गरुड़ | एक बहुविकल्पी शब्द है अन्य अर्थों के लिए देखें:- गरुड़ (बहुविकल्पी) |
गरुड़ हिन्दू धर्म के अनुसार पक्षियों के राजा और भगवान विष्णु के वाहन हैं। ये कश्यप ऋषि और विनता के पुत्र तथा अरुण के भ्राता हैं। लंका के राजा रावण के पुत्र इन्द्रजित ने जब युद्ध में राम और लक्ष्मण को नागपाश से बाँध लिया, तब गरुड़ ने ही उन्हें इस बंधन से मुक्त किया था। काकभुशुंडी नामक एक कौए ने गरुड़ को श्रीराम कथा सुनाई थी।
भगवान विष्णु के कृपापात्र
गरुड़ भगवान विष्णु के अन्य परिकरों की भाँति नित्यमुक्त एवं अखण्ड ज्ञान-सम्पन्न माने जाते हैं। ये वेदों के अधिष्ठातृ देवता एवं वेदात्मा कहे जाते हैं। अत: इन्हें शास्त्रों में सर्वज्ञ भी कहा गया है। इनका भगवान के दास, सखा, वाहन, आसन, ध्वजा, वितान एवं व्यंजन के रूप में वर्णन आता है। श्रुति में इन्हें ‘सर्ववेदमयविग्रह’ कहा गया है।[1] श्रीमद्भागवत में एक जगह वर्णन आता है कि बृहद्रथ और रथन्तर नामक सामवेद के दो भेद ही इनके पंख हैं और उड़ते समय इन पंखों से सामगान की ध्वनि निकलती है।[2] ये भगवान के नित्य संगी हैं और सदा उनकी सेवा में रत रहते हैं।
इनके सम्बन्ध में यह कहा जाता है कि इनकी पीठ पर भगवान के चरण सदा स्थापित रहते हैं, जिससे इनके चमड़े पर घट्ठा-सा पड़ गया है। यह परम सौभाग्य इन्हीं को प्राप्त है। भगवान के उच्छिष्ट प्रसाद को ग्रहण करने का अधिकार भी इन्हीं को मिला हुआ है। असुरादि के साथ युद्ध में भगवान इन्हें अपने सेनापति का पद देकर अपना सारा भार इन पर छोड़ देते हैं, क्योंकि ये भगवान के अत्यन्त विश्वासपात्र सेवक हैं। भगवान के नित्य परिकर होने पर भी इनका जन्म कश्यप और विनता से हुआ था। अत: ये ‘वैनतेय’ कहलाते हैं। भगवान के नित्य परिकर होने के नाते भक्तों के सर्वस्व एवं महान सहायक हैं। अष्टादशपुराणान्तर्गत गरुड़पुराण इन्हीं के नाम से प्रसिद्ध है। भगवान की कृपा एवं प्रेरणा से इन्होंने ही इस पुराण का कथन कश्यप जी के सामने किया था और उसी को फिर वेदव्यास ने संकलन करके प्रसिद्ध किया।
कथाएँ
हिन्दू धर्म तथा पुराणों में गरुड़ से सम्बन्धित कई प्रसंग मिलते हैं, जिनमे से कुछ इस प्रकार हैं-
- अमृत की खोज में निकले हुए गरुड़ ने अपनी भूख शांत करने के लिए कछुए[3] तथा हाथी[4] को चोंच में दबा रखा था तथा बैठने का स्थान खोज रहे थे। एक पुराने बरगद ने उन्हें आमन्त्रित किया। वे जिस शाखा पर बैठे, वह टूट गयी। उसी शाखा पर बालखिल्य ऋषि लटककर तपस्या कर रहे थे। गरुड़ ने हाथी और कछवे को पंजों में दबाकर वटवृक्ष की उस शाखा को चोंच में दबा लिया तथा उड़ने लगे। उन्हें भय था कि कहीं भी बैठने से ऋषि-हत्या का पाप लगेगा। उड़ते-उड़ते वे अपने पिता कश्यप के पास पहुँचे, जिन्होंने ऋषियों से प्रार्थना की कि वे शाखा का परित्याग कर दें। ऋषियों के शाखा छोड़ देने के उपरांत गरुड़ ने वह शाखा एक निर्जन पर्वत शिखर पर छोड़ दी।[5]
- विष्णु क्षीरसागर में सो रहे थे। विरोचन के पुत्र एक दैत्य ने ग्राह का रूप धारण करके विष्णु का दिव्य मुकुट हर लिया था। भगवान विष्णु ने कृष्ण के रूप में अवतार लिया। एक बार वे गोमंत पर्वत पर बैठे बलराम से बात कर रहे थे कि गरुड़ दैत्यों को हराकर वह दिव्य मुकुट ले आये तथा वह कृष्ण को पहना दिया।[6]
- शर्त में हार के कारण विनता कद्रू की दासी बन गयी। कद्रू पुत्र नाग थे तथा विनता पुत्र गरुड़ थे। कद्रू ने गरुड़ को प्रतिदिन सूर्य नमस्कार करने जाते देखा तो एक दिन नागों को भी साथ ले जाने के लिए कहा। गरुड़ मान गये। सूर्य के निकट पहुँचने से पहले ही नाग ताप से आकुल हो उठे। उनके मना करने पर भी गरुड़ उन्हें सूर्य के निकट ले गये। वे झुलस गये। वापस लौटने पर कद्रू बहुत रुष्ट हुई। नागों की शांति के लिए कद्रू के कहने से गरुड़ ने रसातल से गंगाजल लाकर उन पर छिड़का।[7]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 'सुपर्णोऽसि गरुत्मान् त्रिवृत्ते शिरो गायत्रं चक्षु:' इत्यादि। 'तस्य गायत्री जगती च पक्षावभवतामुष्णिक् च त्रिष्टुप् च पंक्तिश्च धुर्यौ बृहत्येवोक्तिरभवत् स एतं छन्दोरथमास्थाय एतमध्वानमनुसमचरत्। (सौपर्णश्रुति:)
- ↑ आकर्णयन् पत्ररथेन्द्रपक्षैरुच्चारितं स्तोमुदीर्णसाम। (श्रीमद्भा. 3|21|34)
- ↑ विभावसु
- ↑ सुप्रतीक
- ↑ महाभारत, आदिपर्व, अध्याय 29, श्लोक 42 से 44 तक, अध्याय 30, 1 से 25 तक
- ↑ हरिवंश पुराण, विष्णुपर्व, 41
- ↑ ब्रह्म पुराण, 159 ।-
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