। वे उनके बीच में ही मन्मथ-मन्मथरूप में प्रकट हो गये। गोपसुन्दरियों ने उनके लिये अपने उत्तरीय का आसन बिछाया। स्नेहभार से दबे हुए वे विराजे उसी ओढ़नी के आसन पर। कौन? वे विराज, जिनके लिये अपने हृदय में आसन बिछाकर योगेश्वर-मुनीश्वर प्रतीक्षा करते रहते हैं। जो हो, अपने दर्शन से, प्रेमभरी वाणी से श्रीकृष्णचन्द्र ने सबके प्राण शीतल कर दिये। फिर महारास हुआ। इस प्रकार गोपसुन्दरियों के सम्पूर्ण मनोरथ पूर्ण हुए। आदि से अन्त तक यह ऐसी विश्वपावन लीला हुई कि जिसे श्रद्धापूर्वक निरन्तर सुनकर, गाकर विश्व के प्राणी आज भी महाभयंकर हृद्रोग-काम-विकार से त्राण पा लेते हैं। दो वर्ष, कुछ महीनों तक गोपीजन प्रतिदिन ही अतुलनीय परमानन्दरस का उपभोग करती रहीं।

श्रीकृष्ण से बिरह

गोपियाँ वार्तालाप करते हुए

दिन के समय तो वे श्रीकृष्णभावना के स्त्रोत में अवगाहन करती रहतीं एवं रात्रि के समय निमग्न हो जातीं रास-रस-सिन्धु में। पर सहसा एक दिन उनकी एकमात्र निधि ही छिन गयी, श्रीकृष्णचन्द्र मथुरा चले गये। प्रियतम के विरह में उनकी क्या दशा हुई, इसे कोई कैसे चित्रित करे। उनके अन्तर की व्यथा को उन्हीं के प्राणों की छाया में अपने प्राण मिलाकर कोई अतिशय बड़भागी अनुभव भले कर ले, अन्यथा वाणी में तो वह आने से रही। बाह्य दशा के सम्बन्ध में वाणी संक्षेप में इतना ही कह सकती है। उसके बाद गोपबालाओं ने अपने केश नहीं संवारे, उनकी वे सुचिक्कण काली घुंघराली अलकें जिन्हें अखिलात्मा स्वयं भगवान श्रीकृष्ण स्पर्श कर प्रेमविहल हो जाते- उलझकर जटा-सी बनती गयीं। किसी ने फिर गोपसुन्दरियों के अधरों पर पान की लाली नहीं देखी, अंगों पर उन्हें आभूषण धारण करते नहीं देखा। उनका शरीर क्षीण-क्षीणतर होता गया। मलिन वस्त्र धारण किये यमुना के तट पर वन-वृक्षों के नीचे गिरिराज के चरणप्रान्त में-जहां-जहाँ श्रीकृष्णचन्द्र के चरण-चिह्न की भावना होती, वहीं वे बैठी रहतीं। उनके नेत्र निरन्तर झरते रहते। पहले तो वेश-विन्यास ये अपने लिये तो करती नहीं थीं, करती थीं श्रीकृष्णचन्द्र के सुख के लिये। अपने अंगों को सजाने के रूप में इनके द्वारा विशुद्ध भगवत्सेवा होती थी। इनके इस सजे हुए रूप को देखकर श्रीकृष्णचन्द्र सुखी होते हैं, इसीलिये ये श्रृंगार धारण करती थीं। जब श्रीकृष्ण ही चले गये, तब फिर क्या सजना। यही काम और प्रेम में अन्तर है। ‘काम चाहता है अपना सुख, अपनी इन्द्रियों की तृप्ति’ और ‘प्रेम चाहता है एकमात्र सबके नित्य प्रेमास्पदस्वरूप श्रीकृष्णचन्द्र का सुख, अपने द्वारा वे सुखी हों।"

श्रीगोपीजनों में आदि से अन्त तक विशुद्ध प्रेम का प्रवाह है। इन्होंने श्रीकृष्णचन्द्र के लिये लोकधर्म, लोकाचार का त्याग किया; वेदधर्म-कर्माचरण को जलांजलि दी; देहर्धम-क्षुत्-पिपासा आदि को भी सर्वथा भूलकर इनके साधनों की उपेक्षा दी; कौन क्या कहता है, इसकी परवाह-लज्जा छोड़ दी। और तो क्या, ये सत्कुलरमणी थीं, आर्यपथ में पूर्ण प्रतिष्ठित थीं, यह इसके लिये दुस्त्यज था, इसे भी इन्होंने श्रीकृष्णचन्द्र के लिये छोड़ दिया। आत्मीयस्वजनों का भी परित्याग किया; उनके द्वारा की हुई समस्त ताड़ना की, भर्त्सना की भी उपेक्षा कर दी। अपने सुख के सभी साधनों को विसर्जन कर इन्होंने श्रीकृष्णचन्द्र से प्रेम किया। अपने सुख की वासना, हम श्रीकृष्ण से सुखी हों-यह वृत्ति कभी इनमें जागी ही नहीं, इसीलिये ये श्रीकृष्णचन्द्र के लिये निरन्तर तड़पती रहीं, पर इतना निकट होने पर भी वे कभी मधुपुरी नहीं गयीं। क्या पता, हमारे जाने से प्रियतम के सुख में व्याघात हो-इस भावना ने कभी उन्हें वृन्दावन की सीमा से पार नहीं जाने दिया। इसी को कहते हैं वास्तविक श्रीकृष्ण प्रेम। इनके इस निर्मलतम प्रेम में कहीं काम की गन्ध भी नहीं है। श्रीकृष्ण-सुख के लिये ही इनका श्रीकृष्ण-सम्बन्ध है।

उद्धव की इच्छा

कुछ दिन पश्चात् श्रीकृष्णचन्द्र के भेजे हुए उद्धव आये इन्हें सान्त्वना देने। बड़े ही तत्त्वज्ञानी थे उद्धव, पर आकर डूब गये वे ब्रजसुन्दरियों के प्रेमपयोधि में। उद्धव चाहने लगे- "किसी प्रकार इस वृन्दावन में लता-पत्र के रूप में उत्पन्न हो जाऊं और श्रीगोपीजन की चरणरज मुझ पर निरन्तर पड़ती रहे।" वास्तव में श्रीकृष्ण-वियोग की यह लीला तो हुई थी प्रेम की परिपुष्टि के लिये- ‘न विना विप्रलम्भेन सम्भोगः पुष्टिमश्नुते।’ साथ ही यदि वह लीला न होती तो प्रेम की चरम परिणति का रूप एवं भगवान की प्रेमधीनता का उच्चतम निदर्शन जगत में अप्रकट ही रह जाता।

संक्षिप्त कथा

गोपीजन जैसे श्रीकृष्णचन्द्र के लिये व्याकुल थीं, वैसे ही श्रीकृष्णचन्द्र भी उनके लिये सतत व्याकुल रहते थे। केवल द्वारकेश की रानियां-विशेषतः पट्टमहिषियां ही जानती थीं कि उनके स्वामी की क्या दशा है वृन्दावन की, श्रीगोपीजनों की स्मृति को लेकर। उन्हें आश्चर्य होता था, वे समझ नहीं पाती थीं। कभी वे सोचने लगती थीं, हममें ऐसी कौन-सी त्रुटि है, जो हमारे नाथ के हृदय में आज भी हमारी अपेक्षा बहुत-बहुत अधिक स्थान सुरक्षित है श्रीगोपीजनों के लिये। द्वारकेश ने उनकी इस शंका का एक दिन समाधान कर दिया। कहते हैं कि सहसा द्वारकेश्वर रुग्ण हो गये। उस चिदानन्दमय शरीर में भी कहीं रोग होता है? यह तो प्रभु का अभिनय था। जो हो, उदर में पीड़ा थी। सब उपचार हो चुके, पर पीड़ा मिटी नहीं। देवर्षि नारद पधारे। प्रभु ने बताया- "देवर्षे ! पीड़ा हो रही है; इसकी ओषधि भी है। पर अनुपान तुम ला दो। किसी सच्चे भक्त की चरणधूलि ला दो, फिर मैं उसे सिर पर धारण कर स्वस्थ हो जाऊंगा। फिर तो पूरी द्वारवती छान डाली नारद ने और सारे भूतल पर घूम आये। किंतु किसी ने भी नरक के भय से त्रिभुवनपति को चरणधूलि नहीं दी। वे निराश लौट आये। केवल ब्रज में जाना वे भूल गये थे। प्रभु ने आग्रह करके इस बार वहीं भेजा। वियोगिनी ब्रजबालाओं ने घेर लिया देवर्षि को। वे पूछने लगीं अपने प्रियतम की कुशल। उन्होंने भी सारी बात बता दी। सबके नेत्र बहने लगे। तुरन्त एक साथ ही सबने अपने चरण आगे कर दिये और गद्गद कण्ठ से वे बोलीं- "देवर्षे ! जितनी रज चाहिये, ले जाओ। हमारे प्रियतम की पीड़ा मिट जाये, वे सुखी हो जायं। इसके बदले यदि हमें अनन्त जन्मों तक नरक में जलना पड़े तो यही होने दो। इसी में हमें परम सुख है। प्रियतम का सुख ही हमारा सुख है, बाबा।" देवर्षि ने एक बार तो स्वयं उस पावन रज में स्नान किया और द्वारका लौट आये। भगवान तो नित्य स्वस्थ थे ही। पर पट्टमहिषियों की आंखें खुल गयीं।

कृष्ण मिलन

कुरुक्षेत्र में गोपसुन्दरियों का श्रीकृष्णचन्द्र से मिलन हुआ। प्रियतम से मिलकर वे शीतल हुई। इसके अनन्तर जब लीला समेटने का समय आया, गोलाकविहारिणी अपने नित्य धर्म में पधारने लगी, तब श्रीगोपीजन भी उनके साथ ही अन्तर्हित हो गयीं। जो नित्य गोपिकाएं हैं, उनके लिये तो कोई प्रश्न ही नहीं है। जो साधनसिद्धा गोपिकाएं थीं, वे भी नित्यलीला में सदा के लिये प्रविष्ट हो गयीं।


टीका टिप्पणी और संदर्भ

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