कृष्ण तथा यज्ञपत्नियाँ

भगवान श्रीकृष्ण के साथ असंख्य दिव्य लीलाएँ जुड़ी हुई हैं। उन्हीं लीलाओं में से एक याज्ञिक ब्राह्मण की पत्नी से सम्बंधित है, जो श्रीकृष्ण के दर्शन तथा उनकी मनमोहिनी छवि को देखने की प्रबल इच्छा रखती थी, किन्तु पति के हठ के कारण वह भगवान का दर्शन न कर सकी। अंतत: उसके प्राण शरीर से निकलकर भगवान में समा गए।

कथा

वृन्दावन में कुछ याज्ञिक ब्राह्मण यज्ञ कर रहे थे। भगवान श्रीकृष्ण ने अपने सखाओं को भूखा जान कर उनके पास अन्न के लिये भेजा। याज्ञिकों ने उन्हें फटकार कर खदेड़ दिया। तब भगवान ने याज्ञिक ब्राह्मणों की पत्नियों के पास उनको भेजा। वे श्रीकृष्ण का मधुर नाम सुनते ही विविध भोजनों के थाल को सजाकर चल दीं। जब यज्ञशाला से सभी याज्ञियों की पत्नियाँ श्यामसुन्दर के समीप जाने लगीं, तब एक याज्ञिक-पत्नी के पति भोजन कर रहे थे। वे बड़े ही क्रोधी और कृपण थे। ब्राह्मण पत्नी ने जब सभी को जाते देखा, तब उसका हृदय भर आया। श्यामसुन्दरी सलोनी सूरत को देखने की कितने समय की उसकी साध थी। मनमोहन की मंजुल मूर्तिका ध्यान करते-करते ही उसने अनेकों दिन तथा रात्रियों को बिताया था। वे ही घनश्याम आज समीप ही आ गये हैं और संग की सभी सहेलियां उन मनोहारिणी मूर्ति के दर्शन से अपने नेत्रों को सार्थक बनायेंगी। इस बात के स्मरण से उसे ईर्ष्या-सी होने लगी। उसने भी जल्दी से एक थाल सजाया।

उसके पति ने पूछा- "क्यों, कहाँ की तैयारी हो रही है?" उसने सरलता के स्वर में कहा- "सुन्दरता के सागर श्यामसुन्दर के दर्शन के लिये मैं सहेलियों के साथ जाऊंगी।" उसके पति ने कहा- "मैं भोजन जो कर रहा हूं?" उसने अत्यन्त विनय और स्नेह के स्वर में कहा- "आप भोजन तो कर ही चुके हैं, अब मुझे आने की आज्ञा दीजिये। देखिये, मेरी सब सहेलियां आगे निकली जा रही हैं?" क्रोधी ब्राह्मण एकदम अग्शिर्मा बन गये और कठोर स्वर में बोले- "बड़ी उतावली लगी है। क्या धरा है वहां?" उसने कहा- "वहाँ त्रिभुवनमोहन श्याम की झांकी है, मेरा मन बिना गये नहीं मानता।" ब्राह्मण- "तब क्या तू बिना गये न मानेगी?" ब्राह्मण की पत्नी ने कहा- "हां, मैं उन मदनमोहन के दर्शन के लिये अवश्य जाऊंगी।" क्रोध के स्वर में ब्राह्मण ने कहा- "न जाय तब?" उसने दृढ़ता से कहा- "न कैसे जाऊंगी? जरूर जाऊंगी और सबसे आगे जाऊंगी। भला, जो मरेे प्राणों के प्राण हैं, मन के मन हैं और आत्मा के आत्मा हैं, उन सच्चे स्वामी के पास न जाऊंगी, तो क्या जगत के झुठे-बनावटी सम्बन्धों में फंसी रहूंगी?" ब्राह्मणी ने कहा- "आप मेरे शरीर के स्वामी है, आत्मा के प्रभु तो वे सारे जगत के समस्त प्राणियों के अधीश्वर-सर्वलोकमहेश्वर परमात्मा श्रीमदनमोहन ही हैं। उन्हीं सच्चे स्वामी के दर्शन से आज इन नेत्रों को सार्थक करूंगी।"

ब्राह्मण खाना-पीना भूल गये, उन्हें पत्नी पर बड़ा क्रोध आया। मुझे स्वामी न मानकर और मेरी उपेक्षा करके यह दूसरे के पास जाती है, इससे वे अभिमानी ब्राह्मण जल उठे। अत्यन्त ही हठ के साथ क्रोध और दृढ़ता के स्वर में कहा- "अच्छी बात है, देखता हूं, तू मेरी आज्ञा के बिना कैसे जाती है।" उसने कहा- "आप व्यर्थ ही क्रोध करते हैं। मेरा-उनका ऐसा सम्बन्घ है कि कोई लाख प्रयत्न करे, मुझे उनके दर्शन करने से रोक नहीं सकता।" ब्राह्मण ने उसी स्वर में कहा- "हाथ कंगन को आरसी क्या। देखना है, तू कैसे मदनमोहन के दर्शन करती है।" यह कहकर उस क्रोधी ब्राह्मण ने पत्नी के हाथ-पैरों को कसकर बांध दिया और स्वयं उनके पास ही बैठ गया। यज्ञपत्नी ने दृढ़ता के स्वर में कहा- "बस, इतना ही करेंगे या और भी कुछ?"

उसने कहा- "और यह करूंगा कि जब तक वे सब लौटकर नहीं आयेंगी, तब तक यहीं बैठा-बैठा पहरा देता रहूंगा।" उसने सूखी हंसी हंसकर कहा- "पहरे की अब क्या आवश्यकता है। शरीर पर आपका अधिकार है, उसे आपने बांध ही लिया। प्राण और आत्मा तो उन्हीं परमात्मा श्रीनन्दनन्दन के हैं, उन पर तो उन्हीं का एकमात्र अधिकार है। शरीर से न सही, तो मेरे प्राणों के और आत्मा के साथ उनका मेल होगा।" यह कहकर उसने आंखे मूंद लीं। जिस सुन्दरी मालिन को मनमोहन ने अपनाकर निकाल दिया था, अपना यथार्थ स्वरूप-ज्ञान करवाकर कृतार्थ कर दिया था, वही मालिन मथुरा में इन ब्राह्मणों के घरों में फूल-माला देने जाया करती थी। वही प्रतिदिन जा-जाकर इन विप्रपत्नियों के सामने श्यामसुन्दर के स्वरूप-सौन्दर्य का बखान करती थी। उसी के मुख से इसने यशोदानन्दन के स्वरूप की व्याख्या और प्रशंसा सुनी थी। उसने जिस प्रकार ब्रजेन्द्रनन्दन के स्वरूप का वर्णन सुना था, उसी रूप का वह आंखें मूंद धीरे-धीरे ध्यान करने लगी। ध्यान में उसने देखा, नीलमणि के समान शरीर की सुन्दर आभा है, भरे हुए गोल-गोल मुख के ऊपर काली-काली घुघंराली लटें लटक रही हैं। गले में सुन्दर फूलों की माला तथा कंठे आदि आभूषण पड़े हुए हैं। कमर में सुन्दर पीली धोती बंधी है। कंधों पर जरी का दुपट्टा फहरा रहा है। हाथ में छोटी-सी मुरली शोभायमान है। ऐसे मन्द-मन्द मुस्कराते हुए श्यामसुन्दर अत्यन्त ही ममता के साथ देखते हुए मेरी ओर आ रहे हैं। उन्हें देखते ही ब्राह्मणी का श्वास रुक गया। उसके नेत्रों के दोनों कारों में से अश्रु छलक पड़े। मुख्य प्राण उसके शरीर से निकलकर प्रियतम के शरीर में समा गये। ब्राह्मणी का वचन सत्य हुआ। उसकी आत्मा सबसे पहले श्यामसुन्दर के पास पहुँच गयी। ब्राह्मण ने देखा उसकी पत्नी का प्राणहीन शरीर उसके पास पड़ा है। वह हाय-हाय करके अपने भाग्य को कोसने लगा। हे प्राणों के प्राण! हे सभी के प्रिय स्वामिन! इस ब्राह्मणी की-सी उत्कट अभिलाषा और ऐसी एकाग्रता कभी इस प्रेमहीन जीवन में भी एक-आध क्षण के लिये हो सकेगी क्या?


टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः